Sunday, September 19, 2010

मेरा बचपन

उँगलियों का दम फिर से हरकत में हैं
कई सालों बाद चलने लगीं,
तमन्ना है कि हरारत करे,
दिल में छुपे लब्ज पढने लगे
बीच में दिमाग का काम न हो,

होठों- सी बात  झटपट करे

मेरा मानना है कि मन को सुकून देने के लिए पढना और लिखना जरूरी है,चूँकि काफी दिनों से कुछ लिखा ही नहीं था, इसीलिए मन थोडा डगमगाया हुआ था, पर अब उँगलियों को दिल की आवाज़ मिल गयी है.......... मुझे लगता है करीब दस सालों से मैंने अपने लिए कुछ भी नहीं लिखा था पर आज फिर एक मौका मिला है, तो खाली नहीं जाने दूँगी...

बचपन से शुरू करने का दिल चाहता है.........

बसंती बसंत 
मेरे जीवन का एहसास मैंने बसंत महीने (अप्रैल) से ही जाना है, और बसंती देवी (मेरी नानी) ने इसे बचपन से सींचा है, तो हो गया न 'बसंती बसंत'. अल्मोड़े के त्यूनरा मोहल्ले से ही मैंने अपना बचपन जाना है. नानी,मामा, मौसी की छोटी- सी दुनिया. होने को छोटी सी, पर अपार खुशियाँ समेटी हुईं, सारा मोहल्ला ही अपना था, कोई नानी,तो कोई नाना, कोई मौसी तो कोई मौसा और कोई तो मामा-मामी भी थे...  पहाड़ों के ठंडे झोंको के बीच, बीच अल्मोड़े में त्रिपुरा सुंदरी मंदिर के नीचे मेरी नानी का घर, जो मेरी मम्मी का मायका भी था और और मेरा मालकोट भी...... आज भी अच्छी तरह से याद है, जब छोटी थी तो नानी, मामा को बाहर से घर आने पर पहले दीये के ऊपर पहले हाथ रखने को कहतीं थी, फिर मेरे पास आने....... ये सारी कवायदें पुरानी होंगी, पर नानी उन्हें आगे बढ़ाते जा रहीं थीं, पर थी अपने घर की खुशी के लिए.........मेरे मम्मी-पापा मुझ से काफी दूर रहते थे, पर चिट्ठियाँ उनके करीब होने का एहसास जरूर देती थीं, जिसमे मेरे बड़े भाई और छोटी बहन का जिक्र जरूर होता था  ....... जनम से लेकर आठ साल अकेले,बिना भाई-बहन के काटे थे, पर जब भी दद्दा (तब अपने बड़े भाई को दद्दा कहती थी) पापा के साथ मुझसे छुट्टियों में मिलने आते, तो लगता बस, अब कहीं न जाने दूं उनको चिपट के रख लूं उनको अपने पास..........शिशु मंदिर में पढ़ती थी और बहुत सारे दोस्त थे आस-पास. ऋतू, रश्मि, विनीता, शशि.. पर बचपन के कुछ ख़ास दोस्त हुआ करते थे, ज्योति, कन्नू (कमल),दीपक........ कभी लंगड़ी टांग खेलते तो, कभी आइस-पाइस..कभी  बाहर दीवारों में बने कोटरों में सत्यनारायण भगवान का प्रसाद भी बनाते थे....जाड़ों में स्कूल जाते समय  कानों में सन-सी बर्फीली हवा बहने का एहसास आज भी मजेदार लगता है. हमारे प्राचार्य जी (प्रिंसिपल सर) कहा करते थे, नान्तिना क ठण्ड ठुंग में...... मतलब बच्चों को ठण्ड नहीं लगती.... पर मजेदार बात ये है कि आज भी सर्द हवाओं का पहला झोंका मुझे गरम कपडे निकलने का लालच दे जाता है......... मेरे खून में ही रचा-बसा है पहाड़ीपन......मूंगफलियों के सहारे अपनी मौसी के घर जाने का रास्ता तय कर लेती थी... बचपन से ही मैं 'सिप्पू' बनी हुई थी सबकी लाडली. आज भी याद है मुझे मेरे जन्मदिन मैं मेरी मम्मी की चिट्ठियाँ. "चि.शिप्रा को मेरी ओर से ढेर सारा प्यार देना और उसे कहना कि वो आगे बढे. मेरी ओर से मिठाई भी खा लेना ओर उसे शुभाशीर्वाद भी देना".
बचपन तो जैसे बर्फ की तरह पिघल के गुम हो गया......

पर बचपन मैं अगर परिवार साथ दे-दे, तो कभी भी परिवार मैं अकेला बच्चा,अकेला नहीं होता, न ही होता है उसे अकेलेपन का एहसास. जबकि समाज को और खुलेपन और खुलेमन से समझने मैं होती है उसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका.....................................

4 comments:

  1. दी आपको बहुत बहुत बधाई.सच में दी इतना भावुक और रुला देने वाला प्रसंग हैं की मेरी आँखे भर आई हैं

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  2. धन्यवाद भाभी जी !!!

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  3. tumhare bachpan ke baare mein..intne sundar shabdo mein padkar acha laga

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