Wednesday, May 4, 2011

पुरुष

२९-१०-१९९९ 
 पुरुष
पुरुष जब नीर बहाता है,
तब वह नारी से भी दीन नज़र आता है,
और जब वह व्याकुल हो जाता है,
तो फैले आँचल में छुप जाता है |

स्त्री का जब सुख-सौभाग्य छिने,
तब वह कठोर पाषाणी-सी हो जाती है,
पुरुषों के संग से नारी हटे,
तो वह असहाय मोम बन जाता है |
होतें हैं पुरुष अधीर,
जो आज तक मैंने उन्हें जाना है,
तो धरते क्यों तुम छद्म रूप गंभीर,
क्या तुमने न खुद को पहचाना है |

हों,पुरुष गर दम्भी तो,
खुद अपने से उकताते हैं,
और कभी हों कोमल-कान्त,
तो सौ-सौ नीर बहाते हैं |

अपने पुरुषत्व का मान लिए,
क्यों अज्ञानी से तुम फिरते हो,
चंचल, चपला, चतुर नारी के समक्ष ,
खुद डींगे लिए हिरते हो |

जब इतना निर्बल,निःसहाय,
नैराश्य भाव तुममें आ जाता है,
सत्य कहूं हे मनुपुत्रों तुम,
स्त्री से भी ज्यादा दुर्बल दिखते हो
तब मुझमें एक असीम-से शक्ति भर उठती हे,
स्त्रीत्व का मान लिए मैं फिरती हूँ,
और अपनी इस एकल सत्ता में,
तुमको कभी भी परम स्थान नहीं मैं देती हूँ |

4 comments:

  1. Bahut khoob!A good understanding and description of the vulnerability of men.

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  2. You seem to have more gyan than most mortals around. :)

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