Saturday, April 16, 2011

आफ़ताब

२१.२.१९९९
 आफ़ताब
चाँद रफ्ता मेरे घर पे दस्तक दे गया,
पूछा बता तो तू, तेरा वजूद क्या है?
तू राम है या रहीम है, तेरे अन्दर का खूं क्या है?

तू चनार है, या तू है झेलम
सिंध है या कोई सतलुज,
पूछा उसने सच ये बता,
तेरे पानी का रंग क्या है?

तू फिजां है या महकी खुशबू,
तुझे सूँघ लूं है ये मेरी आरजू,
तू गुल है ये कि गुलाब है,
तेरा गुंचा महके ये मेरी जुस्तजू

दुआ कर बनूँ मैं भी कभी,
पैदा हूँ मैं इसी सरजमीं,
जहाँ आज भी मेरी रौशनी,
झेलम की तरह साफ़ है, चनारों की तरह पाक है,
जिसे तू देखे, कहीं वो भी सही,
बता तेरे किनारों मैं कहीं मेरी धुंधली-सी भी कोई राख है?

मैं तो रोया, रोता ही गया,
सोचा कि ये क्या हो गया,
मेरे अन्दर भी वही जान है,
जिसपे तू कुर्बान है,
ये चाँद वही, सूरज भी वही,
झेलम भी वही, गुलिस्तां भी वही,
उठ के देखा, आज फिर वो चाँद है, जो कल मुझे दस्तक दे गया.

सोचता हूँ कल था वो यहाँ,
पर आज बड़ी दूर गया,
पर वो तो आफ़ताब है,
आज भी वो पाक है,
तू भी देखा, मैं भी देखा,
अब बता तू ऐ चाँद किसकी नज़र में आफ़ताब है?

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