Monday, September 30, 2013

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प्रस्तावना

5 जुलाई, 2006 को, सिटी हाई स्कूल के प्लेटिनम जुबली समारोह में भाग लेने के लिए मैंने दक्षिण उड़ीसा के बेरहामपुर का दौरा किया। तूफानी मौसम में वहां हजारों की संख्या में आये बहादुर छात्रों ने मेरे दिल को गहराई से छू लिया। मेरे दोस्त, कोटा हरिनारायण, जो भारत के हल्के लड़ाकू विमान विकास कार्यक्रम के पूर्व प्रमुख थे, भी वहां मेरे साथ थे। वह कोटा के इस स्कूल के एक प्रतिष्ठित पूर्व छात्र थे और मैंने उनसे पूछा, " इस स्कूल के छात्र होते हुए क्या आपने कभी ऐसा सोचा भी था कि किसी दिन आप एक लड़ाकू विमान विकसित कर पाएंगे?" अपने विशिष्ट अंदाज़ में हंसते हुए कोटा ने जवाब दिया, "मुझे तो लड़ाकू विमानों के बारे में ही कुछ पता नहीं था, लेकिन मुझे यह जरूर लगता था कि मैं एक दिन कुछ महत्वपूर्ण अवश्य हासिल करूंगा।

किसी बच्चे के जीवन में जो पहले अव्यक्त होता है, क्या बाद में प्रकट होने लगता है?
शायद हां। 1941 में, रामेश्वरम पंचायत बोर्ड स्कूल के मेरे विज्ञान शिक्षक शिव सुब्रमनिया अय्यर ने मुझे ( मेरी उम्र 10 वर्ष थी) बताया कि पक्षी कैसे उड़ते हैं।  वास्तव में उन्होंने इस विषय के प्रति मेरे मन के अकाल्पनिक दरवाज़े खोले और और इस विषय को लेकर मुझे शाब्दिक और चित्रात्मक प्रेरणा दी।

प्राथमिक शिक्षक पारिवारिक आनुवंशिक श्रृंखला के वाहक एक छात्र के प्रगतिपूर्ण जीवन में उपदेशों और कथाओं द्वारा एक निर्णायक भूमिका वहन करते हैं। उनपर अपने छात्रों के जीवन की प्रगति की पूरी जिम्मेदारी होती है।

इस धरती में सदी के 75 साल गुजारने और कई लाख युवा छात्रों से बातचीत के बाद मुझे लगता है कि शिक्षा वास्तव में एक सहयोगात्मक प्रक्रिया है, जो कई उपप्रक्रियाओं से घिरी हुई है। हम इसके चार घटकों के विस्तार पर काम  कर सकते हैं।  ये चार परस्पर तत्व आपस में जुड़ कर एक समग्र रूप ले सकते हैं और शिक्षा का यह समग्र जोड़ इन चार तत्वों से कहीं अधिक बड़ा होता है। आपस में जुड़े इन चार तत्वों के बिना कोई भी शिक्षा किसी विद्यार्थी को वह रूप प्रदान नहीं कर पायेगी, जो आगे चलकर उसका भविष्य संवार सके। ये वो कौन से अवयव हैं जो शिक्षा को पूर्ण रूप दे सकते हैं?

सीखने के पहले चरण में, व्यावहारिक, ठोस और विशिष्ट पहलू शामिल हैं।  दूसरे चरण में साधन और तरीके शामिल है। यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि ज्यादातर लोग इस बात को समझ गयें हैं। तीसरे चरण में अनुभव की सीढ़ी में चढ़कर व्यक्ति समझ के विमान से उतरता है।  इस चरण में एक विकसित आत्मा की स्वाभाविक प्रगति होती है। चौथे और अंतिम चरण में मानव अस्तित्व के दार्शनिक और अमूर्त आयाम की अभिव्यक्ति होती  है। विभिन्न संस्कृतियों के हिसाब से इन चार चरणों के नामकरण भी अलग-अलग होते है।
हिन्दू समाज के अनुसार एक जीवन के चार चरण होते हैं, इनके नाम हैं, ब्रह्मचर्य (छात्र), गृहस्थ (गृहस्थ), वानप्रस्थ (अर्द्ध सेवानिवृत्ति में) और सन्यासी (पूर्ण सेवानिवृत्ति या त्याग)   प्रत्येक चरण के धर्म (सही आचरण) भी अलग-अलग प्रकार के है. ये चारों चरण इन क्रियाओं का अलग-अलग रूप से प्रतिनिधित्व करतें हैं, जिनमें तैयारी, उत्पादन, सेवा और प्रस्थान की अवधि शामिल है । हिंदू धर्म एक शिक्षाप्रद सिद्धांत में विश्वास नहीं करता।  इस धर्म में लोगों को यह सिखाने की जरूरत नहीं पड़ती कि कैसे खुश रहें, कैसे सुरक्षित रहे, और कैसे लोगों में इज्जत पाएं या दोस्तों और सहयोगियों से तारीफ कैसे बटोरें? हिंदू विचारधारा के अनुसार इन मूल्यों की एक स्वाभाविक प्रगति होती है और हर एक व्यक्ति अपने मौलिक हितों की दिशा में इसका स्वतः विकास करता है। प्राकृतिक मूल्यों के माध्यम से यह परिवर्तन आश्रम के रूप में स्थापित किया जाता है और जीवन के चार चरण इसी में आबद्ध हो जातें हैं।

बौद्ध धर्म में, आत्मज्ञान प्रक्रिया लगातार चार चरणों के रूप में समझायी गयी है। ये चरण हैं -  सोतपन्न- यह आंशिक रूप से वह प्रबुद्ध व्यक्ति है और जिसने दिमाग का इन तीन मनःस्थितियों से अलगाव  कर लिया हो  (ये मनः स्थितियाँ हैं, आत्म-आंकलन,  उलझनपूर्ण संदेह और संस्कारों और अनुष्ठानों के लिए लगाव),  अपेक्षाकृत मजबूत कामुक इच्छाओं से युक्त ,बुरी भावनाओं में संलिप्त  व्यक्ति सकदगामी है,  जो व्यक्ति कामुक इच्छाओं और दुर्भावना से पूरी तरह से मुक्त है वह अनागामी और जो भविष्य में आने वाले सभी कारणों से मुक्त और जैविक मौत के बाद पुनर्जन्म और सांसारिक बंधनों से अपने को अलग कर चुका है, उसे अरहंत कहतें है।    

शास्त्रीय पश्चिमी विचारधारा के अनुसार मानव आध्यात्मिक विकास के चार चरण है। पहला चरण, अराजक अव्यवस्थित और लापरवाह है।  इस चरण में लोग अवहेलना और अवज्ञा करते हैं और अपने या अपने आगे किसी अन्य की इच्छा को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते है।  दोषी और विद्रोही लोग इस चरण से कभी बाहर नहीं निकल पाते हैं। दूसरे चरण में वह व्यक्ति है जिसे अंधा विश्वास है, वे इस चरण तक पहुँच चुके होते हैं हैं कि उन्हें लगता है कि उनके बच्चों ने अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करना सीख लिया है, अर्थात ये वो दूसरे धार्मिक श्रेणी के लोग हैं, जिन्हें भगवान पर पूर्ण विश्वास है और उनके अस्तित्व को लेकर वे कोई सवाल करना ही नहीं चाहते। इस अंधविश्वास के साथ विनम्रता और आज्ञा पालन और सेवा करने की इच्छा स्वतः आ जा \ती है। कानून का पालन करने वाले अधिकांश लोग इसी दूसरी श्रेणी से बाहर नहीं आते।  . तीसरे चरण में वैज्ञानिक संदेह और उत्सुकता की अवस्था है। इस चरण में व्यक्ति को भगवान पर विश्वास तो होता है, पर परीक्षा के बाद। वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में काम कर रहे लोग अधिकांशतः  इस स्तर के होते हैं।  इस चौथे चरण का व्यक्ति रहस्य और प्रकृति की सुंदरता का आनंद लेना शुरू करता है। अपने संदेह को बरक़रार रखने के लिए वह प्रकृति की भव्यता को देखना/ समझना शुरू करता है। उनकी धार्मिकता और आध्यात्मिकता दूसरे चरण के व्यक्ति के एकदम अलग होती है, क्योंकि वह किसी भी चीज़ को अंध-विश्वास से अलग वास्तविक विश्वास के पैमाने में स्वीकार करते हैं।  इस प्रकार दूसरे अर्थ में चौथे चरण के व्यक्ति वास्तव में काफी भिन्न होते हैं।  चौथे चरण के लोग, वास्तव में रहस्यवादी कहे जा सकते हैं।

इस्लामी परंपरा में सूफी रहस्यवाद या तसववुफ़ के अनुसार आध्यात्मिक विकास के चार चरण होते हैं, जो आरोही क्रम से इस प्रकार होते हैं; शरीयत, तरीक़त, मरेफ़त, और हकीक़त। शरीयत नियम पुस्तिका में सुस्पष्ट रूप से पालन किये जाने वाले कोड का गठन किया गया। तरीक़त में प्रशिक्षण देने की बातें कही गयीं हैं। मरेफ़त में संगठन की बात और हकीक़त अंततः एक शिखर सम्मलेन है।

नागरिक समाज की जिम्मेदारी है कि वह युवा लोगों को शिक्षित कर जिम्मेदार बनाये और जो  नागरिक जिम्मेदार, विचारशील और उद्यमी प्रवृति के हैं, उन्हें और उन्नत करें। यह काम न तो किसी सेवा उद्योग के किसी खंड का है न ही किसी सरकार का। वास्तव में यह एक जटिल एवं चुनौतीपूर्ण कार्य है, पर इसके लिए नैतिक सिद्धांतों, नैतिक मूल्यों, राजनीतिक सिद्धांत, सौंदर्यशास्त्र और अर्थशास्त्र की गहरी समझ की आवश्यकता है। इन सबके ऊपर यह समाज और उसके बच्चों के लिए हमारी समझ जरूरी है। इस कार्य की जिम्मेदारी न तो सरकार पर डाली जा सकती है और न ही इसे पैसे से खरीदा जा सकता है।

हर व्यावहारिक क्षेत्र में प्रगति उन स्कूलों की क्षमताओं पर निर्भर करती है, जो बच्चों को शिक्षित करती है। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य भविष्य के विकास और समृद्धि को बढ़ावा देना है। बचपन में की गयी पर्याप्त तैयारी और बेहतर नींव ही बच्चों के विकास और इनके उद्देश्यों में सफलता प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध होती है। बचपन में नींव जितनी बेहतर व मजबूत होगी, आने वाले समय में बच्चा उतना ही सफल होगा। शिक्षा के क्षेत्र में मूल सरल बातें बच्चे को ऊंचाइयों तक ले जा सकती है। 
आमतौर पर शिक्षा के एक केंद्रीय सिद्धांत के अंतर्गत "ज्ञान का दान" भी शामिल है। बुनियादी स्तर पर, यह ज्ञान की प्रकृति, उसके मूल रूप और गुंजाइश के साथ संबंधित है। पर साथ ही ज्ञान की प्रकृति और विविधता पर विश्लेषण करना भी उतना ही जरूरी है और यह देखना भी उतना ही जरूरी है कि कैसे यह विचार सच्चाई और विश्वास से संबंधित है। हम अपने बच्चों को दूसरे देशों की सोच के अनुसार शिक्षित नहीं कर सकते  क्योंकि इससे भविष्य में उनके अन्दर मातृभक्ति की भावना का ह्रास होगा।  

पारंपरिक रूप से भारत एक ज्ञानवान समाज रहा है। इस भूमि में महान दार्शनिकों और विद्वानों ने अपने चरण रज रखे थे। शिक्षा के तरीकों और उद्देश्यों को लेकर भारतीय परंपरा व्यापक रूप से फैली हुई है। मैंने रवींद्रनाथ टैगोर और जिद्दू  कृष्णमूर्ति के लेखन में दो अलग-अलग रूप पाए। टैगोर ने कहा है कि जिस प्रकार फूलों के खिलने के लिए बगीचे का होना आवश्यक है उसी प्रकार रचनात्मकता को विकसित करने के लिए संस्कृति का होना आवश्यक है। वहीं दूसरी और जिद्दू कृष्णमूर्ति कहतें हैं कि संस्कृति हमारी रचनात्मकता को बर्बाद करती है। वह किसी भी प्रतिभावान को अनिवार्य रूप से एक विद्रोही के रूप में देखते हैं। परन्तु यह पुस्तक बीच का मार्ग लेती है। परंपरागत शिक्षा के महत्व को समझते हुए यह किताब जिसमें शरीयत और तरेक़त के चरणों का वर्णन है, यह पुस्तक मारेफ़त की  भावना पर केंद्रित है।
  मैंने यहाँ पर सिर्फ वही लिखा है जो मैंने स्वयं देखा है या महसूस किया है। पिछले पांच दशकों में विभिन्न बड़ी परियोजनाओं और प्रेरणादायक नेताओं, प्रतिभाशाली सहयोगियों और प्रतिबद्ध कनिष्ठों ने मुझे जो सिखाया है, मैं अपनी भावी पीढ़ी के साथ वही साझा करना चाहूँगा। मेरे अनुसार ब्रह्मांडीय ऊर्जा को उत्कृष्ट आनुवंशिक क्षमता में विकसित करने की प्रक्रिया मारेफ़त है। मैंने अपने काम के दौरान कई महत्वपूर्ण मौकों पर ऐसा अनुभव किया है और मैं इसे विकास के एक कदम के रूप में देखता हूँ।
 भारतीय परंपरा इस तरह के उदाहरणों से भरी पड़ी है। तिरुवल्लुवर के विद्वान, कबीर और विवेकानंद की प्रतिभा लौकिक है और इन्होंने आगे बढ़कर कई नियम भी स्थापित किये हैं। इन सबने अपने समय में, अपने हिसाब से नए विचारों और प्रतिबिंब के नए रास्ते खोल दिए। भौतिकी और विज्ञान के अंतर्गत हमलोगों में नोबल पुरस्कार लाने की एक विशेष परंपरा भी है। हालाँकि, आजकल अनुसंधान की तुलना में सेवा कौशल ज्यादा आगे बढ़ते जा रहा है।  आजकल के ज़माने में लोग नया कुछ करने से अच्छा, चली आ रही परिपाटी का अनुसरण करना समझते हैं।

आधुनिक दुनिया में धन कुह नया करने से आता है। बदलाव की जरूरत को ध्यान में रखते हुए नैनो टेक्नोलोजी विषय के द्वार सभी के लिए खुले हुए हैं।बेशक, भारत इस क्षेत्र में विश्व में सर्वश्रेष्ठ बन सकता है। सूचना तकनीक के क्षेत्र में भारत ने विश्व में अपनी एक ख़ास पहचान बनायी है और एक इज्जत हासिल की है।  हाँलाकि इससे कुछ हज़ार रोजगार और निर्यात आय ही पैदा की जा सकती है।  पर अब इसे सेवा उपलब्ध कराने के वर्त्तमान परिदृश्य से आगे बढ़ना चाहिये।
इस पुस्तक का उद्देश्य युवाओं के दिमाग में इस बात का प्रवाह करना है कि शिक्षा के क्षेत्र में अपार संसाधन और सहयोगी प्रणालियाँ मौजूद है। अगर इन संसाधनों का इस्तेमाल नहीं किया गया तो उनकी अनदेखी हो  जाएगी।
इस पुस्तक में वे छोटे-मोटे विचार प्रस्तुत किये गये हैं जो पिछले पांच सालों में कई लाख स्कूली बच्चों के साथ बातचीत के दौरान मैंने बांटे, जो  महत्वपूर्ण होते हुए भी परंपरागत पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं।  मेरी वेबसाइट पर बहुत रोचक प्रश्न पूछे गए हैं;  जैसे हम किसी वृत को 360 डिग्री में ही क्यों बांटते हैं? गणित में जोड़ और घटाव जैसे विषय कब लाये गए? आर्यभट्ट ने जिस चीज़ को सन 499 में ही में खोज लिया था, कोपरनिकस के उसे 1000 वर्ष खोजने के बाद इतना हंगामा क्यों हुआ?

  हम एक आतंक प्रेरित युग में रहते हैं। यहाँ ऐसे भी लोग हैं जो ऐसा सोचते हैं कि अपने एक सपने के लिए अपनी जिंदगी का बलिदान कर जन्नत में एक अच्छी-खासी जगह अर्जित कर लेंगे।  इन सब के बीच यह स्वर्ग कहाँ से आया? क्या धरती मानवता के रहने के लिए एक सही जगह नहीं है? क्या हर इंसान अपनी जिंदगी अपनी किस्मत से आगे नहीं बढ़ाता? इस पुस्तक में इस तरह के उत्तर नहीं मिलेंगे। ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने की बजाय  यह पुस्तक स्वयं एक प्रश्न पूछती है कि क्या सभी कलियाँ खिलकर फूल नहीं बनती?


ए.पी.जे. अब्दुल कलाम.

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Friday, August 2, 2013

पिता

पिता

कब देखा था पहले तुम्हें, ये तो याद नहीं,
करीब चार साल की जरूर थी,
माँ से पहले देखा था तुम्हें ही, मैंने अपने पूरे होश-ओ-हवास में,
अमरूदी खुशबू से भरा वो थैला अभी भी याद है मुझे,
जिसमे भरकर कुछ कपड़े , उपहार तुम लाते थे मेरे लिए
साथ में इलाहाबादी अमरूदों से भरा एक बोरा,
लगता है मुझको अब भी कि पापा की खुशबू ऐसी ही होती है.
कुछ मीठी और कुछ भीनी, जो जीवन-सी जीभ में समायी हुई है.

 तुम्हारे हाथों के मोटे दो स्तंभों के बीच लगता था,
जैसे पालना यही है, और ये ही मेरा सिंहासन,
ओढ़ कर तुम्हारे उस तौलिये को,
माँ के आँचल का सार पाया है,
थोड़ा गुदगुदा, थोड़ा सख्त कड़े गुंथे आटे सा,
जहाँ मैं कभी खुद को महफ़ूज पाया है.

बचाते कभी मुझको,
खुली किताबों के बीच आती अकस्मात् नींदों के झोंखों से,
तो कभी गिरी हुई परफ्यूम की बोतल का जिम्मा अपने सर चुपचाप ले कर,
बिठाते मुझको कांधे अपने तब भी, जब लडकियाँ सकुचाने लगती हैं
बाप हो, भाई हो या दोस्त, सबसे जब खुद को छिपाने लगती है,
तब भी बनी रही मैं तुम्हारी एक छोटी-सी डलिया,
जो हमेशा माथे पर ही रहती थी.
न सरकती और कभी नीचे न आती,
ऊपर बैठ के ही बस घर-संसार सजती थी.

पिता से निकलती है एक पुत्री,
जो उस जैसी ही होती है, शब्द में भी
और कहीं कुछ गुणों में भी,
पाती है लाड, दुलार अपरिमित,
और साये में तेरे सिंचती है,
मुश्किल है एक पिता का
अपनी लड़की विदा करना,
जो पल में हो जाती है परायी,
क्या गुजरती है उस कोमल ह्रदय पर,
वो ही जाने जिसकी फटी बिवाई,

मेरे पिता तो बाद में मेरे पिता बने,
पहले बने वो मेरी माँ,
फिर भाई अंत में मेरी बहन,
हो 'पिता', पर ममता तो ओढ़े हो तुम
मेरे लिए,
छुपाते हो मुझे कभी किसी गर्म गुस्से,
और कभी शून्य संवेदनापूर्ण लोगों से
नहीं, मैं नहीं कह सकती कि पिताजी  सख्त होते हैं,
हमारे नए जीवन में वह ही हमारे तख़्त होते हैं,
जो देते हैं सहारा, आश्वासन और ढेर सारा प्यार जीवन का

 मोम-सा है अब भी तेरा प्यार,
जो रिश्ते में  जेठी आने से पहले ही गल जाता है अश्रु बनकर,
और बहा ले जाता है सारे ताप,संताप एक लहर में,
तेरे साये में अब भी वो ठंडक मिलती है,
जो होती है एक आइसक्रीम में,

पर मिठास तो तब ही आती है
जब एक अमरुद का टुकड़ा
तुम हरा नमक मिला के खिलाते हो, जाड़े की धूप में,
उगाउंगी इस साल अपने गमले में,
मैं एक अमरुद का पौधा,
जो तुम्हारी उस खुशबू की याद दिलाएगा, 
सुखाउंगी उस पर रखकर अपना तौलिया
और महक के कह दूँगी कि देखो, पापा घर में आये हैं.…

Monday, July 29, 2013

पूर्व ही रच ली गयी थी 'रामायण '

पूर्व ही रच ली गयी थी 'रामायण '

कलयुग में सृष्टि ने एक नियम बनाया है कि इस जन्म में किये गए पापों का फल भी किसी को इसी जन्म में मिल जाता है और किसी को इसका प्रायश्चित करने के लिए अगला जन्म लेना पड़ता है. प्रसंगवश मैंने एक अलौकिक व्याख्यान पढ़ा और आप सब को बताने का मन भी किया, फलतः लिख रही हूँ, प्रकांड विद्वानों से अनुरोध है कि अगर कोई त्रुटि हो, तो क्षमा करें।
ये बात काफी पुरानी है, नारद देव जो ब्रह्मा जी के पुत्र थे, एक कंदरा में चुपचाप तपस्या करने लगे. उनकी अद्बुत तपस्या से भगवन इंद्र काँप उठे और संशय में पड़ गए कि इंद्रलोक उनसे छिन न जाये। फलतः उन्होंने कामदेव जो को वहां उन्हें विचलित करने के लिए भेजा, कामदेव बसंत को लेकर वहां पहुँचे और उन्हें डिगाने की बहुत कोशिश की, पर नारद जी अडिग रहे और उन्हें वापस जाना पड़ा. हुआ यह था कि एक बार पहले  भी कामदेव ने इससे पूर्व शंकर जी को भी डिगाने की कोशिश की, पर शंकर जी ने कामदेव को श्राप दे दिया था और रति के याचना करने पर उन्हें श्रापमुक्त कर दिया, पर उस तपोस्थान से कुछ किमी की दूरी तक काम का प्रभाव निष्क्रिय हो गया. नारद जी को यह भ्रम हुआ कि उनके खुद के ताप से काम वापस चले गए. नारद जी अपनी प्रशंसा करने के लिए शंकर जी के समक्ष गए. शंकर जी ने उनसे कहा कि अब ऐसी बात कभी किसी अन्य के समक्ष मत कहना और यह मेरी आज्ञा समझ लेना क्योंकि तुम विष्णु के परम भक्त हो, और मुझे अत्यंत प्रिय हो.. पर मद से वशीभूत नारद ने ब्रह्मा जी को यह बात बताई पर पिता ब्रह्मा ने भी उन्हें यह किसी को कहने से मना किया। अहंकार से वशीभूत नारद जी विष्णु जो के समक्ष गए और सारा वृतांत सुनाया। इतना कह  नारद जी वहां से चले गए.  
वहीं दूसरी और शिव की माया से प्रेरित हो श्री हरि ने एक माया नगरी बनायी और नारद जी ने उसमे प्रवेश किया। उन्होंने देखा कि यह तो कई योजन तक फैला हुआ है.. उनके वहां पहुंचते ही वहां के राजा ने उनका स्वागत किया और बैठने के लिए उचित स्थान देकर उनका यथोचित सम्मान भी किया। फिर उन्होंने नारद जी को अपनी पुत्री 'श्रीमती' से मिलाया और उन्हें बताया कि वे उसका स्वयंवर कराने की सोच रहे हैं. वार्तालाप के समाप्त होने के पश्चात नारद जी वापस आ गए और वे काम से ग्रसित हो गए, उन्हें लगा कि इतनी सुन्दर कन्या से उन्ही का विवाह होना चहिये. इस प्रयोजन से वे विष्णु जी के पास गए और नारद जी ने विष्णु जी को बताया की वो उस विशाल नेत्र वाली श्रीमती नामक युवती से विवाह करना चाहते है. उन्होंने भगवान से ये याचना की, कि यदि वो उन्हें अपना रूप दे दें, तो कन्या के पिता नारद जी को विष्णु समझ कर 'ना' भी नहीं कह पाएंगे और अपनी पुत्री का विवाह उनसे करा देंगे।
 विष्णु जी ने उनकी सारी बात सुनी और उन्हें अपने जैसा शरीर दे दिया पर मुंह बंदर-सा दे दिया।  चूँकि वे अपना चेहरा खुद नहीं देख सकते थे, इसलिए नीचे का शरीर मात्र देख वे अभिभूत हो गए और यह ठानकर विवाहस्थल की और चले गए कि आज तो उस सुन्दर कन्या से विवाह कर के ही लौंटेंगे। वहां उनके बगल में शिव जी के दो गण वेश बदलकर उनके साथ बैठे हुए थे. नारद जी ने सोचा की अभी राजा की पुत्री आएगी और सब सज्जनों के बीच उन्हें चुनकर अपना वर घोषित कर देंगी। पर हुआ ठीक इसके विपरीत, वो आई और उन्हें देखे बिना ही चले गयी. नारद जी बड़े दुखी हुए तब वेश बदल के आये गणों ने उनसे कहा कि उन्होंने अपना चेहरा भी देखा है, ऐसा कहकर वे जोर-जोर से हँसने लगे. नारद जी ने क्रोधवश उन गणों को राक्षस हो जाने का श्राप दे दिया, ऐसा सुन वो दोनों गण वहां से श्राप स्वीकार कर सहसा चले गए. इसी बीच विष्णु भगवान वहां आ गए और कन्या ने झटपट वरमाला उन्हें पहना दी. नारद जी  कुपित होकर वहां से चले गए. फिर गुस्सा होकर भगवान हरि के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्हें कई बुरी बातें और खरी-खोटी सुनायी। उन्होंने विष्णु जी को श्राप दे दिया  कि जिस प्रकार मैं स्त्री के वियोग में तड़प रहा हूँ, आप भी उसी प्रकार तड़पें और ये बंदर मुंह वाले लोग ही आपके जीवन में आने वाली विपत्ति के समय आपके सहायक बनें।
विष्णु जी ने सहर्ष श्राप स्वीकार कर लिया पर उन्हें सारा वृतांत कह सुनाया कि किस प्रकार नारद जी मद में उन्मत्त खुद को विजयी घोषित किये जा रहे थे और सब भगवन शिव की माया से ओत-प्रोत और उनके पराक्रम के प्रताप को वो अपना ही ओज समझे जा रहे थे.
 माया से वशीभूत नारद जी की आँखें खुलीं और उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ, उन्होंने भगवान विष्णु से कई प्रकार से प्रार्थना की कि उनके द्वारा दिए हुए श्राप को वो निष्फल कर दें, पर ऐसा हो न सका.  उधर वापस अपने लोक आते हुए नारद जी को भगवान शिव के वो दोनों गण मिले, जिन्हें उन्होंने राक्षस हो जाने का श्राप दिया था. गणों ने उनसे क्षमायाचना की, फिर उनके श्राप को कम करते हुए नारद जी ने कहा कि त्रेता में वे रावण और कुम्भकरण नाम से जाने जायेंगे और भगवन विष्णु का अवतार ही उन्हें मुक्ति दिलायेगा।

इस प्रकार से रामायण की कहानी पूर्व ही रच ली गयी थी, और भगवान को भी स्वयं श्रापमुक्त होने के लिए नर का रूप लेना पड़ा था. भगवान विष्णु को 'नारायण' भी कहते हैं. भगवान विष्णु भगवान शिव के परम प्रिय हैं और उन्हें कमल भी शिव के द्वारा ही प्रदत्त है. एक बार भगवन विष्णु, कमल हाथ में लिए पानी में कई समय तक विश्राम करते रह गए, तब से उनका एक और नाम हो गया, ' नारायण' अर्थात 'नारा है जिसका वास'
नारा (पानी) + अयण (वास)- पानी है जिसका वास, वो हैं नारायण।  

Thursday, July 18, 2013

प्यार

कैसे होता है प्यार? 

सुना है प्यार की कोई जात नहीं होती,
ये तो बस एक उन्माद है, जो आंधी की तरह आता है,
किसी को दिल देकर, भावना फैलाकर,
चुप चाप चला जाता है, मौनी बाबा सा।

देखती हूँ प्यार में डूबे हुए लोगों को,
जरूरी नहीं कि कामदेव के तीर से घायल हों,
सिर्फ नज़रों से, बातों से कर लेते हैं लोग बेइंतिहा प्यार,
पास में बैठ, होती है कुछ गुफ्तगू और थोड़ी तकरार
और इसको ही समझ लेते हैं प्यार।

 कोई किसी को कैसे करता है प्यार,
कैसा होता है इस प्यार का इज़हार,
ऐसा जैसे, माँ अपने बच्चे से करती है,
बहिने जब एक-दूजे पे तरती हैं,
गाय बछड़े से करती है,
दोस्त-दोस्त के नाम पर मर मिटता है
किसी से मिलने को जब कोई तरसता है,
पुराने किसी प्रेमालाप को यादकर,
जब ह्रदय पीड़ा से संकुचित हो जाता है
या अपनी मिटटी की याद में जब खून उबाल मारता है
या किसी अनजान को देख होठों के फूल खिलते हैं
और आँखें गुलाबी हो जाती हैं,
या जब किसी नन्हें से बच्चे को देख
जब गोद में उठाने का जी करता है    
तब प्यार ही  होता है मेरी जान,
और कोई तब रोक नहीं पाता,
इस आवेग को,
गुस्से को रोकने के तो कई किस्से सुने हैं,
पर प्यार करने से किसी को कोई कैसे रोक सकता है
दिल का साइज़ बढ़ जाता है और खून के बदले प्यार बहने लगता है
पूरे जिस्म-ओ-जान में खुमार चढ़ जाता है इस नशे का,
आगोश में भरकर उसे, कर देना चाहिए प्यार चस्पा,
सोने पे सुहागा तो तब हो जब
चूम कर लगाओ उसपर अपने प्यार का ठप्पा
व्यर्थ नहीं जायेगा प्यार का ये एहसास,
जिनको होता है प्यार वो तो होते ही हैं कुछ ख़ास।

@शिप्रा पाण्डेय शर्मा 

Sunday, July 14, 2013

सुलगता धुआं

सुलगता धुआं

रात गहरी हो चुकी थी, काली स्याह पर जैसे किसी ने थोडा काजल और डाल दिया हो, और बस गुजरती जा रही थीं घड़ियाँ रात की। जीवन के पन्ने पलट के एक दूजे की कहानियों में खोये हुए थे वे दोनो। नींद भी नहीं थी आँखों में, और डिनर किये भी काफी समय बीत चुका था। कुछ लोगों को बातें करने के लिए चाय का सहारा चाहिए पर रिया और ऋषिकेश को इसकी कोई जरूरत नहीं थी। उनकी बातें, किस्से कभी नए मौसम जैसे, तो कभी अलमारी में रखे पुराने कपड़े जैसे, जिन्हें बाहर निकालने पर पुरानी यादों की बदबू आती। बहरहाल एक चीज़ थी, जो कभी छूटती नहीं थी, वो थी ऋषि के हाथों से सिगरेट के दौर। ऋषि सिगरेट पीता और रिया उसका धुआं पीती।
  काफी मसरूफ़ रहता है मर्द बिचारा, अपनी जिंदगी की उलझनों में। काम का तनाव, आगे बढ़ने की ललक, और भी कई सारी बिन बुलाई मुसीबतों में सिर धुनता रहता है घर का ये मर्द। रिया हमेशा सोचती थी आज नहीं तो कल ये आदत जरूर छूटेगी पर कोई इलाज़ नहीं था इस मर्ज़ का। कहीं किसी ने बना के नहीं दिया था उसे कोई आशियाँ, एक-एक तिनका खुद समेटा था, उन्होंने खुद अपने दम पे। किसी के सामने कभी हाथ फ़ैलाने की नौबत नहीं आई थी, अच्छा-बुरा जो हुआ जिंदगी में, वो अपने अन्दर समेटना जानती थी रिया। उसे पता था अपनी जिंदगी का फलसफा, क्या होना है और क्यों होना है, पर उसकी बातें नक्कारखाने में तूते की आवाज़ सी थी, पता ही नहीं कि कभी किसी ने सुनी भी की नहीं। सबको अपनी जिंदगी से कुछ न कुछ चाहिए था, किसी को प्यार, किसी को दौलत, किसी को सम्मान और पता नहीं क्या-क्या, पर रिया को पता नहीं क्या चाहिए था इस जीवन से, किसी चीज़ के पीछे नहीं भागती थी वो, जो जैसा मिल जाये, उसी में खुश हो जाती थी, पर उस मिलने में थोड़ी सहजता हो, थोडा प्यार और अपनापन हो। किसी का छीन के खानेवालों में से वो कभी भी नहीं थी, सपने में भी नहीं। बार-बार समझाती अपने पति को इस लत को कम कर दे, धीरे-धीरे छोड़ दे, पर कोई फायदा नहीं। ये नहीं कि ऋषि कोई लतखोर था, या दिन रात छल्ले ही उड़ाता रहता था, पर जितना भी धूम्रपान करता था वो सब रिया को भी कहीं न कहीं छलनी करता था। उसे पता था कि किसी दिन कोई अनहोनी हो जाएगी तो पास में देखने वाले, ढ़ाढस देने वाले कम, और फब्तियां कसने वाले ज्यादा बैठेंगे पास में। गलतियाँ गिनाने वाले कई लोग दिख जायेंगे बरसाती मेंढक की तरह।
  रातों के पन्ने पलटते गए, उम्र गुजरती गयी। रातें तो काली की काली रहीं पर बालों के स्याह रंग पे दिन सा उजाला धीरे-धीरे चढ़ता गया। सभी व्यस्त, अपने कामों में बेखबर, जिंदगी से निश्चिंत। गुजारने के लिए जिंदगी हर कोई किसी न किसी काम में लगा रहा, और पता नहीं कब जवान से अधेड़ हो गए।
हर दिन की तरह रिया और ऋषिकेश अपने काम के लिए निकल पड़े, पर अचानक ऋषि को काम के लिए मुंबई ऑफिस से ही जाना पड़ गया। रिया अपने ऑफिस में थी। अचानक सीने में दर्द से कराह उठी रिया, और पड़ गयी बदहवास-सी अपने डेस्क पे, बगल में बैठी कोमल ने देखा कोई हरकत नहीं है पिछले कुछ मिनट से रिया के टेबल में, जा के देखा तो अवाक् रह  गयी थी वो तो। इमरजेंसी में ले गए ऑफिस वाले उसे हॉस्पिटल और एडमिट करवा दिया। सभी स्तब्ध थे, हैरान थे कि क्या हो गया है उसे, बहुत फिट थी वो, कम बोलना, कम खाना-पीना उसकी आदत थी, इसलिए लोगों को और ज्यादा हैरानी हो रही थी। बहरहाल मुंबई पहुंचा ऋषि आनन-फानन में वापस लौटा और सीधे हॉस्पिटल ही पहुंचा। चेहरे में पीलापन, और अचानक से बूढी-सी प्रतीत होती रिया को देख भक्क सा रह गया ऋषि। पता नहीं आज कितने दिनों बाद देखा था उसने ठीक से उसे।  हल्का हार्ट अटैक हुआ था उसे, जिसे 'एनजाइना अटैक' भी कहतें है। डॉक्टर ने चुप रहने की सलाह दी थी उसे।
 कारण का तो पता नहीं चल पाया किसी को, पर डॉक्टर का कहना था, ज्यादा स्ट्रेस लेतीं हैं लगता हैं रिया! आराम ही इसकी दवा है भाईसाहब।

२-३ दिन लगे पर, आखिरकार घर आ गयी रिया, साथ में एक फुल टाइम कामवाली भी लगा ली थी उन्होंने, जो घर के सारे काम कर सके। ऋषि सोचता रहा कि आखिरकार ऐसा क्या हुआ जिसके कारण रिया की यह हालत हो गयी। अब धीरे-धीरे ठीक होने लगी थी रिया और घर के काम-काज भी खुद करने शुरू कर दिए थे, उसने। ऋषि को यह बात पचा नहीं रही थी, आखिरकार उसने पूछ ही लिया, रिया ऐसा क्या है जो तुम्हे दिन पर दिन खाए जा रहा है, तुम कुछ बांटती नहीं, अपने भीतर ही दबाये रखती हो। रिया ने सोचा अभी न बोल पाई तो कभी भी न बोल पाऊंगी, सहसा वह बोल उठी, ये तो अभी ट्रेलर था ऋषि, इससे भी ज्यादा हो सकता था। सोचो मेरी जगह तुम भी हो सकते थे, आज मुझे हॉस्पिटल के बिस्तर में पड़े देख कर तुम कितने परेशान हुए, और तुम तो दिन-रात छल्लों की दुनिया में खोये रहते हो। कहाँ मशगूल रहते हो, किस उधेड़बुन में फंसे रहते हो, क्या-क्या छुपाते हो मुझसे? छोड़ दो ऐसी उठा-पटक की जिंदगी, नहीं चाहिये हमें ये सब, कितना चाहिए जिंदगी गुजारने के लिए? दो रोटी, एक छत, कुछ कपडे और अनगिन साँसें, हमारा काम चल जायेगा ऋषि, पर फिर जिंदगी वापस नहीं आएगी। पर एक बात बता दूं और तुम इसका कभी बुरा नहीं मानना, अगर आज मेरी जगह तुम होते तो ये पक्का है कि मैं पलट के तुम्हें देखने भी नहीं आती। हॉस्पिटल में तुम्हे साँसों को उँगलियों में गिनते देख मेरी कोफ़्त और बढ़ जाती, सालों से सुलगते तुम्हारे धुंए से मैं खोखली हो चुकी हूँ, कई जतन किये, तुम्हे रोकने के और सभी नाकाम। अपनी जिंदगी दे के ही कुछ प्रमाणित नहीं कर सकती थी मैं, पर हाँ, अगर मेरी जगह तुम होते तो पक्का तुम्हे देखने के लिए नहीं आती मैं।

 कहीं दूर चली जाती इस बार, जहाँ इस उलझन, सुलगन की लौ में तड़पना नहीं पड़ता। नहीं आती कि तुम्हे असहाय पड़ा देख मैं हृदयहीन हो जाती, भावशून्य रह जाती, किस मौके को कोसती, किन-किन रातों को याद करती जब रात का पन्ना पलट हम उजाले को देखने के लिए जागते थे। एक दम हिम्मत नहीं हैं मुझमे ऋषि क्योंकि हर पल, हर दिन, हर माह, हर साल मैंने तुम्हे रोका था, धुआं उड़ाने से, पर तुम कभी न समझ सके एक ये ही बात जो मैं हमेशा कहती रही।

नहीं आती मैं, दूर चली जाती कहीं सबसे .......... कहते बुदबुदाते सो गयी रिया, लगा ऐसे ऋषि को जैसे वहां बिस्तर पर नहीं रिया नहीं,  वो खुद लेटा पड़ा है। चुप-चाप निहारता रहा, एकटक सोचता रहा उसके साथी की हर नाकाम कोशिश को। छलनी पड़ा था उसका सीना और कराहती हुई रिया की साँसों से घबरा गया था ऋषि। बैठे-बैठे काले, डरावने सपने-सा लगने लगा था जीवन, जो सिगरेट की हर कश में गोल-गोल खुद को ही लीले जा रहा था। समझ ही नहीं पाया कि क्यों पीता रहा वो इतनी सिगरटें? खामोश बैठा रहा ऋषि, किसको छोडूं और किसे पकडूँ, इसी विचार में कलपता रहा वो बिस्तर में पड़ी रिया और टेबल में पडी सिगरेट को देखकर।

@शिप्रा पाण्डेय शर्मा

Friday, July 5, 2013

खूबसूरत कार्मेल पर लट्टू जेवियर्स

खूबसूरत कार्मेल  पर लट्टू जेवियर्स 
यह आलेख पढ़कर आप इसे कदापि अन्यथा नहीं लें, कि मैं किसी स्कूल के बारे में कुछ अनर्गल लिखने का प्रयास कर रही हूँ, पर यही सत्य है कि  दो प्रतिस्पर्द्धी स्कूलों के बच्चे पीढ़ियों से लव-हेट (Love-Hate) वाला संबंध रखतें है।
ज्यादा तो गहराई से मुझे नहीं मालूम, पर यौवन की दहलीज़ में कदम रखते ही आइना सबसे बड़ा सहारा हो जाता है नव युवाओं का। बाल संवारने से लेकर लटों को दाँये-बांयें करने में ही बड़ा वक़्त कट जाता है, रहा-सहा थोडा वक़्त किताबों के काले अक्षरों को समेटने में लग जाता है। वैसे मैं अपने को इससे पहले ही अलग कर लूं, क्योंकि ऐसा मेरे साथ एकदम भी नहीं हुआ, क्योंकि मम्मी ने स्कूल तक तो मुझे हमेशा ही बॉब-कट रखा। पर कॉलेज जाने के बाद जब बाल थोड़े बढे, तो एक बित्ती गुथ सँभालने के लिए शीशे के सामने खड़े होना बड़ा सुहाता था। पापा मजाक करते थे, कि काला पर्दा डाल दो शीशे में, नहीं तो एक दिन शीशा थक के खुद ही टूट जायेगा।

अलबत्ता, कार्मेल की हसीन लड़कियों के मिज़ाज को समझने के लिए शहर में दो ही हस्तियाँ थीं, या तो उन लड़कियों के माँ-बाप, या उनके आगे-पीछे डोलते हुए ये गबरू जवान। अच्छा, मैं थोड़ी नासमझ बचपन से ही थी, लडकियाँ गुट बना के लड़कों के बारे में गुफ्तगू करती थीं, और मुझे पास देखकर बात पलट देती थीं। इस बात में कोई लाग-लगाव नहीं है और यह बात सोलह आने सच है। क्लास 6th से तो मैं यह देखती आ रही थी। क्लास 6th में हमारी क्लास में एक बेहद ही हसीन लड़की थी, जो बाद में किसी दूसरे स्कूल चले गयी थी, वहीँ से मैंने अपने साथ ये वाक्या देखा। इन लोगों की कानाफूसी छुट्टी टाइम भी बहुत दिखती थी, चाट वाले भय्या के पास, या नीचे बैठ कर इमली बेचने वाली दीदी से पास ये लोग दिख ही जाते थे।रिक्शे में जाती किसी खूबसूरतो के आस-पास चँवर झूलाने वाले-से ये अल्हड, अमूमन मुझे तो दिख ही जाते थे। ये उनके साथ ऐसे होते थे जैसे  कि या तो रिक्शा चलने वाला रिक्शा चलाते-चलाते अगर थक जाये तो वे ही रिक्शा चला कर उन्हें घर पहुंचा देंगे, या हुड में बैठी लड़कियों के आस-पास ये किसी बॉडीगार्ड से कम नहीं लगते थे। थे तो सभी छोटे पर साइकिल की सवारी इनकी बड़ी मजेदार होती थी।
दो तरह की लडकियां जेवियर्स से जुडी थीं, एक तो जो पढने लिखने में बहुत ही तेज होती थी और आये दिन किसी न किसी डिबेट कम्पटीशन या एक्जीबिशन में वहां जाती रहती थीं, और दूसरी वो जो सुन्दर दिखने वाली थीं और वहां के नौ-निहाल इनपर लट्टू थे. जब तक मैं क्लास 9th में आयी तब तक इनका झुण्ड ब्रेक टाइम में स्कूल के अन्दर भी पधारने लगा था। उस समय थोडा सिनियरटी का एहसास हो चुका था। ये वाक़या मेरे साथ हो चुका है, इसलिये बताने में कोई झिझक भी नहीं है। एक बार हमारी एक जूनियर से मिलने एक भाईसाहब स्कूल में आ धमके, थोड़ी देर तक मैं देखती रही, पर एक समय के बाद मेरे से रहा न गया। मैंने आव न देखा ताव, उस लड़की को खूब डांटा और साथ में उस लड़के को भी खूब खरी-खोटी सुनाई। बीच में टीचर भी आईं, उन्होंने भी खूब फटकार लगाई उस लड़के को और अंततः वह साहबजादे वहां से निकल लिए। बड़ा लीडरशिप का एहसास हुआ था उस दिन, टिफ़िन खत्म और मेरी क्लास में कुछ बच्चों को यह पता लग गया कि मैंने ऐसा कारनामा किया है आज, तो सबने बड़ी चुटकियाँ लीं। पर एक सहपाठी थी, जिसने मुझे समझाया कि आज का दिन मेरे पर काफी भारी पड़ने वाला है, सो घर संभल के जाना। भाई  साहब, मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम. पता चले कि वो मियाँ मेरे ही पीछे पड़ जायें और परेशान करने लगे। भगवान का नाम लेके घर की और निकले। वो लड़का दिखा भी था, हमारे रिक्शे के आस-पास और मैं वहां चूहे की तरह दुबकी-सी बैठी थी। घर के पास आने से पहले ही मैं उतर ली और रास्ता बदल कर पैदल-पैदल घर पहुँच गयी।
उस दिन से समझ आया की रोमियो-जूलिएट की कहानी में बिना बात के विलेन न बनना ही अच्छा।

   बात बड़ी नाजुक है और खुलेआम कहने में मुझे कोई गुरेज़ भी नहीं है कि छोटे शहरों में उस समय लड़के-लड़कियों को बात करते देख लेने पर काफी बुरा माना जाता था। कई अटकलें लगायी जाती थी और कई फ़साने भी बनाये जाते थे। छोटी उम्र ( teen age) में लगाव, आकर्षण होना स्वाभाविक है, वैसे इस बात पर कोई ठप्पा नहीं लगाया जा सकता पर आकर्षण, सराहना और सुन्दरता किसी उम्र की मोहताज़ नहीं होती, वो तो बस नैसर्गिक है, अपने आप हो जाती है। बड़े शहर में रहने के बाद मुझे को-एड (co-ed) के मायने समझ आये। बचपन से ही कोई पर्दा नहीं, सब समान, एक जैसे. लड़का-लड़की वाला कोई एहसास नहीं। मजेदार बात यह थी, शहर से करीब 15 किमी दूर मेरु के बीएसएफ स्कूल को छोड़ कर हज़ारीबाग में कोई  co-ed स्कूल था भी नहीं। कार्मेल की लडकियां खालिस कॉन्वेंट वाली होती थीं और जेवियर्स के लड़के भी कोई कम नहीं थे। वैसा ही रुतबा था उनका भी। पर मजे लेने वाले तो सिस्टर्स और फादर्स पर भी जुमले छोड़ ही देते थे।
आज अगर फिर से रिक्शे पे बैठ के निकलूँ अपनी गली  से और ऐसे रोमियो-जूलिएट फिर से दिख जायें तो कसम ख़ुदा की इंस्टेंट आशीर्वाद ले लूं, "पुनः युवती भवः"।

गुजरा हुआ ज़माना, आता नहीं दोबारा, हाफ़िज़ खुद तुम्हारा।
http://youtu.be/qwY_WjMqUyE