Sunday, March 17, 2013

holi.....

किन्ने गुलाल मोहे मारी, भिगोई मेरी साडी,
खड़ी हूँ मैं तो ब्रज की नारी
मारो गुलाल पिचकारी, सर ररर सारी कि आये मेरे अवध बिहारी
 
हाथ में अबीर लिए राधा जी बुलाये,
पास में कन्हय्या देखो अभी नहीं जायें,
देखे ये नगरी खड़ी सारी,
भर के पिचकारी,
माधव मेरे खड़े इतराए .....

चुपके-चुपके कान्हा इत-उत जाएँ,
खड़े ओटन पर मंद मुस्काएं,
मारी गुलेल चुप आरी,
मटकी फोड़ी हाँ री,
फिरूं जी मैं तो हारी  हारी  ....

भरे हुए थाल में, रंगों  को सजाकर,
निकली जो राधिका, देखे करुणाकर
मुरली बजाएं अति न्यारी,
बुलाएं वो अपनी दुलारी,
छिडके रंग वो तो सारे,
सर, रर ररर हाँ रे
ओं होली में खेले हमरे दुलारे ........     

Thursday, March 7, 2013

विरह

विरह

वो था मधुमास,
जीवन में था केवल हास,
और तुम एक भ्रमर थे
उन्मुक्त उड़के तुम कभी चले आते थे
अन्यथा अपने छत्ते में ही पड़े रहते थे तुम तो

ये पता था मुझको कि
तुम्हारा एक ही ठिकाना
चाहा था कभी मैंने भी
जीवन तुम संग बिताना
क्योंकि ये पता तुमको तो था
कि कब खिलूंगी और कब मुरझाऊंगी में जीवन में कब
पर मैंने चुना तुमसे कहीं दूर जा,
खुद को बसाना।

प्रेम की हर पात मैंने नोच डाली,
छोड़ कर गिर गयी उस पौध से,
जिसके तुम थे माली,
अब भी अकस्मात् याद आते हो तुम
परागों में यदा और कभी भरेपूरे उपवन देख कर
संतुष्ट होती हूँ मैं कोसों दूर हूँ अपने नयन भर

ये नहीं तुमको बता सकती
कि मैंने विरह को क्यों चुना
आग में तपकर, भसम कर
अपना मन मैंने क्यों भुना ?
चाहते हो जानो कि, मेरे उस
संकल्प का क्या था प्रयोजन
हर घडी जो साथ थी मैं तो क्यों वियोजन?

प्रेम से वशीभूत होकर
सब हैं जुड़ते,
एक दूजे के साथ रहते, साथ चलते
हाथ में डाले हाथ, कुछ कहते, कह्कहाते,
पर अगर मैंने विरह को चुन लिया,
तो ओ मेरे प्रिय, मैंने कुछ नया नहीं किया,
स्वर्ण गर आग में तप जाए
तो निखर जाता है बंधु,
लौ में जल कर हर पतंगा
प्यार पता है अद्भुत
प्रीत के बदले मैंने
विरह को वर लिया 
प्रेम तुमसे प्रतिपल
मैंने उतना किया,
जैसे एक चकोर देखे चाँद को,
रोशनी बसती रहे हमारी आँख में,
ऐसी एक प्रीत मैंने भी तुमसे करी,
साथ चलने की न जिसमे कोई शर्त रखी ....         


  

Wednesday, March 6, 2013

भाभी

भाभी

हाँ तुम वही हो
जिसके ख्वाब मैं देखती थी,
तुम्हारे आने के सबब से
कुछ पल मैं मचलती थी।

बचपन में सोचा करती थी,
कि तुम कैसी होगी सुन्दर या मद्धम,
कोमल या, मलखंम-सी,
पर उस रोज जब देखा तुम्हें,
लगा यूँ जैसे तुम कहीं वही तो नहीं।

थोड़ी पगली, थोड़ी नादान,
अपने में ही डूबी ऐसी इंसान,
कुछ-कुछ मेरी सी,
कुछ बोझिल, थोड़ी मनचली
पर ऐ लड़की तुम हो भली।

प्यार तुमसे मैंने बहुत पाया,
औ' अपना सार प्यार लुटाया,
सोचा ना था, कोई इतनी तवज्जो देगा,
हर दिन मुझको याद करेगा,
हाँ तुम हो, तुम्हीं हो वो कदरदान,
जो सचमुच मेरा है, सिर्फ मेरा कहने लायक,
भाभी,  तुम हो मेरे सपनों सी निकली,
एक रोचक, अनबुझ-सी पहेली,
भय्या के साथ जुड़े तो भाभी,
अन्यथा मेरी एक साथी-एक सहेली,
एक प्यार भरा रिश्ता मेरा,
हर दम जुडा रहे तुमसे यूँ ही ...

Sunday, March 3, 2013

प्रतिमान

प्रतिमान 

इस बियाबान में आधे-अधूरे सपनों सपनों के बीच,
झुरमुटों के झरोखों से तुम्हें देखती हूँ मैं,
और फिर चुपचाप औंधे मुंह पलट जाती हूँ
जैसे कभी तुम्हें देखा ही न हो।

लम्बे घने दरख्तों की छाँव में,
बाल फैलाये बैठ जाती हूँ, जाड़े के दिनों में
कि मैं भी किसी को अपनी घनी छाँव में आसरा दे सकूँ,
पर एक घोंसला भी नहीं बनाता कोई
ना ही उड़के क्षण भर को कोई ठहरता है
जैसे मेरी इस अलसायी सुनहरी भूरी पत्तियों से
किसी को सुवास आती ही न हो।

सूखे पुराने पत्तों के बीच जो रास्ता सजा है
वहां से आती घर्र-घर्र की आवाज़
छुनमुन घुंघुरुओं का आभास देती है,
लरजती शाख से गिरती ओंस की बूँदें
रुनझुन पायलों का प्रतिमान देती हैं
कोई नहीं है सुनने वाला इसे
न ही कोई पथिक, न ही कोई प्रेमी
न ही गुजरता है कोई पाखी वहां से
ये सुरमयी सुरों की श्रुतियाँ
मैं ही चुपचाप सुनकर दिन प्रतिदिन भूल जाती हूँ।

घनघोर वटवृक्षों सी खड़ी समय की ये लम्बी चादर,
ढांप देती है पुराने हर नए मेरे ये किस्से प्रतिदिन,
उघाडूं कब कहाँ किसके समक्ष ये मेरे हिस्से नये दिन
कोई नहीं है दूर तक आता, न ही जाता परस्पर
भरी उन्माद में बैठी हूँ मैं एक आस लिए भर
कि आये कोई एक दिन, एक नयी पहचान लेकर
ताकूँ अल-सुबह रस्ते से मैं बैठूं फिर रूप नया धर,
बेवजह हंस दूं, या कुछ भी गुनगुना दूं
मृगमयी सी बन झूमती फिरूं इस सघन वन में
पदचाप सुन मैं ठिटक बुत बन जाऊं जैसे
कि आया दूर चंद्रमा और मैं हूँ चकोर ऐसे
पर रात की काली स्याह सी ये लम्बी पगडंडी
डरा देती है हर दूर से आते हुए पथिक को

बियाबान यह घना जंगल है जीवन
जहाँ आता है हर कोई किसी के पास
 एक ख़ास ही प्रयोजन
न जाता है ये जंगल आदमी की भीड़ के बीच
न ही इसे महसूस होती है कोई सुगबुगाहट
खड़ा जंगल सा है ये घनघोर जीवन
जहाँ सब के अपने रास्ते है और कई गलियां-चोबारें
मतलब जहाँ से पड़े निकल जाता है रस्ता
हर मुसाफिर एक दीपक हाथ में रख चल-निकलता
पथभ्रमित नहीं होता है कोई भी एक यात्री
जीवन जी लेता है अकेले या कभी कोई एक साथी
पर हर दिन मेरे एक उच्छ्वास आ निकलती
इन झुरमुटों के बीच मुझे एक आस लगती
कि आये एक साथी, कोई प्रिय या सखा एक
अफ़सोस मैं स्वयं पथिक बन यहाँ अविराम चलती
जंगलों का अपनी यही गुमनाम जीवन
न दुःख में दुखी न सुख में सुखी
बस बढ़ निरंतन ...........