आँखें
तुमने कहा था, कभी किसी रोज,
कि तुम्हारी आँखें खूबसूरत हैं,
पर इन आँखों में तुम उतरे नहीं,
ये कैसी हकीक़त है ?
कैसे खूबसूरत हो सकती हैं ये आँखें,
जब किसी ने इसे देखा नहीं,
इन काले कंचों के जोड़े में,
नज़रों से कोई खेल खेला नहीं.
दूर तक जब भी देखा,
तो सिर्फ तुम्हारा अक्श दिखता था,
पास तुम्हारे न होते हुए भी,
एक ही शख्स दिखता था,
ये वही था, जिसके पास गिरवी
रखी थीं, मैंने अपनी निगाहें,
आँखें मूँद कर तकती रहीं थी,
खोल कर अपनी ये बाहें,
कि कभी इन रास्तों में तुम
किसी रोज आ मिलोगे,
लगा कर मुझको गले,
तुम मुझसे ये कहोगे,
कि इन निगाहों ने दिखाया रास्ता मुझको,
तुम्हारे पास आने का,
बंद कर लो अब इन्हें, ये रास्ता ख़तम है,
मिली मंजिल मुझे,खुश हूँ मैं, अब न कोई भरम है.
ऐसा होता काश!
तो मैं आज इन निगाहों में होती,
देखते रहते मुझे तुम
और मैं इन पनाहों में होती,
पर तुम्हारी आँखों ने देखा क्या,
मुझे अब तक पता नहीं,
इन रास्तों में आते हुए
तुम कहीं और चल दिए,
मेरी इन खूबसूरत राहों में
धूल का मंजर दिए हुए,
तब से मेरी आँखों में
सिर्फ उजाड़ रहता है,
खोई हुई मेरी इन राहों में
न कोई सार रहता है,
बोझिल हो चुकी है ये नज़रें
बन चुकी है ये बुत,
अब न कोई पैमाना है इनमें
न कोई इन नज़रों का साक़ी है,
कितनी गहराइयों में डूबे हुए थे तुम
देखना बस ये बाकी है,
मेरी सूरत गर दिख जाये तुम्हें तो
हकीक़त बस ये काफी है........
२६-१-२०१२
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