Sunday, July 14, 2013

सुलगता धुआं

सुलगता धुआं

रात गहरी हो चुकी थी, काली स्याह पर जैसे किसी ने थोडा काजल और डाल दिया हो, और बस गुजरती जा रही थीं घड़ियाँ रात की। जीवन के पन्ने पलट के एक दूजे की कहानियों में खोये हुए थे वे दोनो। नींद भी नहीं थी आँखों में, और डिनर किये भी काफी समय बीत चुका था। कुछ लोगों को बातें करने के लिए चाय का सहारा चाहिए पर रिया और ऋषिकेश को इसकी कोई जरूरत नहीं थी। उनकी बातें, किस्से कभी नए मौसम जैसे, तो कभी अलमारी में रखे पुराने कपड़े जैसे, जिन्हें बाहर निकालने पर पुरानी यादों की बदबू आती। बहरहाल एक चीज़ थी, जो कभी छूटती नहीं थी, वो थी ऋषि के हाथों से सिगरेट के दौर। ऋषि सिगरेट पीता और रिया उसका धुआं पीती।
  काफी मसरूफ़ रहता है मर्द बिचारा, अपनी जिंदगी की उलझनों में। काम का तनाव, आगे बढ़ने की ललक, और भी कई सारी बिन बुलाई मुसीबतों में सिर धुनता रहता है घर का ये मर्द। रिया हमेशा सोचती थी आज नहीं तो कल ये आदत जरूर छूटेगी पर कोई इलाज़ नहीं था इस मर्ज़ का। कहीं किसी ने बना के नहीं दिया था उसे कोई आशियाँ, एक-एक तिनका खुद समेटा था, उन्होंने खुद अपने दम पे। किसी के सामने कभी हाथ फ़ैलाने की नौबत नहीं आई थी, अच्छा-बुरा जो हुआ जिंदगी में, वो अपने अन्दर समेटना जानती थी रिया। उसे पता था अपनी जिंदगी का फलसफा, क्या होना है और क्यों होना है, पर उसकी बातें नक्कारखाने में तूते की आवाज़ सी थी, पता ही नहीं कि कभी किसी ने सुनी भी की नहीं। सबको अपनी जिंदगी से कुछ न कुछ चाहिए था, किसी को प्यार, किसी को दौलत, किसी को सम्मान और पता नहीं क्या-क्या, पर रिया को पता नहीं क्या चाहिए था इस जीवन से, किसी चीज़ के पीछे नहीं भागती थी वो, जो जैसा मिल जाये, उसी में खुश हो जाती थी, पर उस मिलने में थोड़ी सहजता हो, थोडा प्यार और अपनापन हो। किसी का छीन के खानेवालों में से वो कभी भी नहीं थी, सपने में भी नहीं। बार-बार समझाती अपने पति को इस लत को कम कर दे, धीरे-धीरे छोड़ दे, पर कोई फायदा नहीं। ये नहीं कि ऋषि कोई लतखोर था, या दिन रात छल्ले ही उड़ाता रहता था, पर जितना भी धूम्रपान करता था वो सब रिया को भी कहीं न कहीं छलनी करता था। उसे पता था कि किसी दिन कोई अनहोनी हो जाएगी तो पास में देखने वाले, ढ़ाढस देने वाले कम, और फब्तियां कसने वाले ज्यादा बैठेंगे पास में। गलतियाँ गिनाने वाले कई लोग दिख जायेंगे बरसाती मेंढक की तरह।
  रातों के पन्ने पलटते गए, उम्र गुजरती गयी। रातें तो काली की काली रहीं पर बालों के स्याह रंग पे दिन सा उजाला धीरे-धीरे चढ़ता गया। सभी व्यस्त, अपने कामों में बेखबर, जिंदगी से निश्चिंत। गुजारने के लिए जिंदगी हर कोई किसी न किसी काम में लगा रहा, और पता नहीं कब जवान से अधेड़ हो गए।
हर दिन की तरह रिया और ऋषिकेश अपने काम के लिए निकल पड़े, पर अचानक ऋषि को काम के लिए मुंबई ऑफिस से ही जाना पड़ गया। रिया अपने ऑफिस में थी। अचानक सीने में दर्द से कराह उठी रिया, और पड़ गयी बदहवास-सी अपने डेस्क पे, बगल में बैठी कोमल ने देखा कोई हरकत नहीं है पिछले कुछ मिनट से रिया के टेबल में, जा के देखा तो अवाक् रह  गयी थी वो तो। इमरजेंसी में ले गए ऑफिस वाले उसे हॉस्पिटल और एडमिट करवा दिया। सभी स्तब्ध थे, हैरान थे कि क्या हो गया है उसे, बहुत फिट थी वो, कम बोलना, कम खाना-पीना उसकी आदत थी, इसलिए लोगों को और ज्यादा हैरानी हो रही थी। बहरहाल मुंबई पहुंचा ऋषि आनन-फानन में वापस लौटा और सीधे हॉस्पिटल ही पहुंचा। चेहरे में पीलापन, और अचानक से बूढी-सी प्रतीत होती रिया को देख भक्क सा रह गया ऋषि। पता नहीं आज कितने दिनों बाद देखा था उसने ठीक से उसे।  हल्का हार्ट अटैक हुआ था उसे, जिसे 'एनजाइना अटैक' भी कहतें है। डॉक्टर ने चुप रहने की सलाह दी थी उसे।
 कारण का तो पता नहीं चल पाया किसी को, पर डॉक्टर का कहना था, ज्यादा स्ट्रेस लेतीं हैं लगता हैं रिया! आराम ही इसकी दवा है भाईसाहब।

२-३ दिन लगे पर, आखिरकार घर आ गयी रिया, साथ में एक फुल टाइम कामवाली भी लगा ली थी उन्होंने, जो घर के सारे काम कर सके। ऋषि सोचता रहा कि आखिरकार ऐसा क्या हुआ जिसके कारण रिया की यह हालत हो गयी। अब धीरे-धीरे ठीक होने लगी थी रिया और घर के काम-काज भी खुद करने शुरू कर दिए थे, उसने। ऋषि को यह बात पचा नहीं रही थी, आखिरकार उसने पूछ ही लिया, रिया ऐसा क्या है जो तुम्हे दिन पर दिन खाए जा रहा है, तुम कुछ बांटती नहीं, अपने भीतर ही दबाये रखती हो। रिया ने सोचा अभी न बोल पाई तो कभी भी न बोल पाऊंगी, सहसा वह बोल उठी, ये तो अभी ट्रेलर था ऋषि, इससे भी ज्यादा हो सकता था। सोचो मेरी जगह तुम भी हो सकते थे, आज मुझे हॉस्पिटल के बिस्तर में पड़े देख कर तुम कितने परेशान हुए, और तुम तो दिन-रात छल्लों की दुनिया में खोये रहते हो। कहाँ मशगूल रहते हो, किस उधेड़बुन में फंसे रहते हो, क्या-क्या छुपाते हो मुझसे? छोड़ दो ऐसी उठा-पटक की जिंदगी, नहीं चाहिये हमें ये सब, कितना चाहिए जिंदगी गुजारने के लिए? दो रोटी, एक छत, कुछ कपडे और अनगिन साँसें, हमारा काम चल जायेगा ऋषि, पर फिर जिंदगी वापस नहीं आएगी। पर एक बात बता दूं और तुम इसका कभी बुरा नहीं मानना, अगर आज मेरी जगह तुम होते तो ये पक्का है कि मैं पलट के तुम्हें देखने भी नहीं आती। हॉस्पिटल में तुम्हे साँसों को उँगलियों में गिनते देख मेरी कोफ़्त और बढ़ जाती, सालों से सुलगते तुम्हारे धुंए से मैं खोखली हो चुकी हूँ, कई जतन किये, तुम्हे रोकने के और सभी नाकाम। अपनी जिंदगी दे के ही कुछ प्रमाणित नहीं कर सकती थी मैं, पर हाँ, अगर मेरी जगह तुम होते तो पक्का तुम्हे देखने के लिए नहीं आती मैं।

 कहीं दूर चली जाती इस बार, जहाँ इस उलझन, सुलगन की लौ में तड़पना नहीं पड़ता। नहीं आती कि तुम्हे असहाय पड़ा देख मैं हृदयहीन हो जाती, भावशून्य रह जाती, किस मौके को कोसती, किन-किन रातों को याद करती जब रात का पन्ना पलट हम उजाले को देखने के लिए जागते थे। एक दम हिम्मत नहीं हैं मुझमे ऋषि क्योंकि हर पल, हर दिन, हर माह, हर साल मैंने तुम्हे रोका था, धुआं उड़ाने से, पर तुम कभी न समझ सके एक ये ही बात जो मैं हमेशा कहती रही।

नहीं आती मैं, दूर चली जाती कहीं सबसे .......... कहते बुदबुदाते सो गयी रिया, लगा ऐसे ऋषि को जैसे वहां बिस्तर पर नहीं रिया नहीं,  वो खुद लेटा पड़ा है। चुप-चाप निहारता रहा, एकटक सोचता रहा उसके साथी की हर नाकाम कोशिश को। छलनी पड़ा था उसका सीना और कराहती हुई रिया की साँसों से घबरा गया था ऋषि। बैठे-बैठे काले, डरावने सपने-सा लगने लगा था जीवन, जो सिगरेट की हर कश में गोल-गोल खुद को ही लीले जा रहा था। समझ ही नहीं पाया कि क्यों पीता रहा वो इतनी सिगरटें? खामोश बैठा रहा ऋषि, किसको छोडूं और किसे पकडूँ, इसी विचार में कलपता रहा वो बिस्तर में पड़ी रिया और टेबल में पडी सिगरेट को देखकर।

@शिप्रा पाण्डेय शर्मा

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