Tuesday, January 17, 2012

Duhswapn

२९.४.९९
दु:स्वप्न

जीवन में  कल एक बार फिर,
तुम्हारा बहुप्रतीक्षित रूप दिखा,
आज प्रातः पहली बेला तक
संभवतः मन से नहीं हटा |

स्वपनलोक में मृगनयनी-सी
मैं चहुँदिशी भटक रही थी,
अपनी कस्तूरी तुम्हे दिखाने,
को मैं इधर खड़ी थी |

पास तुम्हे जब आते देखा,
मन की लहरें तीव्र हुईं,
पर तुम्हारी एक भावना,
तुम्हे मुझसे बड़ी दूर ले गयी|

कभी आम्र वृक्षों की शाखाओं,
पर हाथ रखे तुम हंसके बतियाते थे,
और कभी कुछ कानाफूसी कर,
बातें नयी बनाते थे |

मन की जिज्ञासाओं को,
अपनी शांत कराना मुश्किल था,
अपनी तीव्र पिपासा को,
खुद से समझाना मुश्किल था |

इस भावना को तुमसे बंधा देख,
मैं क्षणभर को सिहर गयी,
अपनी इस लम्बी तपस्या का,
परिणाम सोचकर ठिठक गयी|

यह मेरा एक दु:स्वपन था,
जो बीती रात ही चला गया,
अपनी अमित स्मृतियाँ छोड़े जिसने,
मुझे यह करने को विवश किया |

मेरी इस व्याकुल व्यथा को,
आकर प्राण कब समझोगे,
कब तक आशा मैं ये रखूँ,
कि इस द्वार पर तुम दस्तक दोगे |

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