दिल-ए-राज
२०-१-२०१२
उस दिन नींद नहीं आई थी,
जब तुमने बताया था दिल-ए-राज
बेहोश, बदहवास हुई जा रही थी मैं,
रात भर उठती रही, लगा कैसे बिताऊँ मैं अब ये रात
लगा ऐसे, जैसे मेरा कलेजा मुंह को आ गया है,
शब्दों की जगह, भर गया वहां भी खालीपन यही,
न थूकते बना न निगलते ही बना
बेहोश कर देने वाला ये काला ज़हर,
बड़ी मुश्किल से गिन-गिन के गुजारे मैंने उस शब् के पहर
न थी कोई तमन्ना, न ही कोई आरजू,
कि किसी चौराहे में भी तुमसे मिलूँ,
हाँ, दिल के किसी कोने में एक याद का दीया जला रखा था,
जिसमें रोज तुम्हारी यादों की कुछ बूँद डाल दिया करती थी,
उस जलते हुए दीये की कसम,
अपनी साँसों की एक डोर से हर दिन बाती नयी बुनती थी.
जलती हुई उस ज्योत को कभी फडफडाने भी न दिया,
दिल के धडकनों से उसे सबसे छिपा रखा था,
अपनी नज़रों से भी कभी देखा न उसे,
दिन-रात बस उसकी तपिश से
दिल के होने का सबब जान लेती थी
अब क्या करूं, क्या कहूं,
इस सच को जानकर भी,
कि मेरे इस अलख की हो गयी तुम्हें भी खबर,
न तुम छुपा सके और न मैं,अपना ये हाल-ए-जिगर,
बेमौत-सी मर गयी मैं और बुदबुदाने लगी
जैसे सूंघा हो सांप और नब्जें बेअसर
तुमने सोचा सांप का काटा है,
अब बच नहीं पायेगी
अपने दिल के कोने में ये ,
फिर बाती न जला पायेगी
कुछ धीमे-धीमे और जहरीले
जालों को बुन, छोड़ के तुम चल दिये
मेरे दिल में, अपने लिए कडवाहट का
दंश भर रास्ता अपना लिए,
पर याद है तुमको रहगुजर,
ज़हर ही ज़हर को मारता है,
प्यार के आगे, नफरतों का कहर हारता है,
उठ के फिर मैं बैठ गयी,
अब की बारी नि:श्वास,
अपने दिल की हार देख
फिर हो गयीं हूँ बदहवास,
दिन-रात अब ये सोचा करूंगी,
बाती भी खालिस थी औरतुम्हारी यादों का
पिरोया हुआ तेल भी
पिरोया हुआ तेल भी
अब कहाँ उगलूँ कहाँ थूकुं,
मैं ये हाल-ए-जिगर
कैसे सम्भालूँ दिल को ये,
जो था कभी लख्ते जिगर,
सोचती हूँ अब तक गलत थी,
या गलत हूँ मैं आज,
क्या तुम कोई और तो नहीं,
क्यों बताया तुम्हें अपना ये दिल-ए-राज ?
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