Friday, June 21, 2013

पहाड़ की डायरी

पहाड़ की डायरी

यूँ तो मन नहीं कर रहा है, बहुत ही विचलित कर देने वाली प्राकृतिक विपदा से मन कुम्हला गया है, दुःख से द्रवित है, पर अपनी मिटटी से जुड़े होने के कारण अपने विचार व्यक्त करना छोड़ भी नहीं सकती। आज से करीब एक महीने पूर्व ही मैं पहाड़ों (डानों) के दर्शन करके आई, पर ऐसा कुछ खास उमंग भरा कुछ भी नहीं रहा, कुछ स्थितियों के लिए तो हम खुद ही जिम्मेदार थे, और कुछ वहां की सामजिक, भॊगोलिक व्यवस्था देख के ह्रदय विदीर्ण-सा हुआ जा रहा था।

अल्मोड़ा से तो मेरा वैसा ही लगाव है, जैसा कृष्ण का वृन्दावन से. यह बहुत ही स्वाभाविक-सी बात थी, कि वहां तो मेरा जाना जरूर ही होता . पर कहानी शुरू होती है हल्द्वानी से, जहाँ से पहाड़ों की गुफाएं खुलती हैं। हल्द्वानी से बिनसर जाने का हमारा इरादा था और वन विभाग के एक गेस्ट हाउस में बुकिंग हो रखी थी। हल्द्वानी से अल्मोड़ा होते हुए हम बिनसर के लिये निकले थे। बेहद उत्साहित और अपनी धरती को छू लेने से ही अपने पहाडी होने का अहसास अविरल हिलोरे मार रहा था, कहीं भीतर। बिनसर में रेस्ट हाउस 0 पॉइंट में था, मतलब कि वहां 'न कोई बंदा, न बन्दे की जात'. देवदारों के सघन जंगलों से जाती हमारी गाड़ी और पृथ्वी से घर्षण करते गाड़ी से टायरों की आवाज़ से ही हमारा खून सूखे जा रहा था। भरे दिन के वक़्त रास्ते में अपनी साँसों की रफ़्तार और जंगलों से आती कीड़े-मकोड़ों की खुसफुसाहट मुझे क्या सोचने को मजबूर कर रही थी कि मैं आपको बता भी नहीं सकती। बिनसर से करीब 15  KM आगे जाकर ये रेस्ट हाउस था। वहां पहुँचने से  पहले नीचे ही हमसे कई प्रकार के टैक्स वसूल कर लिए गए। उस ऑफिस को देख कर ऐसा लगा कि सच में खज़ाना हाथ लग गया, और अब यहाँ खूब मजे करके जायेंगे। करीब दिन में 12 बजे हम वहां पहुंचे। गेस्ट हाउस काफी बड़ा था और हम लोग 5 लोग थे। 3  बड़े और 2 बच्चे। सबसे खूबसूरत और हैरान करने की बात यह थी की पूरा रेस्ट हाउस हमारे लिए बुक किया गया था। बिनसर जाते हुए कसारदेवी के पास हम चाय पीने के लिए रुके थे। चाय तो नहीं पी, पर कोल्ड ड्रिंक जरूर पी ली वहां एक नया विक्रय तरीका देख मुस्की काटे बिना नहीं रहा गया। कोल्ड ड्रिंक की नार्मल बोतल 10 रुपये की थी और बिक रही थी 12 में, जानते हैं क्यों? 2 रूपया फ्रिज में रखकर ठंडा करने के लिए। वहां के दुकानदार ने पूछा हमारे गंतव्य के बारे में, तो उन्होंने हिदयातन हमसे यह जरूर कह दिया कि अपने साथ खाने-पीने की सामग्री जरूर ले लेना, कुछ मैगी, ओट, और हलके-फुल्के खाने पीने की चीज़ें तो हम दिल्ली से ही ले के चले थे, पर फिर भी एहतियातन हमने ब्रेड, बटर, आलू, दूध  चाय पत्ती जैसी मौलिक चीज़ें अपने साथ ले लीं।
बिनसर गेस्ट हाउस पहुंचे और वहां की प्राकृतिक छटा देख के मन गदगद हो उठा। वहां के स्टाफ ने बड़े ही गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया और हमारा सामान कमरों में रखवा दिया। कई घंटो के सफ़र से थका हम सबका शरीर चाय का प्यासा था। वहां के स्टाफ कम खानसामे को हमने चाय का आर्डर दिया, गरम चाय माँगने के सबब में एक ठंडा-सा  उत्तर मिला, साहब! यहाँ तो सामान नहीं होता, आपको खुद ही लाना पड़ेगा। भारत सरकार के एक बेहद खूबसूरत से अतिथि-गृह में स्वागत की इस भव्यता से हम इतने आहत हो गए कि मन किया काश! पहाड़ों से  नीचे कूद पड़ने पर गर कुछ न होता तो सीधे वसंत कुंज में आ टपकती। करेला, ऊपर से नीम चढ़ा ....... उसी गेस्ट हाउस में पीछे की तरफ बैठे थे एक बुजुर्ग दंपत्ति। जो कहीं नीचे प्राइवेट रेस्ट हाउस में रह रहे थे और उन्होंने ऊपर सामान ला कर गेस्ट हाउस की रसोई में खाने का आर्डर दे रखा था। भगवान की कृपा और उस भलमानस दुकानदार की सूझ-बूझ थी की हमने दूध, चीनी, और चाय पत्ती उसी की दुकान से खरीद ली थी। हमने उन्हें चाय बनाने का आर्डर दिया और साथ ही खाने के बारे में भी एक काल्पनिक मेनू पूछना चाहा। उन्होंने बताया कि यहाँ 0 पॉइंट में यात्रियों को रहने के लिए इस रैनबसेरे के अलावा और कुछ नहीं मिलता। न खाना, न चाय और न ही कुछ। उसने हमें सलाह दी कि 15 km पहले जो जगह है वहां से  1-2 दिन का रसद लाया जा सकता है। पर हमने हल्द्वानी से बुक की हुई गाड़ी वापस लौटा दी थी। तो अब करें भी तो क्या करें? हमने अपने बैग से खाने की जितनी भी सामग्री थी, बाहर निकाली और उन्हें बनाने के लिए दे दी। मैगी बनी, चाय बनी, ब्रेड गरम हुए और हमने प्याज़ टमाटर और नमकीन के साथ मिला कर उस सुस्वादु भोजन का आनंद लिया।

अब मेरे मन में सवाल उठता है कि कई हज़ार रुपये खर्च करने के बाद क्या हम ऐसे आतिथ्य के भागी थे। जब बुकिंग की गयी थी, तब ही साफ़-साफ़ शब्दों में क्यों नहीं बतलाया गया कि  खाने का कोई प्रबंध नहीं होगा, अपने जिन्दा रहने की सामग्री स्वयं ले के आयें।  हमारी भारतीय संस्कृति तो कहती है 'अतिथि देवो भव', और कलयुग में आज भी पतन के गर्तों में समाये हम मानव अपने अतिथियों से उनके जीने के सामान के आकांक्षी नहीं होते।
ऐसे समय में यही कहावत याद आती है,

रूखा-सूखा खाय के ठंडा पानी पी,
देख परायी चूपड़ी, मत ललचायें जी .....

जी के ललचने का तो सवाल ही नहीं होता पर रुखा-सूखा भी हाथ नहीं लगा। सरकारी सुविधाएं नाम की ही होती हैं, जब मौसम खुशगवार था, तब सरकारी रवैय्या कितना बेपरवाह था, आज वहां लोगों का क्या हाल होगा ये सोच के ही शब्द मौन हो गयें हैं।

शेष आगे .....       

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