Saturday, December 29, 2012

मेरा चीरहरण

मेरा चीरहरण 

कान्हा तुम कहाँ थे,
किस जगह से देख रहे थे मुझे
या स्वर्ग की बत्ती गुल थी उस दिन !

ये सिर्फ चीरहरण नहीं था हरि,
हरण था मेरे मान का, सम्मान का
इस दुनिया में भेजने वाले भगवान का,
क्या तुम भी राजनीति करते हो,
कि जिस के आशीर्वाद से मैं पैदा हुई,
क्या बचाने की जिम्मेदारी भी उसे ही लेनी थी?

नाम सुना था तुम्हारा द्रौपदी को बचाने में,
मेरी बारी कहाँ थे स्वामी,
पर भूल जाती हूँ मैं,
वो तुम्हीं थे, जो गोपिकाओं के वस्त्र चुराते थे
कैसे उम्मीद रखूँ तुमसे बिहारी
कि तुम आते औ' मुझे बचाते
काश! अपनी थोड़ी शक्ति मेरे मित्र में डाल देते
या ऐसी सुनसान सड़क में प्रकट हो जाते चुपके से,
करते प्रयोग सुदर्शन का,
या बचा लेते मेरा चीरहरण।

सही में तुम लोग बस
ऊपर बैठके बंशी बजाओ
समय रहते भी अपनी लीला
कभी न दिखाओ,
पर आ गयीं हूँ अब मैं तुम्हारे आस-पास,
कैसे चुराओगे नज़रें, कैसे दोगे झूठा विश्वास,
माता-पिता, भाइयों को मेरे थोड़ी सांत्वना दो,
चुप कराओ उनकी कराहती साँसों को,
जनता के बीच उठते उफान को,
सुनो विनती मेरी गिरधारी,
कई लोग अभी भी हैं शरणांगत तुम्हारी !             

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