Wednesday, September 22, 2010

हजारीबाग...2

पता नहीं मेरा मन हजारीबाग की गलियों में ही क्यों घूमता रहता है,इस शहर ने ऐसा क्या दिया, कि हरपल,हरक्षण,लिखते वक़्त बस यही मन करता है, कि हजारीबाग को अपने शब्दों से सजाऊँ, संवारूं और इसकी खूबसूरती में चार-चाँद लगाऊं !!!
  लिखने को बहुत मन करता है, कि वहां ऐसा है, वैसा है, पर दो टूक कहूं तो हमें सिर्फ प्रकृति (Nature) का धन्यवाद देना चाहिए, कि उसने इसे इतना संभाले रखा, नहीं तो हमारी और से कोई कोर-कसर बाकि नहीं रही, इसे बर्बाद करने में...ये तो वहां की खूबी है कि वहां देखने को इतने सारे दृश्य हैं. हम मानवों ने वैसे इस ज़मीं को कोई बहुत देखने लायक नहीं छोड़ा है..... किसी चीज़ की सुन्दरता उसके प्राकृतिक रूप में है,न कि उसकी लीपापोती में... सच कहूं तो हजारीबाग में ऐसी कोई भी गली, मोहल्ला, नहीं होगा, जहाँ कूड़े-कचरे का ढेर न दिखे...... मैं ओकनी में रहती थी, और आप को ये जानकर बड़ी हैरानी होगी, कि मेरे घर वाली गली के ठीक पीछे भुंयिया टोली थी, जहाँ नीचे तबके के लोग कच्चे-पक्के मकानों में रहते थे, सूअर (pigs ) पालते थे, और अपना पेट भरने के लिए उसे ही मार कर खा जाते थे, वे सूअरों को मार कर उल्टा लटका के ले जाते थे, कितने cruel लोग थे वे लोग.बात करने का मतलब ये है, कि हर जगह गन्दगी...हमलोगों को असल में आजतक सिर्फ अपने घर ही साफ़ करने आए हैं, बाहर गन्दगी जमा करने से लेकर,बाहर तमाशा देखना तो हमारी आदत है...जब तक मैं हजारीबाग में थी, तब तक मैंने वहां पर नालियां तो खुली ही बहती देखीं थी...

हमलोग जब छोटे थे, तो कभी-कभी पोस्ट ऑफिस वाले रास्ते से, पैदल आ जाते थे... सेंट रोबर्ट्स गर्ल्स स्कूल वाला रास्ता मेरा बहुत ही पसंदीदा रास्ता था..... कौरव-पांडव वाले फूलों से वो रास्ता पटा रहता था, बेहद शांत इलाका था वो, वो रास्ता जैन पेट्रोल पम्प जाके ख़तम होता था, उस रास्ते के बीच में मेरी सहपाठी रितुपर्णा बनर्जी और उसकी बहन मालविका का घर आता था.
हजारीबाग में मेरी एक बहुत ख़ास जगह है,जिसका मेरे जीवन मैं बहुत महत्वपूर्ण स्थान है और वह है ब्रहम समाज... ये वो जगह है, जो इस शहर के बीचो-बीच स्थित है... सब्जी मंडी के ठीक सामने..वहां पर एक प्रसिद्ध दुकान भी हुआ करती थी, रोज़ टेलर्स की... चश्मा पहना हुआ वह व्यक्ति काफी सालों से वहां अपनी दुकान चलाता था, बड़ा ही विनम्र व्यक्ति हुआ करता था... ब्रह्म समाज संगीत सीखने वालों का 'मक्का' हुआ करता था..वहां हिन्दुस्तानी संगीत के अलावा, रविन्द्र संगीत भी सिखाया जाता था...मूलतः बंगाली समाज का वहां ज्यादा दबदबा था, पर मेरे गुरु जी ने ताउम्र हिन्दुस्तानी संगीत की अलख जगाये रखी. मेरे गुरु जी का नाम श्री शिव कुमार है, हो सकता है ये अब भूतकाल भी हो चुका हो, पर जो गुरु थे, वो हैं और रहेंगे भी...  वे वहां पता नहीं कितने सालों से संगीत साधना करवाते थे...मैं जैसे ही हजारीबाग में आई थी,  संगीत के प्रति मेरा रुझान देख कर मम्मी ने मेरा admission  उस स्कूल में करवा दिया...८ साल से लेकर २२ वे वर्ष तक में उनसे संगीत सीखती रही... लम्बे-चौड़े व्यक्तित्व वाले वे इंसान हमेशा साधारण वेश-भूषा में ही दिखाई दिए.. कुर्ता -पायजामा में ही मैंने उन्हें देखा...

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Tuesday, September 21, 2010

हजारीबाग-1

हजारीबाग,दक्षिण छोटानागपुर का एक हिस्सा है,और आपको यहाँ संथाली बहुतायत में मिलेंगे...मध्यम कद के सांवले लोग,घुंघराले बालों के साथ अलग से पहचाने जा सकते हैं...इनके बारे में ज्यादा तो नहीं पता, पर ये काफी मेहनतकश इंसान होते हैं.मेरी पढाई जिस स्कूल से हुई, वहां पर भी ये आदिवासी/ संथाली लडकियां आराम से दिखाई देती थी.मेरी क्लास में एक लड़की थी अनीता केरकेट्टा, वो उन लड़कियों के बीच मेरी पसंदीदा थी... वह स्पोर्ट्स में भी काफी आगे थी और कद-काठी में भी काफी हट्टी-कट्टी थी, पर व्यवहार में वह उतनी ही सरल थी...उसकी बड़ी बहन भी हमारे स्कूल में हमसे किसी बड़ी क्लास में पढती थी...
 हज़ारीबाग में यातायात का एक सबसे सुलभ साधन था, रिक्शा... सड़क के किसी भी किनारे, किसी भी चौक, गलियों, मोहल्लों में ये आसानी से मिल जाते थे. मैंने एक बार अन्नदा कॉलेज के पास ऑटो जाते हुए देखा था, लगा कि अब धीरे-धीरे रिक्शों के दिन लदेंगे, पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. रिक्शा जिंदाबाद!!! बहुत से लोग साइकिल भी चलाते थे, पर मैं उन लोगों मैं नहीं थी... हिन्दू स्कूल के परिसर में हमने साइकिल चलाने की काफी कोशिश की, पर पूरी तरह से नाकामयाब रही, पर एक बात जरूर रही, कि हर बार मैंने अपने पैर और घुटने मैं खूब चोट पहुंचाई. हम तीनों भाई-बहनों ने साइकिल चलाने की प्रैक्टिस वहीँ से की, पर वे दोनों काफी आगे निकल गए, पर मैं वहीँ की वहीँ रह गयी. मेरी छोटी बहन गुडिया (शिल्पी) क्लास ५ से १२वीं क्लास तक साइकिल चलाती रही.मुझे इस बात का कहीं न कहीं मलाल रहा, कि वो ऐसा करके मम्मी-पापा के पैसे बचा रही है...आगे चलके उसने स्कूटर चलाना भी सीख लिया था... इस तरह वह हमेशा आगे कदम बढाती रही.. पर हमारे ज़माने में हजारीबाग के लोगों की मानसिकता काफी संकुचित थी, अगर किसी लड़की ने लीक से हटकर कोई काम कर लिया तो उसे आँखें फाड़- फाड़ के देखते थे. मेरी बहन को कई बार इस घटना से रूबरू होना पड़ता था..छोटे बस स्टैंड के पास कई बार गुंडे टाइप के लड़के साइकिल की हवा निकाल देते थे...और उसको काफी परेशानी होती थी.
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Monday, September 20, 2010

हजारीबाग...

नानी के पास से मैं  सीधे अपनी मम्मी के वहां पहुंची. उस खूबसूरत जगह का नाम है हजारीबाग..... आज के झारखण्ड राज्य का एक खूबसूरत शहर....इसे एक ज़माने मैं बिहार का स्वित्ज़रलैंड भी कहा जाता था...छोटी-छोटी पहाड़ियों, झीलों, तालाबों से घिरा हुआ ये शहर आज भी बरबस याद आता है...हजारीबाग आने का भी एक यादगार वाकया है.. जुलाई महीने की करीब ३० तारीख होगी, मैं,मौसी, पापा भय्या और दादा जी हजारीबाग के लिए आ रहे थे... ट्रेन का नाम था मुरी एक्सप्रेस...साफ़ से याद नहीं कि ट्रेन को कोडरमा रुकना था या हजारीबाग रोड, पर ट्रेन स्टेशन से आगे जा चुकी थी और भय्या पापा को कहे जा रहे थे, कि स्टेशन निकल चुका है, पर पापा मानने को तैयार ही नहीं थे, करीब १-२ स्टेशन आगे जाके पता चला कि, हमारा स्टेशन कब के जा चुका है, अगर भय्या ने लगातार नहीं बोला होता, तो पता नहीं सीधे अंतिम स्टेशन पर ही हम लोग रुकते... :-)

भारी बारिश के बीच हमलोग रात मैं हजारीबाग पहुंचे, अपने घर जहाँ सब लोग रहते थे.बस स्टैंड से रिक्शे मैं घर आये थे और अन्नदा कॉलेज के आगे आके किसी को रिक्शे से उतरना पड़ा था, क्योंकि वहां चढ़ाई थी, और रिक्शावाला रिक्शा खींच (टान) नहीं पा रहा था...बस उस रात से मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग हो गया 'मेरा हजारीबाग'.. सुबह उठ के मम्मी को देखा तो वो कुछ बीमार से थी, उस समय इतना ही पता था, कि उनके पेट का ऑपरेशन हुआ था...मेरे पैदा होने के बाद से लेकर मेरी मां का तीन बार पेट का ऑपरेशन हुआ था, ..मैं भी एकदम नयी तकनीक से हुई थी, 'सिजेरियन'...
शुक्ल जी का मकान था वो नवाबगंज में...मकान तो ठीक ही था, पर आस-पास गोबर की बदबू...पता नहीं कितनी गाय-भैंस पाली थी उन्होंने...भाई-बहनों से नया-नया तारूफ हुआ ही था, की मेरी छोटी बहन 'गुडिया' कहने लगी.. दीदी, यहाँ ददन दीदी का घर है... मैं कई दिनों तक तक यही सोचती रही, की ददन क्या नाम होता है, जरूर उनका नाम 'गगन' होगा, क्योंकि मेरी बहन की जुबान उस समय साफ़ नहीं थी...काफी दिनों तक ददन को गगन बुलाने का सिलसिला चलता रहा...अब हजारीबाग मेरी साँसों मैं घुलने लगा था... सबसे सुन्दर वहां मुझे लगने लगा था, बूढ़वा महादेव का मंदिर..... उसके तालाब में कमल के फूल खिलते थे जो बड़े ही मनमोहक लगते थे, रोड पार करने के बाद था, मां का मंदिर...यहाँ से शुरू होता है तालाबों का सिलसिला...

मेरे पापा केंद्रीय भण्डारण निगम (Central Warehousing Corporation) में कार्यरत थे. उनका ऑफिस सिन्दूर में था. उनके ऑफिस जाते हुए रास्ते में झीलों से मिलना होता था. तीन झीलों का अद्भूत नज़ारा...आस-पास हरियाली ही हरियाली, फूल ही फूल...ऑफिस पहुँचने तक बेल के पेड़ों से मदमस्त और ताजगी भरी खुशबू दीवाना बना देती थी...ऑफिस के सामने से ही दिखता था,' कैनरी हिल'.  एक छोटी-सी पहाड़ी बरबस सबका ध्यान खींच लेती थी...इतना बड़ा कैम्पस था उस ऑफिस का, कि चलते-चलते पैर थक जाते थे... कहीं गेहूं, तो कहीं किताबों, कहीं चीनी के गोदाम हुआ करते थे...अगर आप चीनी के गोदामों में घुस गए तो समझो कि बेहोश ही हो जाओगे..इतनी बदबू/खुशबू? मुझे आज भी मीठा/ मिठाई इतनी पसंद नहीं है, शायद इन गोदामों की बदबू ही इसका एक ख़ास कारण रही होगी और भी पता नहीं वहां क्या-क्या स्टोर होता था?

पर जहाँ तक मुझे पता है छट तालाब के अलावा वहां ४-५ तालाब और थे, एक तो मेरी दोस्त के घर के पास ही था, नाम तो याद नहीं, पर वो जादोबाबू चौक के कहीं आगे रहती थी...

Sunday, September 19, 2010

मेरा बचपन

उँगलियों का दम फिर से हरकत में हैं
कई सालों बाद चलने लगीं,
तमन्ना है कि हरारत करे,
दिल में छुपे लब्ज पढने लगे
बीच में दिमाग का काम न हो,

होठों- सी बात  झटपट करे

मेरा मानना है कि मन को सुकून देने के लिए पढना और लिखना जरूरी है,चूँकि काफी दिनों से कुछ लिखा ही नहीं था, इसीलिए मन थोडा डगमगाया हुआ था, पर अब उँगलियों को दिल की आवाज़ मिल गयी है.......... मुझे लगता है करीब दस सालों से मैंने अपने लिए कुछ भी नहीं लिखा था पर आज फिर एक मौका मिला है, तो खाली नहीं जाने दूँगी...

बचपन से शुरू करने का दिल चाहता है.........

बसंती बसंत 
मेरे जीवन का एहसास मैंने बसंत महीने (अप्रैल) से ही जाना है, और बसंती देवी (मेरी नानी) ने इसे बचपन से सींचा है, तो हो गया न 'बसंती बसंत'. अल्मोड़े के त्यूनरा मोहल्ले से ही मैंने अपना बचपन जाना है. नानी,मामा, मौसी की छोटी- सी दुनिया. होने को छोटी सी, पर अपार खुशियाँ समेटी हुईं, सारा मोहल्ला ही अपना था, कोई नानी,तो कोई नाना, कोई मौसी तो कोई मौसा और कोई तो मामा-मामी भी थे...  पहाड़ों के ठंडे झोंको के बीच, बीच अल्मोड़े में त्रिपुरा सुंदरी मंदिर के नीचे मेरी नानी का घर, जो मेरी मम्मी का मायका भी था और और मेरा मालकोट भी...... आज भी अच्छी तरह से याद है, जब छोटी थी तो नानी, मामा को बाहर से घर आने पर पहले दीये के ऊपर पहले हाथ रखने को कहतीं थी, फिर मेरे पास आने....... ये सारी कवायदें पुरानी होंगी, पर नानी उन्हें आगे बढ़ाते जा रहीं थीं, पर थी अपने घर की खुशी के लिए.........मेरे मम्मी-पापा मुझ से काफी दूर रहते थे, पर चिट्ठियाँ उनके करीब होने का एहसास जरूर देती थीं, जिसमे मेरे बड़े भाई और छोटी बहन का जिक्र जरूर होता था  ....... जनम से लेकर आठ साल अकेले,बिना भाई-बहन के काटे थे, पर जब भी दद्दा (तब अपने बड़े भाई को दद्दा कहती थी) पापा के साथ मुझसे छुट्टियों में मिलने आते, तो लगता बस, अब कहीं न जाने दूं उनको चिपट के रख लूं उनको अपने पास..........शिशु मंदिर में पढ़ती थी और बहुत सारे दोस्त थे आस-पास. ऋतू, रश्मि, विनीता, शशि.. पर बचपन के कुछ ख़ास दोस्त हुआ करते थे, ज्योति, कन्नू (कमल),दीपक........ कभी लंगड़ी टांग खेलते तो, कभी आइस-पाइस..कभी  बाहर दीवारों में बने कोटरों में सत्यनारायण भगवान का प्रसाद भी बनाते थे....जाड़ों में स्कूल जाते समय  कानों में सन-सी बर्फीली हवा बहने का एहसास आज भी मजेदार लगता है. हमारे प्राचार्य जी (प्रिंसिपल सर) कहा करते थे, नान्तिना क ठण्ड ठुंग में...... मतलब बच्चों को ठण्ड नहीं लगती.... पर मजेदार बात ये है कि आज भी सर्द हवाओं का पहला झोंका मुझे गरम कपडे निकलने का लालच दे जाता है......... मेरे खून में ही रचा-बसा है पहाड़ीपन......मूंगफलियों के सहारे अपनी मौसी के घर जाने का रास्ता तय कर लेती थी... बचपन से ही मैं 'सिप्पू' बनी हुई थी सबकी लाडली. आज भी याद है मुझे मेरे जन्मदिन मैं मेरी मम्मी की चिट्ठियाँ. "चि.शिप्रा को मेरी ओर से ढेर सारा प्यार देना और उसे कहना कि वो आगे बढे. मेरी ओर से मिठाई भी खा लेना ओर उसे शुभाशीर्वाद भी देना".
बचपन तो जैसे बर्फ की तरह पिघल के गुम हो गया......

पर बचपन मैं अगर परिवार साथ दे-दे, तो कभी भी परिवार मैं अकेला बच्चा,अकेला नहीं होता, न ही होता है उसे अकेलेपन का एहसास. जबकि समाज को और खुलेपन और खुलेमन से समझने मैं होती है उसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका.....................................