Wednesday, December 12, 2012

स्त्री का जीवन; असंख्य बदलाव, अनगिन भावनाएं

स्त्री का जीवन; असंख्य बदलाव, अनगिन भावनाएं 

बहुत दिनों  से सोच रही थी कि कुछ लिखूं, पर समय मिल नहीं पा रहा था।मुझे याद है मैंने बचपन में कहीं सुना था कि जब बेटियाँ जनमती हैं, तो उनका नामकरण संस्कार बड़ी ही ख़ामोशी से मनाया जाता था। पता नहीं ऐसा क्यों करते थे लोग, क्या उनके घर की बेटियां गुमनाम जीवन जीने के लिए पैदा होती थी ?
मम्मी कहती हैं जब तनु ( मेरी बड़ी बहन ) पैदा हुई थी तो जलसा हुआ था। अपनी बारी का तो मुझे पता नहीं। पर इतना जरूर याद है और मरते दम तक याद रहेगा कि  नानी, मामा, मौसी हर साल मेरे जन्मदिन पर मार्कंडेय जी की पूजा करवाते थे, जो मूलतः बेटों के ही जन्मदिवस पर ही लोग करवाते थे। ये पूजा अब हम अपने बेटे के जन्मदिवस/ जन्मतिथि वाले दिन जरूर करवाते हैं। कहते हैं मार्कंडेय जी आयुवृद्धि  का वरदान देते हैं।
  बात असल में यह है कि स्त्री मूलतः दो रूपों में पहचानी  है,  एक बेटी के रूप में, दूसरी पत्नी के रूप में। बेटी के रूप में चंचल, अल्हड, मदमस्त- सा जीवन होता है उसका, पर पत्नी बनते ही जिम्मेदारियों का पहाड़ धीरे-धीरे उस पर आने लगता है। मुझे याद है अपने अविवाहित जीवन में मैंने कभी-कभार ही गृह संबंधित कोई कार्य किये होंगे, पर विवाह के बाद रसोई और मेरा तो इस जनम से नाता ही जुड़ गया है। बेटी बन कर अपने माँ-पापा के संघर्षपूर्ण जीवन को एक दर्शक के नज़रिए से देखती थी, पर आज जब खुद उसी पायदान पर खड़ी हूँ, तब समझ आता है, जिंदगी तुम्हारे कितने नूतन रूप हैं। मैं ऐसा बिलकुल भी नहीं कह सकती कि प्रतिदिन मेरे जीवन में कोई न कोई परिवर्तन आता है, पर हाँ, सुधार की गुंजाइश जरूर रखती हूँ। जब माँ-पापा के साथ थी, तब सही में कोई गंभीरता नहीं थी, जीवन के प्रति, जो रास्ते में आया, या तो अपना लिया या ठोकर मार दी, ये ही दो नियम थे, कभी तीसरा विकल्प सोचा ही नहीं कि सहेज के भी रखा जा सकता है।
 करीब 10 सालों से मैं विवाहित हूँ, पर अब जब खुद पलट के देखती हूँ तो एक औरत के रूप में जीवन अलग ही दिखलाई देता है। मुझे आज भी सबसे बड़ी चिंता खाने-पीने को लेकर ही होती है, कि खाना क्या बनाना है। मेरे घर के लोग सही से खा-पी लें, ये ही मेरी प्राथमिकता होती है। जीवन हम सभी को बहुत कुछ सिखाता है। पहले शादी को लेकर उत्साह रहता है, फिर अपने साथ दूसरे व्यक्ति के प्रति भी हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है और जब हम एक जिम्मेदारी निभा पाने में सफल हो जाते हैं तभी तीसरे सदस्य के आने की तैयारी हम सभी करते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि पति-पत्नी शादी के कुछ सालों के बाद ही एक पूर्ण परिवार की ओर अग्रसर हों, जिससे अपने रिश्तों को प्रगाढ़ रूप दिया जा सके।
उम्र बढ़ने के साथ ही रिश्ते भी नए-नए रूप लेते हैं। पति-पत्नी जब अकेले होते हैं, तो उनके बीच में खटपट होनी भी लाजमी है, क्योंकि एक छत के नीचे दो समान उम्र के लोगों का निवास होता है, और वहां पर भी 'सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट'  की बात होती है, पर यहाँ जीवन अपना प्रभुत्व बना के नहीं, दोनों की परस्पर इच्छाओं का सम्मान करके सफल होता है। एक स्त्री जब पत्नी से आगे बढ़के एक माँ बनती है, तो एक अनजान ताकत उसके अन्दर कितने सारी नयी अनुभूतियाँ डाल देती  हैं, जिसका आंकलन/ अनुभव एक पुरुष के लिए कर पाना सच में एक मिस्ट्री ही है। फिर ये झगड़े और खटपट विष-वमन की तरह हम पी लेते हैं, या इसे अन्यथा (इग्नोर) कर देते हैं क्योंकि घर का माहौल ख़राब न हो। माँ बनते ही, ममत्व सबसे पहले आता है, और फिर आती है त्याग की भावना।  लगता है जीवन का ये नियम है कि ममत्व को जिलाए रखने के लिए त्याग अवश्यम्भावी है। अपने छोटे से  बच्चे को खुश रखने के लिए माताएं  कभी अपना निवाला बीच में से छोड़ के उठती हैं, तो कभी रात में सोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए अपनी नींद त्याग देती हैं, इसे कहतें हैं समय की पुकार ... जब किसी के प्रति प्रीति रखनी हो, तो उसके लिए स्नेह और त्याग रखना भी जरूरी है, विश्वास तो एक शर्तिया शब्द है, क्योंकि यही दो भावनाएं ऐसी हैं, जो किसी दो व्यक्ति को आपस में जोड़ के रखती है।
  स्त्री को धैर्य की प्रतिमा भी कहते हैं। प्रतिमा को अहिल्या शब्द से भी जोड़ा जा सकता है। अहिल्या ने अपने श्राप से मुक्ति पाने के लिए प्रतिमा का रूप ले लिया और फिर उसे श्रीराम द्वारा सदगति मिली। परिवार को सुदृढ़ रखने के लिए धैर्य प्रबल तत्त्व है। वह धैर्य परिवार के विकास में मील का पत्थर साबित होता है। बच्चे की किलकारी के लिए धैर्य, उसके चलने-उठने-गिरने से लेकर उसे एक सफल व्यक्ति तक परिणत करने का धैर्य एक सतत प्रयास है, जीवन की उन सभी इच्छाओं पर एक नियंत्रण रखने का जो विचलित होने पर मार्ग से भ्रमित कर सकती हैं।

आगे बाद में .....  

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