Thursday, January 19, 2012

दायरा

किसी सज्जन ने सिखाया मुझे
दायरे में रहो अपने सदा,
कैसे अपनी ख्वाहिशों को छोड़ें ,
और न हो कभी किसी पे भी फ़िदा

बड़ा अफ़सोस हुआ मुझे
उस अदद आदमी की सोच पर,
रिवाजों, समाजों के चंगुल में फंसा,
दर-ब-दर ठोकरें खाकर.

प्यार कोई खेल नहीं होता,
न ही जिस्मानी होता है और
न किसी के गम की वजह
ये तो एक याद है जो हम सब सजा लेते हैं,
कोई आँखों में, कोई किताबों में तो कोई फोटो में बसा,
अपनी साँसों को इसमें बसा लेते हैं. 

तुम बहुत छोटे हो बच्चू 
अभी मेरी सोच के सामने
अपने दकियानूसी खयालातों को
रखो अपनी जेब में,
तुम कहो तो क्या चाँद रात में ही देखा करें हम,
उगते हुए सूरज में भी देख लेतें हैं उसे हम,
अपनी आँखों को कहो, अपने कोटर में ही रहे,
छुपे दिल की धड़कन से आहटें पहचान लेते हैं हम

कुछ नहीं माँगा है तुमसे मैंने तो कभी,
पुरानी धूल की सिलवट हटाने को था कहा,
अफ़सोस, तुम्हें अबतक न पता,
इन काली परतों को बनाने का मजा क्या है,
कैसे मय्यसर होंगे, तुम्हें इन छुपे काले फाहों के निशान,
एक याद में घुल जाते तो पता चलता कहीं
खुद को दुनिया से छुपाने का मजा क्या है..... 


१९-१-१२


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