१.३.१९९९
होली
बहुत दिनों बाद मैं रंगों में डूब गयीं हूँ,
जिसमे छंद हैं. लय है व बहुत-सी भंगिमाएं हैं,
आओ, तुम्हे उन्ही रंगों में डुबों दूँ,
जो आज फिर मैंने पाएं हैं |
पत्रों के अन्दर आज अनेक रंग हैं,
हाँ,उनमे रखी पिचकारी भी मेरे संग है,
शब्दों की बूंदों को अन्दर तो आने दो,
तुम्हारी दी हुई वही परिचित उसमे वह भंग है |
विस्मय है, विरोध है,अठखेली है, क्रोध है,
और वह संदेह है.जिसका तुम्हे पहले से बोध है,
अरे,श्रृंगार तो छूट ही गया,
पर उसे बाहर ही छोड़ दो, वह तो अभी अबोध है |
मन की तश्तरी तुम कहाँ छोड़ आये.
इतने सारे रंग मैंने भिंगोयें हैं,
किस पात्र में डालकर मैं इसे लगाऊंगी,
जो, आज मैंने पहली बार पाएं हैं |
मेरी पिचकारी मैं उस लाहौर की इत्र भी है,
जिसे मेरे बड़े बहुत दूर से जमकर लाये,
इसमें वह सभी उत्साह है,उमंग है,
जो मेरे मित्रों,अनुजों ने कमाएं हैं |
तैयार हो जाओ, आज तुम्हारी बारी है,
डर रहे कि मैं तुम्हें अपने रंगों में भिंगों दूँगी.
अरे, तुम्हारा ही रंग कितना पक्का है,
जिसपर वह रंग बनानेवाला भी हक्का-बक्का है,
पर माफ़ करना जो बात आज मैंने बोलीं हैं,
आज एक बार फिर वही होली है :-)
Very cute and sweet poem...
ReplyDeleteLahore? Nice poem.
ReplyDeleteThanks Uncle and Aunti.I wrote this poem when our PM Mr.Vajpayee met with Pak President Musharraf and like others I also thought that this initiative will bring peace in both the countries. But it never happend :-(
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