Monday, July 29, 2013

पूर्व ही रच ली गयी थी 'रामायण '

पूर्व ही रच ली गयी थी 'रामायण '

कलयुग में सृष्टि ने एक नियम बनाया है कि इस जन्म में किये गए पापों का फल भी किसी को इसी जन्म में मिल जाता है और किसी को इसका प्रायश्चित करने के लिए अगला जन्म लेना पड़ता है. प्रसंगवश मैंने एक अलौकिक व्याख्यान पढ़ा और आप सब को बताने का मन भी किया, फलतः लिख रही हूँ, प्रकांड विद्वानों से अनुरोध है कि अगर कोई त्रुटि हो, तो क्षमा करें।
ये बात काफी पुरानी है, नारद देव जो ब्रह्मा जी के पुत्र थे, एक कंदरा में चुपचाप तपस्या करने लगे. उनकी अद्बुत तपस्या से भगवन इंद्र काँप उठे और संशय में पड़ गए कि इंद्रलोक उनसे छिन न जाये। फलतः उन्होंने कामदेव जो को वहां उन्हें विचलित करने के लिए भेजा, कामदेव बसंत को लेकर वहां पहुँचे और उन्हें डिगाने की बहुत कोशिश की, पर नारद जी अडिग रहे और उन्हें वापस जाना पड़ा. हुआ यह था कि एक बार पहले  भी कामदेव ने इससे पूर्व शंकर जी को भी डिगाने की कोशिश की, पर शंकर जी ने कामदेव को श्राप दे दिया था और रति के याचना करने पर उन्हें श्रापमुक्त कर दिया, पर उस तपोस्थान से कुछ किमी की दूरी तक काम का प्रभाव निष्क्रिय हो गया. नारद जी को यह भ्रम हुआ कि उनके खुद के ताप से काम वापस चले गए. नारद जी अपनी प्रशंसा करने के लिए शंकर जी के समक्ष गए. शंकर जी ने उनसे कहा कि अब ऐसी बात कभी किसी अन्य के समक्ष मत कहना और यह मेरी आज्ञा समझ लेना क्योंकि तुम विष्णु के परम भक्त हो, और मुझे अत्यंत प्रिय हो.. पर मद से वशीभूत नारद ने ब्रह्मा जी को यह बात बताई पर पिता ब्रह्मा ने भी उन्हें यह किसी को कहने से मना किया। अहंकार से वशीभूत नारद जी विष्णु जो के समक्ष गए और सारा वृतांत सुनाया। इतना कह  नारद जी वहां से चले गए.  
वहीं दूसरी और शिव की माया से प्रेरित हो श्री हरि ने एक माया नगरी बनायी और नारद जी ने उसमे प्रवेश किया। उन्होंने देखा कि यह तो कई योजन तक फैला हुआ है.. उनके वहां पहुंचते ही वहां के राजा ने उनका स्वागत किया और बैठने के लिए उचित स्थान देकर उनका यथोचित सम्मान भी किया। फिर उन्होंने नारद जी को अपनी पुत्री 'श्रीमती' से मिलाया और उन्हें बताया कि वे उसका स्वयंवर कराने की सोच रहे हैं. वार्तालाप के समाप्त होने के पश्चात नारद जी वापस आ गए और वे काम से ग्रसित हो गए, उन्हें लगा कि इतनी सुन्दर कन्या से उन्ही का विवाह होना चहिये. इस प्रयोजन से वे विष्णु जी के पास गए और नारद जी ने विष्णु जी को बताया की वो उस विशाल नेत्र वाली श्रीमती नामक युवती से विवाह करना चाहते है. उन्होंने भगवान से ये याचना की, कि यदि वो उन्हें अपना रूप दे दें, तो कन्या के पिता नारद जी को विष्णु समझ कर 'ना' भी नहीं कह पाएंगे और अपनी पुत्री का विवाह उनसे करा देंगे।
 विष्णु जी ने उनकी सारी बात सुनी और उन्हें अपने जैसा शरीर दे दिया पर मुंह बंदर-सा दे दिया।  चूँकि वे अपना चेहरा खुद नहीं देख सकते थे, इसलिए नीचे का शरीर मात्र देख वे अभिभूत हो गए और यह ठानकर विवाहस्थल की और चले गए कि आज तो उस सुन्दर कन्या से विवाह कर के ही लौंटेंगे। वहां उनके बगल में शिव जी के दो गण वेश बदलकर उनके साथ बैठे हुए थे. नारद जी ने सोचा की अभी राजा की पुत्री आएगी और सब सज्जनों के बीच उन्हें चुनकर अपना वर घोषित कर देंगी। पर हुआ ठीक इसके विपरीत, वो आई और उन्हें देखे बिना ही चले गयी. नारद जी बड़े दुखी हुए तब वेश बदल के आये गणों ने उनसे कहा कि उन्होंने अपना चेहरा भी देखा है, ऐसा कहकर वे जोर-जोर से हँसने लगे. नारद जी ने क्रोधवश उन गणों को राक्षस हो जाने का श्राप दे दिया, ऐसा सुन वो दोनों गण वहां से श्राप स्वीकार कर सहसा चले गए. इसी बीच विष्णु भगवान वहां आ गए और कन्या ने झटपट वरमाला उन्हें पहना दी. नारद जी  कुपित होकर वहां से चले गए. फिर गुस्सा होकर भगवान हरि के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्हें कई बुरी बातें और खरी-खोटी सुनायी। उन्होंने विष्णु जी को श्राप दे दिया  कि जिस प्रकार मैं स्त्री के वियोग में तड़प रहा हूँ, आप भी उसी प्रकार तड़पें और ये बंदर मुंह वाले लोग ही आपके जीवन में आने वाली विपत्ति के समय आपके सहायक बनें।
विष्णु जी ने सहर्ष श्राप स्वीकार कर लिया पर उन्हें सारा वृतांत कह सुनाया कि किस प्रकार नारद जी मद में उन्मत्त खुद को विजयी घोषित किये जा रहे थे और सब भगवन शिव की माया से ओत-प्रोत और उनके पराक्रम के प्रताप को वो अपना ही ओज समझे जा रहे थे.
 माया से वशीभूत नारद जी की आँखें खुलीं और उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ, उन्होंने भगवान विष्णु से कई प्रकार से प्रार्थना की कि उनके द्वारा दिए हुए श्राप को वो निष्फल कर दें, पर ऐसा हो न सका.  उधर वापस अपने लोक आते हुए नारद जी को भगवान शिव के वो दोनों गण मिले, जिन्हें उन्होंने राक्षस हो जाने का श्राप दिया था. गणों ने उनसे क्षमायाचना की, फिर उनके श्राप को कम करते हुए नारद जी ने कहा कि त्रेता में वे रावण और कुम्भकरण नाम से जाने जायेंगे और भगवन विष्णु का अवतार ही उन्हें मुक्ति दिलायेगा।

इस प्रकार से रामायण की कहानी पूर्व ही रच ली गयी थी, और भगवान को भी स्वयं श्रापमुक्त होने के लिए नर का रूप लेना पड़ा था. भगवान विष्णु को 'नारायण' भी कहते हैं. भगवान विष्णु भगवान शिव के परम प्रिय हैं और उन्हें कमल भी शिव के द्वारा ही प्रदत्त है. एक बार भगवन विष्णु, कमल हाथ में लिए पानी में कई समय तक विश्राम करते रह गए, तब से उनका एक और नाम हो गया, ' नारायण' अर्थात 'नारा है जिसका वास'
नारा (पानी) + अयण (वास)- पानी है जिसका वास, वो हैं नारायण।  

No comments:

Post a Comment