Friday, April 15, 2011

मेरी कवितायेँ!!!

मैंने बचपन (१९९५) से लेकर अभी तक काफी कवितायेँ लिखीं और मेरी मम्मी मुझे हमेशा आगे और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करती रहीं. मेरी हर कविता को सुनना और उसे पापा को सुनवाने की कवायद जिंदगी का एक अद्भुत एहसास है, यूँ तो लोग कवियों को पागल ही मानते हैं, पर सच कहूं तो ये उस समय उनके मन से उठी आवाज़ होती है, जिसे वे किसी समझदार व्यक्ति की तरह कलमबद्ध कर लेते हैं, मेरी कविताओं की एक dairy घर शिफ्ट करने के चक्कर में खो चुकी है पर ये बची कवितायेँ मेरी दूसरी  dairy से हैं. कृपया इन्हें पढने की कृपा करें. मैं इस ब्लॉग को अपनी पुस्तक मानकर अपनी सारी कवितायेँ अपने माता-पिता को समर्पित करती हूँ,क्योंकि वो ही मेरे आधारस्तंभ है, और मेरे अन्दर की सारी भावनाएं उनके दी हुई  कुछ नायाब धरोहर है, जिसे मुझसे कोई कभी नहीं ले सकता.

२०.२.१९९९
सरहद-ऐ-सदा
ये जो तेरे खैर मकदम में उठें हैं कदम,
  सच मान इसे उठाने में लाखों कसरतें की हमने,
उठा के सीने से लगा या फैंक दे ठोकर से कहीं दूर इसे,
   इस गुलिस्तां को सजाने की हिम्मत तो की हमने.

है तो गुलिस्तां ही ये, हो वो सरहद या इस पार सही,
  बिखरे किसी गुल को काँटों से हटाने की हिम्मत तो की हमने
टूटी किसी पंखुड़ी से बाशर्त जिन्दा कोई फूल रहता तो नहीं,
 उस गिरे किसी फूल को बीजों से लगाने की हिम्मत तो की हमने

न देखा मैंने, ना तूने उन गुलबोश क्यारियों का मंजर,
  पर आज उसी मंजर से सेहरा बनाने की हिम्मत तो की हमने
मजहबी वीरानियों ने जो चुप-सी कब्रगाह बना डाली थी,
  आज उन्ही वीरानियों में बारात लाने की हिम्मत तो की हमने

 इस खुशनुमा माहौल में आज दिल जार-जार हुआ जाता है
शुक्रिया तुझे की मौसम में रवानी लेन की हिम्मत जो की
 या खुदा हमें माफ़ कर,जो हमने सय्यादों सी क्यारियाँ नोचीं,
पर मोहलत भी हमें दे बढ़ने की, जो क्यारियाँ हमने रोपीं,

शुक्रिया हर फिजां, हर खुशबू हर रवानी का,
 वे तमाम पाक चीज़ें जो शिद्दत से फिर महकीं
तेरे अलहिद मुझे झुण्ड में कुछ और बोलना भी नहीं आता
आज वही ग़ालिब, वही तुलसी को मिलाने की हिम्मत जो की

उस खुशनुमा मंजर में घिरे हर फूल की किस्मत तो सोचो,
जिसे बेबाक एक-दूजे को हमने पहनाने को हिम्मत जो की
इस काम में थोड़ी मुश्किल तो आएगी मगर
तेरी किसी मिट्टी को अपने में मिलाने की हिम्मत तो की

इंतज़ार कर उस रात को, जब मिलेंगे हम इस तरह,
जिस तरह हवा के बहने से पौधे
शरमा के मिलते हैं,पर बिछुड़ते भी हैं
तब आनंद-सा हो जाता है क्योंकि नयी खुशबू को पैदा होना होता है
आज मैंने-तुमने आहिस्ता-आहिस्ता ही सही,
अपनी पीढ़ी को हम बनाने की हिम्मत तो की |
 
आगे कल.............

 

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