सपने मैं देखती हूँ हर रोज,
पर पहले इन खुली आँखों से,
बाद में आँखें मूँद कर,
उन्हें नींद में समां लेती हूँ.
हर रोज सोचती हूँ, याद करती हूँ,
अनगिनत कहानियाँ,
सोचते-सोचते सो जाती हूँ,
और ढूँढती हूँ उनमें अपनी ही निशानियाँ
कभी किसी ख्वाब में
देखतीं हूँ, बचपन के सपने,
कभी किसी ख़ास शख्स को,
जो दिल के बहुत करीब था अपने,
कभी पुराना घर तो कभी पुराने दोस्त
और कभी अपनी उम्मीदों
का अपना सफ़र,
जो पीछे छूट गया कई कहीं किसी रोज
बहुत महत्वाकांक्षी नहीं थी मैं,
न थी जीवन की कोई लम्बी योजना
जो सोचा, लगभग वो सब कर लिया,
थोडा-थोडा ही सही, पर मजा सब का लिया
क्या पता तब मजा ज्यादा आता,
जब सोचती कि मैं छूं लूं आसमां,
दिन में सोचती और रात में छू गयी होती
फिर अपनी जिंदगी का फलसफा समझ आता
काश! मैं कभी महल बनाने की सोचती
सपनों में तो अबतक बना चुकी होती वो महल,
झटपट बन जातें हैं ये हमारी नींद में,
और नहीं पड़ती इनके बनाने में कोई खलल
तजुर्बा बस बताने का इतना-सा है,
सपने कोई ख्याली पुलाव नहीं होते,
हम जो सोचते हैं इन खुली आँखों से,
दिल में बुन लेते हैं बस जाल उन सब के,
कभी कोशिशें कर लेतें हैं उन्हें पा लेने की,
औ' कभी थक-हार बंद आँखों में
उन्हें नीदों में उतार लेते हैं.....
२३-०१-२०१२
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