Monday, September 30, 2013

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प्रस्तावना

5 जुलाई, 2006 को, सिटी हाई स्कूल के प्लेटिनम जुबली समारोह में भाग लेने के लिए मैंने दक्षिण उड़ीसा के बेरहामपुर का दौरा किया। तूफानी मौसम में वहां हजारों की संख्या में आये बहादुर छात्रों ने मेरे दिल को गहराई से छू लिया। मेरे दोस्त, कोटा हरिनारायण, जो भारत के हल्के लड़ाकू विमान विकास कार्यक्रम के पूर्व प्रमुख थे, भी वहां मेरे साथ थे। वह कोटा के इस स्कूल के एक प्रतिष्ठित पूर्व छात्र थे और मैंने उनसे पूछा, " इस स्कूल के छात्र होते हुए क्या आपने कभी ऐसा सोचा भी था कि किसी दिन आप एक लड़ाकू विमान विकसित कर पाएंगे?" अपने विशिष्ट अंदाज़ में हंसते हुए कोटा ने जवाब दिया, "मुझे तो लड़ाकू विमानों के बारे में ही कुछ पता नहीं था, लेकिन मुझे यह जरूर लगता था कि मैं एक दिन कुछ महत्वपूर्ण अवश्य हासिल करूंगा।

किसी बच्चे के जीवन में जो पहले अव्यक्त होता है, क्या बाद में प्रकट होने लगता है?
शायद हां। 1941 में, रामेश्वरम पंचायत बोर्ड स्कूल के मेरे विज्ञान शिक्षक शिव सुब्रमनिया अय्यर ने मुझे ( मेरी उम्र 10 वर्ष थी) बताया कि पक्षी कैसे उड़ते हैं।  वास्तव में उन्होंने इस विषय के प्रति मेरे मन के अकाल्पनिक दरवाज़े खोले और और इस विषय को लेकर मुझे शाब्दिक और चित्रात्मक प्रेरणा दी।

प्राथमिक शिक्षक पारिवारिक आनुवंशिक श्रृंखला के वाहक एक छात्र के प्रगतिपूर्ण जीवन में उपदेशों और कथाओं द्वारा एक निर्णायक भूमिका वहन करते हैं। उनपर अपने छात्रों के जीवन की प्रगति की पूरी जिम्मेदारी होती है।

इस धरती में सदी के 75 साल गुजारने और कई लाख युवा छात्रों से बातचीत के बाद मुझे लगता है कि शिक्षा वास्तव में एक सहयोगात्मक प्रक्रिया है, जो कई उपप्रक्रियाओं से घिरी हुई है। हम इसके चार घटकों के विस्तार पर काम  कर सकते हैं।  ये चार परस्पर तत्व आपस में जुड़ कर एक समग्र रूप ले सकते हैं और शिक्षा का यह समग्र जोड़ इन चार तत्वों से कहीं अधिक बड़ा होता है। आपस में जुड़े इन चार तत्वों के बिना कोई भी शिक्षा किसी विद्यार्थी को वह रूप प्रदान नहीं कर पायेगी, जो आगे चलकर उसका भविष्य संवार सके। ये वो कौन से अवयव हैं जो शिक्षा को पूर्ण रूप दे सकते हैं?

सीखने के पहले चरण में, व्यावहारिक, ठोस और विशिष्ट पहलू शामिल हैं।  दूसरे चरण में साधन और तरीके शामिल है। यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि ज्यादातर लोग इस बात को समझ गयें हैं। तीसरे चरण में अनुभव की सीढ़ी में चढ़कर व्यक्ति समझ के विमान से उतरता है।  इस चरण में एक विकसित आत्मा की स्वाभाविक प्रगति होती है। चौथे और अंतिम चरण में मानव अस्तित्व के दार्शनिक और अमूर्त आयाम की अभिव्यक्ति होती  है। विभिन्न संस्कृतियों के हिसाब से इन चार चरणों के नामकरण भी अलग-अलग होते है।
हिन्दू समाज के अनुसार एक जीवन के चार चरण होते हैं, इनके नाम हैं, ब्रह्मचर्य (छात्र), गृहस्थ (गृहस्थ), वानप्रस्थ (अर्द्ध सेवानिवृत्ति में) और सन्यासी (पूर्ण सेवानिवृत्ति या त्याग)   प्रत्येक चरण के धर्म (सही आचरण) भी अलग-अलग प्रकार के है. ये चारों चरण इन क्रियाओं का अलग-अलग रूप से प्रतिनिधित्व करतें हैं, जिनमें तैयारी, उत्पादन, सेवा और प्रस्थान की अवधि शामिल है । हिंदू धर्म एक शिक्षाप्रद सिद्धांत में विश्वास नहीं करता।  इस धर्म में लोगों को यह सिखाने की जरूरत नहीं पड़ती कि कैसे खुश रहें, कैसे सुरक्षित रहे, और कैसे लोगों में इज्जत पाएं या दोस्तों और सहयोगियों से तारीफ कैसे बटोरें? हिंदू विचारधारा के अनुसार इन मूल्यों की एक स्वाभाविक प्रगति होती है और हर एक व्यक्ति अपने मौलिक हितों की दिशा में इसका स्वतः विकास करता है। प्राकृतिक मूल्यों के माध्यम से यह परिवर्तन आश्रम के रूप में स्थापित किया जाता है और जीवन के चार चरण इसी में आबद्ध हो जातें हैं।

बौद्ध धर्म में, आत्मज्ञान प्रक्रिया लगातार चार चरणों के रूप में समझायी गयी है। ये चरण हैं -  सोतपन्न- यह आंशिक रूप से वह प्रबुद्ध व्यक्ति है और जिसने दिमाग का इन तीन मनःस्थितियों से अलगाव  कर लिया हो  (ये मनः स्थितियाँ हैं, आत्म-आंकलन,  उलझनपूर्ण संदेह और संस्कारों और अनुष्ठानों के लिए लगाव),  अपेक्षाकृत मजबूत कामुक इच्छाओं से युक्त ,बुरी भावनाओं में संलिप्त  व्यक्ति सकदगामी है,  जो व्यक्ति कामुक इच्छाओं और दुर्भावना से पूरी तरह से मुक्त है वह अनागामी और जो भविष्य में आने वाले सभी कारणों से मुक्त और जैविक मौत के बाद पुनर्जन्म और सांसारिक बंधनों से अपने को अलग कर चुका है, उसे अरहंत कहतें है।    

शास्त्रीय पश्चिमी विचारधारा के अनुसार मानव आध्यात्मिक विकास के चार चरण है। पहला चरण, अराजक अव्यवस्थित और लापरवाह है।  इस चरण में लोग अवहेलना और अवज्ञा करते हैं और अपने या अपने आगे किसी अन्य की इच्छा को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते है।  दोषी और विद्रोही लोग इस चरण से कभी बाहर नहीं निकल पाते हैं। दूसरे चरण में वह व्यक्ति है जिसे अंधा विश्वास है, वे इस चरण तक पहुँच चुके होते हैं हैं कि उन्हें लगता है कि उनके बच्चों ने अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करना सीख लिया है, अर्थात ये वो दूसरे धार्मिक श्रेणी के लोग हैं, जिन्हें भगवान पर पूर्ण विश्वास है और उनके अस्तित्व को लेकर वे कोई सवाल करना ही नहीं चाहते। इस अंधविश्वास के साथ विनम्रता और आज्ञा पालन और सेवा करने की इच्छा स्वतः आ जा \ती है। कानून का पालन करने वाले अधिकांश लोग इसी दूसरी श्रेणी से बाहर नहीं आते।  . तीसरे चरण में वैज्ञानिक संदेह और उत्सुकता की अवस्था है। इस चरण में व्यक्ति को भगवान पर विश्वास तो होता है, पर परीक्षा के बाद। वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में काम कर रहे लोग अधिकांशतः  इस स्तर के होते हैं।  इस चौथे चरण का व्यक्ति रहस्य और प्रकृति की सुंदरता का आनंद लेना शुरू करता है। अपने संदेह को बरक़रार रखने के लिए वह प्रकृति की भव्यता को देखना/ समझना शुरू करता है। उनकी धार्मिकता और आध्यात्मिकता दूसरे चरण के व्यक्ति के एकदम अलग होती है, क्योंकि वह किसी भी चीज़ को अंध-विश्वास से अलग वास्तविक विश्वास के पैमाने में स्वीकार करते हैं।  इस प्रकार दूसरे अर्थ में चौथे चरण के व्यक्ति वास्तव में काफी भिन्न होते हैं।  चौथे चरण के लोग, वास्तव में रहस्यवादी कहे जा सकते हैं।

इस्लामी परंपरा में सूफी रहस्यवाद या तसववुफ़ के अनुसार आध्यात्मिक विकास के चार चरण होते हैं, जो आरोही क्रम से इस प्रकार होते हैं; शरीयत, तरीक़त, मरेफ़त, और हकीक़त। शरीयत नियम पुस्तिका में सुस्पष्ट रूप से पालन किये जाने वाले कोड का गठन किया गया। तरीक़त में प्रशिक्षण देने की बातें कही गयीं हैं। मरेफ़त में संगठन की बात और हकीक़त अंततः एक शिखर सम्मलेन है।

नागरिक समाज की जिम्मेदारी है कि वह युवा लोगों को शिक्षित कर जिम्मेदार बनाये और जो  नागरिक जिम्मेदार, विचारशील और उद्यमी प्रवृति के हैं, उन्हें और उन्नत करें। यह काम न तो किसी सेवा उद्योग के किसी खंड का है न ही किसी सरकार का। वास्तव में यह एक जटिल एवं चुनौतीपूर्ण कार्य है, पर इसके लिए नैतिक सिद्धांतों, नैतिक मूल्यों, राजनीतिक सिद्धांत, सौंदर्यशास्त्र और अर्थशास्त्र की गहरी समझ की आवश्यकता है। इन सबके ऊपर यह समाज और उसके बच्चों के लिए हमारी समझ जरूरी है। इस कार्य की जिम्मेदारी न तो सरकार पर डाली जा सकती है और न ही इसे पैसे से खरीदा जा सकता है।

हर व्यावहारिक क्षेत्र में प्रगति उन स्कूलों की क्षमताओं पर निर्भर करती है, जो बच्चों को शिक्षित करती है। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य भविष्य के विकास और समृद्धि को बढ़ावा देना है। बचपन में की गयी पर्याप्त तैयारी और बेहतर नींव ही बच्चों के विकास और इनके उद्देश्यों में सफलता प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध होती है। बचपन में नींव जितनी बेहतर व मजबूत होगी, आने वाले समय में बच्चा उतना ही सफल होगा। शिक्षा के क्षेत्र में मूल सरल बातें बच्चे को ऊंचाइयों तक ले जा सकती है। 
आमतौर पर शिक्षा के एक केंद्रीय सिद्धांत के अंतर्गत "ज्ञान का दान" भी शामिल है। बुनियादी स्तर पर, यह ज्ञान की प्रकृति, उसके मूल रूप और गुंजाइश के साथ संबंधित है। पर साथ ही ज्ञान की प्रकृति और विविधता पर विश्लेषण करना भी उतना ही जरूरी है और यह देखना भी उतना ही जरूरी है कि कैसे यह विचार सच्चाई और विश्वास से संबंधित है। हम अपने बच्चों को दूसरे देशों की सोच के अनुसार शिक्षित नहीं कर सकते  क्योंकि इससे भविष्य में उनके अन्दर मातृभक्ति की भावना का ह्रास होगा।  

पारंपरिक रूप से भारत एक ज्ञानवान समाज रहा है। इस भूमि में महान दार्शनिकों और विद्वानों ने अपने चरण रज रखे थे। शिक्षा के तरीकों और उद्देश्यों को लेकर भारतीय परंपरा व्यापक रूप से फैली हुई है। मैंने रवींद्रनाथ टैगोर और जिद्दू  कृष्णमूर्ति के लेखन में दो अलग-अलग रूप पाए। टैगोर ने कहा है कि जिस प्रकार फूलों के खिलने के लिए बगीचे का होना आवश्यक है उसी प्रकार रचनात्मकता को विकसित करने के लिए संस्कृति का होना आवश्यक है। वहीं दूसरी और जिद्दू कृष्णमूर्ति कहतें हैं कि संस्कृति हमारी रचनात्मकता को बर्बाद करती है। वह किसी भी प्रतिभावान को अनिवार्य रूप से एक विद्रोही के रूप में देखते हैं। परन्तु यह पुस्तक बीच का मार्ग लेती है। परंपरागत शिक्षा के महत्व को समझते हुए यह किताब जिसमें शरीयत और तरेक़त के चरणों का वर्णन है, यह पुस्तक मारेफ़त की  भावना पर केंद्रित है।
  मैंने यहाँ पर सिर्फ वही लिखा है जो मैंने स्वयं देखा है या महसूस किया है। पिछले पांच दशकों में विभिन्न बड़ी परियोजनाओं और प्रेरणादायक नेताओं, प्रतिभाशाली सहयोगियों और प्रतिबद्ध कनिष्ठों ने मुझे जो सिखाया है, मैं अपनी भावी पीढ़ी के साथ वही साझा करना चाहूँगा। मेरे अनुसार ब्रह्मांडीय ऊर्जा को उत्कृष्ट आनुवंशिक क्षमता में विकसित करने की प्रक्रिया मारेफ़त है। मैंने अपने काम के दौरान कई महत्वपूर्ण मौकों पर ऐसा अनुभव किया है और मैं इसे विकास के एक कदम के रूप में देखता हूँ।
 भारतीय परंपरा इस तरह के उदाहरणों से भरी पड़ी है। तिरुवल्लुवर के विद्वान, कबीर और विवेकानंद की प्रतिभा लौकिक है और इन्होंने आगे बढ़कर कई नियम भी स्थापित किये हैं। इन सबने अपने समय में, अपने हिसाब से नए विचारों और प्रतिबिंब के नए रास्ते खोल दिए। भौतिकी और विज्ञान के अंतर्गत हमलोगों में नोबल पुरस्कार लाने की एक विशेष परंपरा भी है। हालाँकि, आजकल अनुसंधान की तुलना में सेवा कौशल ज्यादा आगे बढ़ते जा रहा है।  आजकल के ज़माने में लोग नया कुछ करने से अच्छा, चली आ रही परिपाटी का अनुसरण करना समझते हैं।

आधुनिक दुनिया में धन कुह नया करने से आता है। बदलाव की जरूरत को ध्यान में रखते हुए नैनो टेक्नोलोजी विषय के द्वार सभी के लिए खुले हुए हैं।बेशक, भारत इस क्षेत्र में विश्व में सर्वश्रेष्ठ बन सकता है। सूचना तकनीक के क्षेत्र में भारत ने विश्व में अपनी एक ख़ास पहचान बनायी है और एक इज्जत हासिल की है।  हाँलाकि इससे कुछ हज़ार रोजगार और निर्यात आय ही पैदा की जा सकती है।  पर अब इसे सेवा उपलब्ध कराने के वर्त्तमान परिदृश्य से आगे बढ़ना चाहिये।
इस पुस्तक का उद्देश्य युवाओं के दिमाग में इस बात का प्रवाह करना है कि शिक्षा के क्षेत्र में अपार संसाधन और सहयोगी प्रणालियाँ मौजूद है। अगर इन संसाधनों का इस्तेमाल नहीं किया गया तो उनकी अनदेखी हो  जाएगी।
इस पुस्तक में वे छोटे-मोटे विचार प्रस्तुत किये गये हैं जो पिछले पांच सालों में कई लाख स्कूली बच्चों के साथ बातचीत के दौरान मैंने बांटे, जो  महत्वपूर्ण होते हुए भी परंपरागत पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं।  मेरी वेबसाइट पर बहुत रोचक प्रश्न पूछे गए हैं;  जैसे हम किसी वृत को 360 डिग्री में ही क्यों बांटते हैं? गणित में जोड़ और घटाव जैसे विषय कब लाये गए? आर्यभट्ट ने जिस चीज़ को सन 499 में ही में खोज लिया था, कोपरनिकस के उसे 1000 वर्ष खोजने के बाद इतना हंगामा क्यों हुआ?

  हम एक आतंक प्रेरित युग में रहते हैं। यहाँ ऐसे भी लोग हैं जो ऐसा सोचते हैं कि अपने एक सपने के लिए अपनी जिंदगी का बलिदान कर जन्नत में एक अच्छी-खासी जगह अर्जित कर लेंगे।  इन सब के बीच यह स्वर्ग कहाँ से आया? क्या धरती मानवता के रहने के लिए एक सही जगह नहीं है? क्या हर इंसान अपनी जिंदगी अपनी किस्मत से आगे नहीं बढ़ाता? इस पुस्तक में इस तरह के उत्तर नहीं मिलेंगे। ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने की बजाय  यह पुस्तक स्वयं एक प्रश्न पूछती है कि क्या सभी कलियाँ खिलकर फूल नहीं बनती?


ए.पी.जे. अब्दुल कलाम.

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Friday, August 2, 2013

पिता

पिता

कब देखा था पहले तुम्हें, ये तो याद नहीं,
करीब चार साल की जरूर थी,
माँ से पहले देखा था तुम्हें ही, मैंने अपने पूरे होश-ओ-हवास में,
अमरूदी खुशबू से भरा वो थैला अभी भी याद है मुझे,
जिसमे भरकर कुछ कपड़े , उपहार तुम लाते थे मेरे लिए
साथ में इलाहाबादी अमरूदों से भरा एक बोरा,
लगता है मुझको अब भी कि पापा की खुशबू ऐसी ही होती है.
कुछ मीठी और कुछ भीनी, जो जीवन-सी जीभ में समायी हुई है.

 तुम्हारे हाथों के मोटे दो स्तंभों के बीच लगता था,
जैसे पालना यही है, और ये ही मेरा सिंहासन,
ओढ़ कर तुम्हारे उस तौलिये को,
माँ के आँचल का सार पाया है,
थोड़ा गुदगुदा, थोड़ा सख्त कड़े गुंथे आटे सा,
जहाँ मैं कभी खुद को महफ़ूज पाया है.

बचाते कभी मुझको,
खुली किताबों के बीच आती अकस्मात् नींदों के झोंखों से,
तो कभी गिरी हुई परफ्यूम की बोतल का जिम्मा अपने सर चुपचाप ले कर,
बिठाते मुझको कांधे अपने तब भी, जब लडकियाँ सकुचाने लगती हैं
बाप हो, भाई हो या दोस्त, सबसे जब खुद को छिपाने लगती है,
तब भी बनी रही मैं तुम्हारी एक छोटी-सी डलिया,
जो हमेशा माथे पर ही रहती थी.
न सरकती और कभी नीचे न आती,
ऊपर बैठ के ही बस घर-संसार सजती थी.

पिता से निकलती है एक पुत्री,
जो उस जैसी ही होती है, शब्द में भी
और कहीं कुछ गुणों में भी,
पाती है लाड, दुलार अपरिमित,
और साये में तेरे सिंचती है,
मुश्किल है एक पिता का
अपनी लड़की विदा करना,
जो पल में हो जाती है परायी,
क्या गुजरती है उस कोमल ह्रदय पर,
वो ही जाने जिसकी फटी बिवाई,

मेरे पिता तो बाद में मेरे पिता बने,
पहले बने वो मेरी माँ,
फिर भाई अंत में मेरी बहन,
हो 'पिता', पर ममता तो ओढ़े हो तुम
मेरे लिए,
छुपाते हो मुझे कभी किसी गर्म गुस्से,
और कभी शून्य संवेदनापूर्ण लोगों से
नहीं, मैं नहीं कह सकती कि पिताजी  सख्त होते हैं,
हमारे नए जीवन में वह ही हमारे तख़्त होते हैं,
जो देते हैं सहारा, आश्वासन और ढेर सारा प्यार जीवन का

 मोम-सा है अब भी तेरा प्यार,
जो रिश्ते में  जेठी आने से पहले ही गल जाता है अश्रु बनकर,
और बहा ले जाता है सारे ताप,संताप एक लहर में,
तेरे साये में अब भी वो ठंडक मिलती है,
जो होती है एक आइसक्रीम में,

पर मिठास तो तब ही आती है
जब एक अमरुद का टुकड़ा
तुम हरा नमक मिला के खिलाते हो, जाड़े की धूप में,
उगाउंगी इस साल अपने गमले में,
मैं एक अमरुद का पौधा,
जो तुम्हारी उस खुशबू की याद दिलाएगा, 
सुखाउंगी उस पर रखकर अपना तौलिया
और महक के कह दूँगी कि देखो, पापा घर में आये हैं.…

Monday, July 29, 2013

पूर्व ही रच ली गयी थी 'रामायण '

पूर्व ही रच ली गयी थी 'रामायण '

कलयुग में सृष्टि ने एक नियम बनाया है कि इस जन्म में किये गए पापों का फल भी किसी को इसी जन्म में मिल जाता है और किसी को इसका प्रायश्चित करने के लिए अगला जन्म लेना पड़ता है. प्रसंगवश मैंने एक अलौकिक व्याख्यान पढ़ा और आप सब को बताने का मन भी किया, फलतः लिख रही हूँ, प्रकांड विद्वानों से अनुरोध है कि अगर कोई त्रुटि हो, तो क्षमा करें।
ये बात काफी पुरानी है, नारद देव जो ब्रह्मा जी के पुत्र थे, एक कंदरा में चुपचाप तपस्या करने लगे. उनकी अद्बुत तपस्या से भगवन इंद्र काँप उठे और संशय में पड़ गए कि इंद्रलोक उनसे छिन न जाये। फलतः उन्होंने कामदेव जो को वहां उन्हें विचलित करने के लिए भेजा, कामदेव बसंत को लेकर वहां पहुँचे और उन्हें डिगाने की बहुत कोशिश की, पर नारद जी अडिग रहे और उन्हें वापस जाना पड़ा. हुआ यह था कि एक बार पहले  भी कामदेव ने इससे पूर्व शंकर जी को भी डिगाने की कोशिश की, पर शंकर जी ने कामदेव को श्राप दे दिया था और रति के याचना करने पर उन्हें श्रापमुक्त कर दिया, पर उस तपोस्थान से कुछ किमी की दूरी तक काम का प्रभाव निष्क्रिय हो गया. नारद जी को यह भ्रम हुआ कि उनके खुद के ताप से काम वापस चले गए. नारद जी अपनी प्रशंसा करने के लिए शंकर जी के समक्ष गए. शंकर जी ने उनसे कहा कि अब ऐसी बात कभी किसी अन्य के समक्ष मत कहना और यह मेरी आज्ञा समझ लेना क्योंकि तुम विष्णु के परम भक्त हो, और मुझे अत्यंत प्रिय हो.. पर मद से वशीभूत नारद ने ब्रह्मा जी को यह बात बताई पर पिता ब्रह्मा ने भी उन्हें यह किसी को कहने से मना किया। अहंकार से वशीभूत नारद जी विष्णु जो के समक्ष गए और सारा वृतांत सुनाया। इतना कह  नारद जी वहां से चले गए.  
वहीं दूसरी और शिव की माया से प्रेरित हो श्री हरि ने एक माया नगरी बनायी और नारद जी ने उसमे प्रवेश किया। उन्होंने देखा कि यह तो कई योजन तक फैला हुआ है.. उनके वहां पहुंचते ही वहां के राजा ने उनका स्वागत किया और बैठने के लिए उचित स्थान देकर उनका यथोचित सम्मान भी किया। फिर उन्होंने नारद जी को अपनी पुत्री 'श्रीमती' से मिलाया और उन्हें बताया कि वे उसका स्वयंवर कराने की सोच रहे हैं. वार्तालाप के समाप्त होने के पश्चात नारद जी वापस आ गए और वे काम से ग्रसित हो गए, उन्हें लगा कि इतनी सुन्दर कन्या से उन्ही का विवाह होना चहिये. इस प्रयोजन से वे विष्णु जी के पास गए और नारद जी ने विष्णु जी को बताया की वो उस विशाल नेत्र वाली श्रीमती नामक युवती से विवाह करना चाहते है. उन्होंने भगवान से ये याचना की, कि यदि वो उन्हें अपना रूप दे दें, तो कन्या के पिता नारद जी को विष्णु समझ कर 'ना' भी नहीं कह पाएंगे और अपनी पुत्री का विवाह उनसे करा देंगे।
 विष्णु जी ने उनकी सारी बात सुनी और उन्हें अपने जैसा शरीर दे दिया पर मुंह बंदर-सा दे दिया।  चूँकि वे अपना चेहरा खुद नहीं देख सकते थे, इसलिए नीचे का शरीर मात्र देख वे अभिभूत हो गए और यह ठानकर विवाहस्थल की और चले गए कि आज तो उस सुन्दर कन्या से विवाह कर के ही लौंटेंगे। वहां उनके बगल में शिव जी के दो गण वेश बदलकर उनके साथ बैठे हुए थे. नारद जी ने सोचा की अभी राजा की पुत्री आएगी और सब सज्जनों के बीच उन्हें चुनकर अपना वर घोषित कर देंगी। पर हुआ ठीक इसके विपरीत, वो आई और उन्हें देखे बिना ही चले गयी. नारद जी बड़े दुखी हुए तब वेश बदल के आये गणों ने उनसे कहा कि उन्होंने अपना चेहरा भी देखा है, ऐसा कहकर वे जोर-जोर से हँसने लगे. नारद जी ने क्रोधवश उन गणों को राक्षस हो जाने का श्राप दे दिया, ऐसा सुन वो दोनों गण वहां से श्राप स्वीकार कर सहसा चले गए. इसी बीच विष्णु भगवान वहां आ गए और कन्या ने झटपट वरमाला उन्हें पहना दी. नारद जी  कुपित होकर वहां से चले गए. फिर गुस्सा होकर भगवान हरि के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्हें कई बुरी बातें और खरी-खोटी सुनायी। उन्होंने विष्णु जी को श्राप दे दिया  कि जिस प्रकार मैं स्त्री के वियोग में तड़प रहा हूँ, आप भी उसी प्रकार तड़पें और ये बंदर मुंह वाले लोग ही आपके जीवन में आने वाली विपत्ति के समय आपके सहायक बनें।
विष्णु जी ने सहर्ष श्राप स्वीकार कर लिया पर उन्हें सारा वृतांत कह सुनाया कि किस प्रकार नारद जी मद में उन्मत्त खुद को विजयी घोषित किये जा रहे थे और सब भगवन शिव की माया से ओत-प्रोत और उनके पराक्रम के प्रताप को वो अपना ही ओज समझे जा रहे थे.
 माया से वशीभूत नारद जी की आँखें खुलीं और उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ, उन्होंने भगवान विष्णु से कई प्रकार से प्रार्थना की कि उनके द्वारा दिए हुए श्राप को वो निष्फल कर दें, पर ऐसा हो न सका.  उधर वापस अपने लोक आते हुए नारद जी को भगवान शिव के वो दोनों गण मिले, जिन्हें उन्होंने राक्षस हो जाने का श्राप दिया था. गणों ने उनसे क्षमायाचना की, फिर उनके श्राप को कम करते हुए नारद जी ने कहा कि त्रेता में वे रावण और कुम्भकरण नाम से जाने जायेंगे और भगवन विष्णु का अवतार ही उन्हें मुक्ति दिलायेगा।

इस प्रकार से रामायण की कहानी पूर्व ही रच ली गयी थी, और भगवान को भी स्वयं श्रापमुक्त होने के लिए नर का रूप लेना पड़ा था. भगवान विष्णु को 'नारायण' भी कहते हैं. भगवान विष्णु भगवान शिव के परम प्रिय हैं और उन्हें कमल भी शिव के द्वारा ही प्रदत्त है. एक बार भगवन विष्णु, कमल हाथ में लिए पानी में कई समय तक विश्राम करते रह गए, तब से उनका एक और नाम हो गया, ' नारायण' अर्थात 'नारा है जिसका वास'
नारा (पानी) + अयण (वास)- पानी है जिसका वास, वो हैं नारायण।  

Thursday, July 18, 2013

प्यार

कैसे होता है प्यार? 

सुना है प्यार की कोई जात नहीं होती,
ये तो बस एक उन्माद है, जो आंधी की तरह आता है,
किसी को दिल देकर, भावना फैलाकर,
चुप चाप चला जाता है, मौनी बाबा सा।

देखती हूँ प्यार में डूबे हुए लोगों को,
जरूरी नहीं कि कामदेव के तीर से घायल हों,
सिर्फ नज़रों से, बातों से कर लेते हैं लोग बेइंतिहा प्यार,
पास में बैठ, होती है कुछ गुफ्तगू और थोड़ी तकरार
और इसको ही समझ लेते हैं प्यार।

 कोई किसी को कैसे करता है प्यार,
कैसा होता है इस प्यार का इज़हार,
ऐसा जैसे, माँ अपने बच्चे से करती है,
बहिने जब एक-दूजे पे तरती हैं,
गाय बछड़े से करती है,
दोस्त-दोस्त के नाम पर मर मिटता है
किसी से मिलने को जब कोई तरसता है,
पुराने किसी प्रेमालाप को यादकर,
जब ह्रदय पीड़ा से संकुचित हो जाता है
या अपनी मिटटी की याद में जब खून उबाल मारता है
या किसी अनजान को देख होठों के फूल खिलते हैं
और आँखें गुलाबी हो जाती हैं,
या जब किसी नन्हें से बच्चे को देख
जब गोद में उठाने का जी करता है    
तब प्यार ही  होता है मेरी जान,
और कोई तब रोक नहीं पाता,
इस आवेग को,
गुस्से को रोकने के तो कई किस्से सुने हैं,
पर प्यार करने से किसी को कोई कैसे रोक सकता है
दिल का साइज़ बढ़ जाता है और खून के बदले प्यार बहने लगता है
पूरे जिस्म-ओ-जान में खुमार चढ़ जाता है इस नशे का,
आगोश में भरकर उसे, कर देना चाहिए प्यार चस्पा,
सोने पे सुहागा तो तब हो जब
चूम कर लगाओ उसपर अपने प्यार का ठप्पा
व्यर्थ नहीं जायेगा प्यार का ये एहसास,
जिनको होता है प्यार वो तो होते ही हैं कुछ ख़ास।

@शिप्रा पाण्डेय शर्मा 

Sunday, July 14, 2013

सुलगता धुआं

सुलगता धुआं

रात गहरी हो चुकी थी, काली स्याह पर जैसे किसी ने थोडा काजल और डाल दिया हो, और बस गुजरती जा रही थीं घड़ियाँ रात की। जीवन के पन्ने पलट के एक दूजे की कहानियों में खोये हुए थे वे दोनो। नींद भी नहीं थी आँखों में, और डिनर किये भी काफी समय बीत चुका था। कुछ लोगों को बातें करने के लिए चाय का सहारा चाहिए पर रिया और ऋषिकेश को इसकी कोई जरूरत नहीं थी। उनकी बातें, किस्से कभी नए मौसम जैसे, तो कभी अलमारी में रखे पुराने कपड़े जैसे, जिन्हें बाहर निकालने पर पुरानी यादों की बदबू आती। बहरहाल एक चीज़ थी, जो कभी छूटती नहीं थी, वो थी ऋषि के हाथों से सिगरेट के दौर। ऋषि सिगरेट पीता और रिया उसका धुआं पीती।
  काफी मसरूफ़ रहता है मर्द बिचारा, अपनी जिंदगी की उलझनों में। काम का तनाव, आगे बढ़ने की ललक, और भी कई सारी बिन बुलाई मुसीबतों में सिर धुनता रहता है घर का ये मर्द। रिया हमेशा सोचती थी आज नहीं तो कल ये आदत जरूर छूटेगी पर कोई इलाज़ नहीं था इस मर्ज़ का। कहीं किसी ने बना के नहीं दिया था उसे कोई आशियाँ, एक-एक तिनका खुद समेटा था, उन्होंने खुद अपने दम पे। किसी के सामने कभी हाथ फ़ैलाने की नौबत नहीं आई थी, अच्छा-बुरा जो हुआ जिंदगी में, वो अपने अन्दर समेटना जानती थी रिया। उसे पता था अपनी जिंदगी का फलसफा, क्या होना है और क्यों होना है, पर उसकी बातें नक्कारखाने में तूते की आवाज़ सी थी, पता ही नहीं कि कभी किसी ने सुनी भी की नहीं। सबको अपनी जिंदगी से कुछ न कुछ चाहिए था, किसी को प्यार, किसी को दौलत, किसी को सम्मान और पता नहीं क्या-क्या, पर रिया को पता नहीं क्या चाहिए था इस जीवन से, किसी चीज़ के पीछे नहीं भागती थी वो, जो जैसा मिल जाये, उसी में खुश हो जाती थी, पर उस मिलने में थोड़ी सहजता हो, थोडा प्यार और अपनापन हो। किसी का छीन के खानेवालों में से वो कभी भी नहीं थी, सपने में भी नहीं। बार-बार समझाती अपने पति को इस लत को कम कर दे, धीरे-धीरे छोड़ दे, पर कोई फायदा नहीं। ये नहीं कि ऋषि कोई लतखोर था, या दिन रात छल्ले ही उड़ाता रहता था, पर जितना भी धूम्रपान करता था वो सब रिया को भी कहीं न कहीं छलनी करता था। उसे पता था कि किसी दिन कोई अनहोनी हो जाएगी तो पास में देखने वाले, ढ़ाढस देने वाले कम, और फब्तियां कसने वाले ज्यादा बैठेंगे पास में। गलतियाँ गिनाने वाले कई लोग दिख जायेंगे बरसाती मेंढक की तरह।
  रातों के पन्ने पलटते गए, उम्र गुजरती गयी। रातें तो काली की काली रहीं पर बालों के स्याह रंग पे दिन सा उजाला धीरे-धीरे चढ़ता गया। सभी व्यस्त, अपने कामों में बेखबर, जिंदगी से निश्चिंत। गुजारने के लिए जिंदगी हर कोई किसी न किसी काम में लगा रहा, और पता नहीं कब जवान से अधेड़ हो गए।
हर दिन की तरह रिया और ऋषिकेश अपने काम के लिए निकल पड़े, पर अचानक ऋषि को काम के लिए मुंबई ऑफिस से ही जाना पड़ गया। रिया अपने ऑफिस में थी। अचानक सीने में दर्द से कराह उठी रिया, और पड़ गयी बदहवास-सी अपने डेस्क पे, बगल में बैठी कोमल ने देखा कोई हरकत नहीं है पिछले कुछ मिनट से रिया के टेबल में, जा के देखा तो अवाक् रह  गयी थी वो तो। इमरजेंसी में ले गए ऑफिस वाले उसे हॉस्पिटल और एडमिट करवा दिया। सभी स्तब्ध थे, हैरान थे कि क्या हो गया है उसे, बहुत फिट थी वो, कम बोलना, कम खाना-पीना उसकी आदत थी, इसलिए लोगों को और ज्यादा हैरानी हो रही थी। बहरहाल मुंबई पहुंचा ऋषि आनन-फानन में वापस लौटा और सीधे हॉस्पिटल ही पहुंचा। चेहरे में पीलापन, और अचानक से बूढी-सी प्रतीत होती रिया को देख भक्क सा रह गया ऋषि। पता नहीं आज कितने दिनों बाद देखा था उसने ठीक से उसे।  हल्का हार्ट अटैक हुआ था उसे, जिसे 'एनजाइना अटैक' भी कहतें है। डॉक्टर ने चुप रहने की सलाह दी थी उसे।
 कारण का तो पता नहीं चल पाया किसी को, पर डॉक्टर का कहना था, ज्यादा स्ट्रेस लेतीं हैं लगता हैं रिया! आराम ही इसकी दवा है भाईसाहब।

२-३ दिन लगे पर, आखिरकार घर आ गयी रिया, साथ में एक फुल टाइम कामवाली भी लगा ली थी उन्होंने, जो घर के सारे काम कर सके। ऋषि सोचता रहा कि आखिरकार ऐसा क्या हुआ जिसके कारण रिया की यह हालत हो गयी। अब धीरे-धीरे ठीक होने लगी थी रिया और घर के काम-काज भी खुद करने शुरू कर दिए थे, उसने। ऋषि को यह बात पचा नहीं रही थी, आखिरकार उसने पूछ ही लिया, रिया ऐसा क्या है जो तुम्हे दिन पर दिन खाए जा रहा है, तुम कुछ बांटती नहीं, अपने भीतर ही दबाये रखती हो। रिया ने सोचा अभी न बोल पाई तो कभी भी न बोल पाऊंगी, सहसा वह बोल उठी, ये तो अभी ट्रेलर था ऋषि, इससे भी ज्यादा हो सकता था। सोचो मेरी जगह तुम भी हो सकते थे, आज मुझे हॉस्पिटल के बिस्तर में पड़े देख कर तुम कितने परेशान हुए, और तुम तो दिन-रात छल्लों की दुनिया में खोये रहते हो। कहाँ मशगूल रहते हो, किस उधेड़बुन में फंसे रहते हो, क्या-क्या छुपाते हो मुझसे? छोड़ दो ऐसी उठा-पटक की जिंदगी, नहीं चाहिये हमें ये सब, कितना चाहिए जिंदगी गुजारने के लिए? दो रोटी, एक छत, कुछ कपडे और अनगिन साँसें, हमारा काम चल जायेगा ऋषि, पर फिर जिंदगी वापस नहीं आएगी। पर एक बात बता दूं और तुम इसका कभी बुरा नहीं मानना, अगर आज मेरी जगह तुम होते तो ये पक्का है कि मैं पलट के तुम्हें देखने भी नहीं आती। हॉस्पिटल में तुम्हे साँसों को उँगलियों में गिनते देख मेरी कोफ़्त और बढ़ जाती, सालों से सुलगते तुम्हारे धुंए से मैं खोखली हो चुकी हूँ, कई जतन किये, तुम्हे रोकने के और सभी नाकाम। अपनी जिंदगी दे के ही कुछ प्रमाणित नहीं कर सकती थी मैं, पर हाँ, अगर मेरी जगह तुम होते तो पक्का तुम्हे देखने के लिए नहीं आती मैं।

 कहीं दूर चली जाती इस बार, जहाँ इस उलझन, सुलगन की लौ में तड़पना नहीं पड़ता। नहीं आती कि तुम्हे असहाय पड़ा देख मैं हृदयहीन हो जाती, भावशून्य रह जाती, किस मौके को कोसती, किन-किन रातों को याद करती जब रात का पन्ना पलट हम उजाले को देखने के लिए जागते थे। एक दम हिम्मत नहीं हैं मुझमे ऋषि क्योंकि हर पल, हर दिन, हर माह, हर साल मैंने तुम्हे रोका था, धुआं उड़ाने से, पर तुम कभी न समझ सके एक ये ही बात जो मैं हमेशा कहती रही।

नहीं आती मैं, दूर चली जाती कहीं सबसे .......... कहते बुदबुदाते सो गयी रिया, लगा ऐसे ऋषि को जैसे वहां बिस्तर पर नहीं रिया नहीं,  वो खुद लेटा पड़ा है। चुप-चाप निहारता रहा, एकटक सोचता रहा उसके साथी की हर नाकाम कोशिश को। छलनी पड़ा था उसका सीना और कराहती हुई रिया की साँसों से घबरा गया था ऋषि। बैठे-बैठे काले, डरावने सपने-सा लगने लगा था जीवन, जो सिगरेट की हर कश में गोल-गोल खुद को ही लीले जा रहा था। समझ ही नहीं पाया कि क्यों पीता रहा वो इतनी सिगरटें? खामोश बैठा रहा ऋषि, किसको छोडूं और किसे पकडूँ, इसी विचार में कलपता रहा वो बिस्तर में पड़ी रिया और टेबल में पडी सिगरेट को देखकर।

@शिप्रा पाण्डेय शर्मा

Friday, July 5, 2013

खूबसूरत कार्मेल पर लट्टू जेवियर्स

खूबसूरत कार्मेल  पर लट्टू जेवियर्स 
यह आलेख पढ़कर आप इसे कदापि अन्यथा नहीं लें, कि मैं किसी स्कूल के बारे में कुछ अनर्गल लिखने का प्रयास कर रही हूँ, पर यही सत्य है कि  दो प्रतिस्पर्द्धी स्कूलों के बच्चे पीढ़ियों से लव-हेट (Love-Hate) वाला संबंध रखतें है।
ज्यादा तो गहराई से मुझे नहीं मालूम, पर यौवन की दहलीज़ में कदम रखते ही आइना सबसे बड़ा सहारा हो जाता है नव युवाओं का। बाल संवारने से लेकर लटों को दाँये-बांयें करने में ही बड़ा वक़्त कट जाता है, रहा-सहा थोडा वक़्त किताबों के काले अक्षरों को समेटने में लग जाता है। वैसे मैं अपने को इससे पहले ही अलग कर लूं, क्योंकि ऐसा मेरे साथ एकदम भी नहीं हुआ, क्योंकि मम्मी ने स्कूल तक तो मुझे हमेशा ही बॉब-कट रखा। पर कॉलेज जाने के बाद जब बाल थोड़े बढे, तो एक बित्ती गुथ सँभालने के लिए शीशे के सामने खड़े होना बड़ा सुहाता था। पापा मजाक करते थे, कि काला पर्दा डाल दो शीशे में, नहीं तो एक दिन शीशा थक के खुद ही टूट जायेगा।

अलबत्ता, कार्मेल की हसीन लड़कियों के मिज़ाज को समझने के लिए शहर में दो ही हस्तियाँ थीं, या तो उन लड़कियों के माँ-बाप, या उनके आगे-पीछे डोलते हुए ये गबरू जवान। अच्छा, मैं थोड़ी नासमझ बचपन से ही थी, लडकियाँ गुट बना के लड़कों के बारे में गुफ्तगू करती थीं, और मुझे पास देखकर बात पलट देती थीं। इस बात में कोई लाग-लगाव नहीं है और यह बात सोलह आने सच है। क्लास 6th से तो मैं यह देखती आ रही थी। क्लास 6th में हमारी क्लास में एक बेहद ही हसीन लड़की थी, जो बाद में किसी दूसरे स्कूल चले गयी थी, वहीँ से मैंने अपने साथ ये वाक्या देखा। इन लोगों की कानाफूसी छुट्टी टाइम भी बहुत दिखती थी, चाट वाले भय्या के पास, या नीचे बैठ कर इमली बेचने वाली दीदी से पास ये लोग दिख ही जाते थे।रिक्शे में जाती किसी खूबसूरतो के आस-पास चँवर झूलाने वाले-से ये अल्हड, अमूमन मुझे तो दिख ही जाते थे। ये उनके साथ ऐसे होते थे जैसे  कि या तो रिक्शा चलने वाला रिक्शा चलाते-चलाते अगर थक जाये तो वे ही रिक्शा चला कर उन्हें घर पहुंचा देंगे, या हुड में बैठी लड़कियों के आस-पास ये किसी बॉडीगार्ड से कम नहीं लगते थे। थे तो सभी छोटे पर साइकिल की सवारी इनकी बड़ी मजेदार होती थी।
दो तरह की लडकियां जेवियर्स से जुडी थीं, एक तो जो पढने लिखने में बहुत ही तेज होती थी और आये दिन किसी न किसी डिबेट कम्पटीशन या एक्जीबिशन में वहां जाती रहती थीं, और दूसरी वो जो सुन्दर दिखने वाली थीं और वहां के नौ-निहाल इनपर लट्टू थे. जब तक मैं क्लास 9th में आयी तब तक इनका झुण्ड ब्रेक टाइम में स्कूल के अन्दर भी पधारने लगा था। उस समय थोडा सिनियरटी का एहसास हो चुका था। ये वाक़या मेरे साथ हो चुका है, इसलिये बताने में कोई झिझक भी नहीं है। एक बार हमारी एक जूनियर से मिलने एक भाईसाहब स्कूल में आ धमके, थोड़ी देर तक मैं देखती रही, पर एक समय के बाद मेरे से रहा न गया। मैंने आव न देखा ताव, उस लड़की को खूब डांटा और साथ में उस लड़के को भी खूब खरी-खोटी सुनाई। बीच में टीचर भी आईं, उन्होंने भी खूब फटकार लगाई उस लड़के को और अंततः वह साहबजादे वहां से निकल लिए। बड़ा लीडरशिप का एहसास हुआ था उस दिन, टिफ़िन खत्म और मेरी क्लास में कुछ बच्चों को यह पता लग गया कि मैंने ऐसा कारनामा किया है आज, तो सबने बड़ी चुटकियाँ लीं। पर एक सहपाठी थी, जिसने मुझे समझाया कि आज का दिन मेरे पर काफी भारी पड़ने वाला है, सो घर संभल के जाना। भाई  साहब, मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम. पता चले कि वो मियाँ मेरे ही पीछे पड़ जायें और परेशान करने लगे। भगवान का नाम लेके घर की और निकले। वो लड़का दिखा भी था, हमारे रिक्शे के आस-पास और मैं वहां चूहे की तरह दुबकी-सी बैठी थी। घर के पास आने से पहले ही मैं उतर ली और रास्ता बदल कर पैदल-पैदल घर पहुँच गयी।
उस दिन से समझ आया की रोमियो-जूलिएट की कहानी में बिना बात के विलेन न बनना ही अच्छा।

   बात बड़ी नाजुक है और खुलेआम कहने में मुझे कोई गुरेज़ भी नहीं है कि छोटे शहरों में उस समय लड़के-लड़कियों को बात करते देख लेने पर काफी बुरा माना जाता था। कई अटकलें लगायी जाती थी और कई फ़साने भी बनाये जाते थे। छोटी उम्र ( teen age) में लगाव, आकर्षण होना स्वाभाविक है, वैसे इस बात पर कोई ठप्पा नहीं लगाया जा सकता पर आकर्षण, सराहना और सुन्दरता किसी उम्र की मोहताज़ नहीं होती, वो तो बस नैसर्गिक है, अपने आप हो जाती है। बड़े शहर में रहने के बाद मुझे को-एड (co-ed) के मायने समझ आये। बचपन से ही कोई पर्दा नहीं, सब समान, एक जैसे. लड़का-लड़की वाला कोई एहसास नहीं। मजेदार बात यह थी, शहर से करीब 15 किमी दूर मेरु के बीएसएफ स्कूल को छोड़ कर हज़ारीबाग में कोई  co-ed स्कूल था भी नहीं। कार्मेल की लडकियां खालिस कॉन्वेंट वाली होती थीं और जेवियर्स के लड़के भी कोई कम नहीं थे। वैसा ही रुतबा था उनका भी। पर मजे लेने वाले तो सिस्टर्स और फादर्स पर भी जुमले छोड़ ही देते थे।
आज अगर फिर से रिक्शे पे बैठ के निकलूँ अपनी गली  से और ऐसे रोमियो-जूलिएट फिर से दिख जायें तो कसम ख़ुदा की इंस्टेंट आशीर्वाद ले लूं, "पुनः युवती भवः"।

गुजरा हुआ ज़माना, आता नहीं दोबारा, हाफ़िज़ खुद तुम्हारा।
http://youtu.be/qwY_WjMqUyE

Saturday, June 22, 2013

पहाड़ की डायरी-2

पहाड़ की डायरी-2
 
मैंने पहले बताया था खाने की अव्यवस्थाओं को लेकर कितनी खींचातानी हुई थी । अब आगे……

 रेस्ट हाउस के रसोइयों ने इस बात का भी जिक्र किया कि वे वहां से करीब 8-10 km दूर रहतें हैं, और हफ्ते में सिर्फ एक ही दिन अपने घर जा पाते हैं। हफ्ते भर का राशन वो अपनी साइकिल में बांध के ले आते हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि उनकी तनख्वाह भी रेगुलर नहीं थी, दिहाड़ी में काम करते थे वो। मेरा गुस्सा काफूर हो गया, यह जानकर कि जो खुद दो जून की रोटी सही से नहीं खा रहे, वो भला हमें क्या खिला पायेंगे। अलबत्ता, जितना मिला, उतने में ही खुश हो लिए ... हम फ़िक्र में धुआं उड़ाते चल दिये.

बिनसर से कौसानी के लिए निकले। बड़े होने के बाद कौसानी जाने का बड़ा मन करता था, हाँ! बताती हूँ क्यों? बचपन से ये कहानी-किस्सागो लगता था। मेरी मम्मी बहुत कम उम्र (करीब 25 साल की)  में ही कौसानी बॉयज स्कूल की वाईस-प्रिंसिपल बन गयी थी। बहुत कठिनाई से अपने जीवन की शुरुआत की थी उन्होंने, स्वयं के अलावा परिवार के भरणपोषण का एक बड़ा जिम्मा उठाने लगी थीं वो। वो बताती हैं कि वहां के प्रिंसिपल साहब ने उन्हें कार्यभार सुपुर्द करते समय बड़े पापड़ बेलवाये थे। बहरहाल, बिनसर से कौसानी करीब 65 km है और हम लोग वहां शाम को पहुंचे। हम वहां एक तथाकथित बड़े  से होटल में रुके। यहाँ यह जरूर बता दूं कि करीब 50-60 कमरों वाले इस होटल में एक दक्षिण भारतीय कुनबे के अलावा एक परिंदा भी पर नहीं मार रहा था। चलो, एक हम भी पहुँच गए। एक से भले दो। कहीं ये जरूर कहूँगी कि ऊँची दुकान, फीके पकवान। आज मुझे ये बात पढ़ के अजीब लगती है कि केदारनाथ के पीड़ितों को पांच सौ रुपये में एक कटोरी चावला (भात), दो सौ में बिस्कुट  दे रहे हैं। हमने भी कमोबेश ऐसा ही देखा, खाने की गुणवत्ता के हिसाब से कीमतें आकाश छू रहीं थीं, पर मरता क्या न करता, जो मिला वो खा लिया। वहां की व्यवस्थाएं देख कर वहां रुकने का ज्यादा मन नहीं किया, सो उठाया बोरा-बिस्तर और चल दिए, अपनी भूमि अल्मोडा की ओर। अल्मोड़ा और कौसानी के बीच करीब 45 km का लम्बा सफ़र था। इस बार हमने मन बना लिया था कि वहां के लोगों के बीच बैठे सफ़र का आनंद उठाएंगे, सो एक सूमो में बैठ लिए।
पैसा कमाने के चक्कर में उस गाड़ीवाले ने अपने अन्दर के इंसान को जिन्दा रखा था। जितनी सीटें थीं, उतने ही यात्री , कुछ भी फालतू नहीं। गाड़ी के अन्दर जानवरों की तरह उसने यात्रियों को भर नहीं रखा था।  उसकी बातें सुन के लग रहा था, कि उसकी एक और गाड़ी थी, जिसे ड्राईवर चुरा के ले गया था और वह खुद उस गाड़ी का मालिक था। परेशान लग रहा था वह। गाड़ी चलने ही वाली थी और एक पंडित जी ने नयी यात्रा शुरू करने से पहले उन्होंने गाड़ी के सभी यात्रियों को पिठिया ( रोली) से भरी थाली दी, और सबने पिठिया लगा लिया। कोई लालच नहीं, कोई लोभ नहीं। ड्राईवर ने पूजा की थाली में 10 रुपये रखे और यात्रा शुरु। वैसे आज के ज़माने में दस रुपये में क्या होता है. इसे कहतें हैं, संतोषं परमं सुखं। न कोई मोल-मोलाई न उनसे श्रापे जाने का कोई भय, बस लाल और पीले चंदन चंदन से सजे अपने सुन्दर माथे को लेकर हम आगे के लिए निकल पड़े। हम बीच की सीट पर बैठे थे, और आगे ड्राईवर के अलावा 2  लोग थे, साथ में उनके थी एक नन्हीं-सी, प्यारी-सी बच्ची। मम्मी की गोद में चिपकी वो बच्ची पलट- पलट के पीछे देखे जा रही थी और कह रही थी बच्चे बैठें हैं पीछे। हमारी नानी थी वो... उसकी मम्मी ने ड्राईवर को बताया कि वो बीमार है और एक दिन पहले उसके चाचा ने अल्मोड़ा के डॉ गोसाई से मिलने का समय ले  रखा था। ऐसे तो वह देखने में ठीक ही लग रही थी पर विचारणीय बात यह थी कि हलके बुखार से पीड़ित उस बच्ची को देखने के लिए कौसानी में एक अच्छा डॉक्टर भी नहीं था। मालूम करने पर पता चला कि वहां के लोगों को हर बीमारी के इलाज़ के लिए अल्मोड़ा ही दौड़ना पड़ता है। कौसानी में इलाज़ के क्या साधन हैं, दवा-दारु की क्या व्यवस्था है, इसका अंदाज़ा लगाना मेरे लिए बड़ा ही कठिन था। दवा का तो पता  नहीं, पर दारु की अच्छी व्यवस्था का अंदाज़ा लगाया जा सकता था क्योंकि कौसानी टैक्सी स्टैंड में शाम को 5 बजे ही बेवडों की पलटन अच्छी खासी महसूस होने लगी थी …

हमारे बाबू (दादा जी) पहाड़ पर एक व्यंग हमेशा कहा करते थे,
 सदा शिकारम, भोजना दगाडम, बेय ब्याल पड गयीं, गदुआ का झाडम।

यह बात बड़ी कचोटने वाली यह थी कि दिल्ली में बैठ कर हम लोग, आज अपने आस-पास एम्स, फोर्टिस, मैक्स और अनगिनत हॉस्पिटल पाकर भी नुक्ताचीनी करते रहते हैं, पता नहीं वहां के लोग अपने इलाज के लिए किस भगवान का नाम लेते होंगे, किस देव की शरण में जाते होंगे ...

Friday, June 21, 2013

पहाड़ की डायरी

पहाड़ की डायरी

यूँ तो मन नहीं कर रहा है, बहुत ही विचलित कर देने वाली प्राकृतिक विपदा से मन कुम्हला गया है, दुःख से द्रवित है, पर अपनी मिटटी से जुड़े होने के कारण अपने विचार व्यक्त करना छोड़ भी नहीं सकती। आज से करीब एक महीने पूर्व ही मैं पहाड़ों (डानों) के दर्शन करके आई, पर ऐसा कुछ खास उमंग भरा कुछ भी नहीं रहा, कुछ स्थितियों के लिए तो हम खुद ही जिम्मेदार थे, और कुछ वहां की सामजिक, भॊगोलिक व्यवस्था देख के ह्रदय विदीर्ण-सा हुआ जा रहा था।

अल्मोड़ा से तो मेरा वैसा ही लगाव है, जैसा कृष्ण का वृन्दावन से. यह बहुत ही स्वाभाविक-सी बात थी, कि वहां तो मेरा जाना जरूर ही होता . पर कहानी शुरू होती है हल्द्वानी से, जहाँ से पहाड़ों की गुफाएं खुलती हैं। हल्द्वानी से बिनसर जाने का हमारा इरादा था और वन विभाग के एक गेस्ट हाउस में बुकिंग हो रखी थी। हल्द्वानी से अल्मोड़ा होते हुए हम बिनसर के लिये निकले थे। बेहद उत्साहित और अपनी धरती को छू लेने से ही अपने पहाडी होने का अहसास अविरल हिलोरे मार रहा था, कहीं भीतर। बिनसर में रेस्ट हाउस 0 पॉइंट में था, मतलब कि वहां 'न कोई बंदा, न बन्दे की जात'. देवदारों के सघन जंगलों से जाती हमारी गाड़ी और पृथ्वी से घर्षण करते गाड़ी से टायरों की आवाज़ से ही हमारा खून सूखे जा रहा था। भरे दिन के वक़्त रास्ते में अपनी साँसों की रफ़्तार और जंगलों से आती कीड़े-मकोड़ों की खुसफुसाहट मुझे क्या सोचने को मजबूर कर रही थी कि मैं आपको बता भी नहीं सकती। बिनसर से करीब 15  KM आगे जाकर ये रेस्ट हाउस था। वहां पहुँचने से  पहले नीचे ही हमसे कई प्रकार के टैक्स वसूल कर लिए गए। उस ऑफिस को देख कर ऐसा लगा कि सच में खज़ाना हाथ लग गया, और अब यहाँ खूब मजे करके जायेंगे। करीब दिन में 12 बजे हम वहां पहुंचे। गेस्ट हाउस काफी बड़ा था और हम लोग 5 लोग थे। 3  बड़े और 2 बच्चे। सबसे खूबसूरत और हैरान करने की बात यह थी की पूरा रेस्ट हाउस हमारे लिए बुक किया गया था। बिनसर जाते हुए कसारदेवी के पास हम चाय पीने के लिए रुके थे। चाय तो नहीं पी, पर कोल्ड ड्रिंक जरूर पी ली वहां एक नया विक्रय तरीका देख मुस्की काटे बिना नहीं रहा गया। कोल्ड ड्रिंक की नार्मल बोतल 10 रुपये की थी और बिक रही थी 12 में, जानते हैं क्यों? 2 रूपया फ्रिज में रखकर ठंडा करने के लिए। वहां के दुकानदार ने पूछा हमारे गंतव्य के बारे में, तो उन्होंने हिदयातन हमसे यह जरूर कह दिया कि अपने साथ खाने-पीने की सामग्री जरूर ले लेना, कुछ मैगी, ओट, और हलके-फुल्के खाने पीने की चीज़ें तो हम दिल्ली से ही ले के चले थे, पर फिर भी एहतियातन हमने ब्रेड, बटर, आलू, दूध  चाय पत्ती जैसी मौलिक चीज़ें अपने साथ ले लीं।
बिनसर गेस्ट हाउस पहुंचे और वहां की प्राकृतिक छटा देख के मन गदगद हो उठा। वहां के स्टाफ ने बड़े ही गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया और हमारा सामान कमरों में रखवा दिया। कई घंटो के सफ़र से थका हम सबका शरीर चाय का प्यासा था। वहां के स्टाफ कम खानसामे को हमने चाय का आर्डर दिया, गरम चाय माँगने के सबब में एक ठंडा-सा  उत्तर मिला, साहब! यहाँ तो सामान नहीं होता, आपको खुद ही लाना पड़ेगा। भारत सरकार के एक बेहद खूबसूरत से अतिथि-गृह में स्वागत की इस भव्यता से हम इतने आहत हो गए कि मन किया काश! पहाड़ों से  नीचे कूद पड़ने पर गर कुछ न होता तो सीधे वसंत कुंज में आ टपकती। करेला, ऊपर से नीम चढ़ा ....... उसी गेस्ट हाउस में पीछे की तरफ बैठे थे एक बुजुर्ग दंपत्ति। जो कहीं नीचे प्राइवेट रेस्ट हाउस में रह रहे थे और उन्होंने ऊपर सामान ला कर गेस्ट हाउस की रसोई में खाने का आर्डर दे रखा था। भगवान की कृपा और उस भलमानस दुकानदार की सूझ-बूझ थी की हमने दूध, चीनी, और चाय पत्ती उसी की दुकान से खरीद ली थी। हमने उन्हें चाय बनाने का आर्डर दिया और साथ ही खाने के बारे में भी एक काल्पनिक मेनू पूछना चाहा। उन्होंने बताया कि यहाँ 0 पॉइंट में यात्रियों को रहने के लिए इस रैनबसेरे के अलावा और कुछ नहीं मिलता। न खाना, न चाय और न ही कुछ। उसने हमें सलाह दी कि 15 km पहले जो जगह है वहां से  1-2 दिन का रसद लाया जा सकता है। पर हमने हल्द्वानी से बुक की हुई गाड़ी वापस लौटा दी थी। तो अब करें भी तो क्या करें? हमने अपने बैग से खाने की जितनी भी सामग्री थी, बाहर निकाली और उन्हें बनाने के लिए दे दी। मैगी बनी, चाय बनी, ब्रेड गरम हुए और हमने प्याज़ टमाटर और नमकीन के साथ मिला कर उस सुस्वादु भोजन का आनंद लिया।

अब मेरे मन में सवाल उठता है कि कई हज़ार रुपये खर्च करने के बाद क्या हम ऐसे आतिथ्य के भागी थे। जब बुकिंग की गयी थी, तब ही साफ़-साफ़ शब्दों में क्यों नहीं बतलाया गया कि  खाने का कोई प्रबंध नहीं होगा, अपने जिन्दा रहने की सामग्री स्वयं ले के आयें।  हमारी भारतीय संस्कृति तो कहती है 'अतिथि देवो भव', और कलयुग में आज भी पतन के गर्तों में समाये हम मानव अपने अतिथियों से उनके जीने के सामान के आकांक्षी नहीं होते।
ऐसे समय में यही कहावत याद आती है,

रूखा-सूखा खाय के ठंडा पानी पी,
देख परायी चूपड़ी, मत ललचायें जी .....

जी के ललचने का तो सवाल ही नहीं होता पर रुखा-सूखा भी हाथ नहीं लगा। सरकारी सुविधाएं नाम की ही होती हैं, जब मौसम खुशगवार था, तब सरकारी रवैय्या कितना बेपरवाह था, आज वहां लोगों का क्या हाल होगा ये सोच के ही शब्द मौन हो गयें हैं।

शेष आगे .....       

Sunday, March 17, 2013

holi.....

किन्ने गुलाल मोहे मारी, भिगोई मेरी साडी,
खड़ी हूँ मैं तो ब्रज की नारी
मारो गुलाल पिचकारी, सर ररर सारी कि आये मेरे अवध बिहारी
 
हाथ में अबीर लिए राधा जी बुलाये,
पास में कन्हय्या देखो अभी नहीं जायें,
देखे ये नगरी खड़ी सारी,
भर के पिचकारी,
माधव मेरे खड़े इतराए .....

चुपके-चुपके कान्हा इत-उत जाएँ,
खड़े ओटन पर मंद मुस्काएं,
मारी गुलेल चुप आरी,
मटकी फोड़ी हाँ री,
फिरूं जी मैं तो हारी  हारी  ....

भरे हुए थाल में, रंगों  को सजाकर,
निकली जो राधिका, देखे करुणाकर
मुरली बजाएं अति न्यारी,
बुलाएं वो अपनी दुलारी,
छिडके रंग वो तो सारे,
सर, रर ररर हाँ रे
ओं होली में खेले हमरे दुलारे ........     

Thursday, March 7, 2013

विरह

विरह

वो था मधुमास,
जीवन में था केवल हास,
और तुम एक भ्रमर थे
उन्मुक्त उड़के तुम कभी चले आते थे
अन्यथा अपने छत्ते में ही पड़े रहते थे तुम तो

ये पता था मुझको कि
तुम्हारा एक ही ठिकाना
चाहा था कभी मैंने भी
जीवन तुम संग बिताना
क्योंकि ये पता तुमको तो था
कि कब खिलूंगी और कब मुरझाऊंगी में जीवन में कब
पर मैंने चुना तुमसे कहीं दूर जा,
खुद को बसाना।

प्रेम की हर पात मैंने नोच डाली,
छोड़ कर गिर गयी उस पौध से,
जिसके तुम थे माली,
अब भी अकस्मात् याद आते हो तुम
परागों में यदा और कभी भरेपूरे उपवन देख कर
संतुष्ट होती हूँ मैं कोसों दूर हूँ अपने नयन भर

ये नहीं तुमको बता सकती
कि मैंने विरह को क्यों चुना
आग में तपकर, भसम कर
अपना मन मैंने क्यों भुना ?
चाहते हो जानो कि, मेरे उस
संकल्प का क्या था प्रयोजन
हर घडी जो साथ थी मैं तो क्यों वियोजन?

प्रेम से वशीभूत होकर
सब हैं जुड़ते,
एक दूजे के साथ रहते, साथ चलते
हाथ में डाले हाथ, कुछ कहते, कह्कहाते,
पर अगर मैंने विरह को चुन लिया,
तो ओ मेरे प्रिय, मैंने कुछ नया नहीं किया,
स्वर्ण गर आग में तप जाए
तो निखर जाता है बंधु,
लौ में जल कर हर पतंगा
प्यार पता है अद्भुत
प्रीत के बदले मैंने
विरह को वर लिया 
प्रेम तुमसे प्रतिपल
मैंने उतना किया,
जैसे एक चकोर देखे चाँद को,
रोशनी बसती रहे हमारी आँख में,
ऐसी एक प्रीत मैंने भी तुमसे करी,
साथ चलने की न जिसमे कोई शर्त रखी ....         


  

Wednesday, March 6, 2013

भाभी

भाभी

हाँ तुम वही हो
जिसके ख्वाब मैं देखती थी,
तुम्हारे आने के सबब से
कुछ पल मैं मचलती थी।

बचपन में सोचा करती थी,
कि तुम कैसी होगी सुन्दर या मद्धम,
कोमल या, मलखंम-सी,
पर उस रोज जब देखा तुम्हें,
लगा यूँ जैसे तुम कहीं वही तो नहीं।

थोड़ी पगली, थोड़ी नादान,
अपने में ही डूबी ऐसी इंसान,
कुछ-कुछ मेरी सी,
कुछ बोझिल, थोड़ी मनचली
पर ऐ लड़की तुम हो भली।

प्यार तुमसे मैंने बहुत पाया,
औ' अपना सार प्यार लुटाया,
सोचा ना था, कोई इतनी तवज्जो देगा,
हर दिन मुझको याद करेगा,
हाँ तुम हो, तुम्हीं हो वो कदरदान,
जो सचमुच मेरा है, सिर्फ मेरा कहने लायक,
भाभी,  तुम हो मेरे सपनों सी निकली,
एक रोचक, अनबुझ-सी पहेली,
भय्या के साथ जुड़े तो भाभी,
अन्यथा मेरी एक साथी-एक सहेली,
एक प्यार भरा रिश्ता मेरा,
हर दम जुडा रहे तुमसे यूँ ही ...

Sunday, March 3, 2013

प्रतिमान

प्रतिमान 

इस बियाबान में आधे-अधूरे सपनों सपनों के बीच,
झुरमुटों के झरोखों से तुम्हें देखती हूँ मैं,
और फिर चुपचाप औंधे मुंह पलट जाती हूँ
जैसे कभी तुम्हें देखा ही न हो।

लम्बे घने दरख्तों की छाँव में,
बाल फैलाये बैठ जाती हूँ, जाड़े के दिनों में
कि मैं भी किसी को अपनी घनी छाँव में आसरा दे सकूँ,
पर एक घोंसला भी नहीं बनाता कोई
ना ही उड़के क्षण भर को कोई ठहरता है
जैसे मेरी इस अलसायी सुनहरी भूरी पत्तियों से
किसी को सुवास आती ही न हो।

सूखे पुराने पत्तों के बीच जो रास्ता सजा है
वहां से आती घर्र-घर्र की आवाज़
छुनमुन घुंघुरुओं का आभास देती है,
लरजती शाख से गिरती ओंस की बूँदें
रुनझुन पायलों का प्रतिमान देती हैं
कोई नहीं है सुनने वाला इसे
न ही कोई पथिक, न ही कोई प्रेमी
न ही गुजरता है कोई पाखी वहां से
ये सुरमयी सुरों की श्रुतियाँ
मैं ही चुपचाप सुनकर दिन प्रतिदिन भूल जाती हूँ।

घनघोर वटवृक्षों सी खड़ी समय की ये लम्बी चादर,
ढांप देती है पुराने हर नए मेरे ये किस्से प्रतिदिन,
उघाडूं कब कहाँ किसके समक्ष ये मेरे हिस्से नये दिन
कोई नहीं है दूर तक आता, न ही जाता परस्पर
भरी उन्माद में बैठी हूँ मैं एक आस लिए भर
कि आये कोई एक दिन, एक नयी पहचान लेकर
ताकूँ अल-सुबह रस्ते से मैं बैठूं फिर रूप नया धर,
बेवजह हंस दूं, या कुछ भी गुनगुना दूं
मृगमयी सी बन झूमती फिरूं इस सघन वन में
पदचाप सुन मैं ठिटक बुत बन जाऊं जैसे
कि आया दूर चंद्रमा और मैं हूँ चकोर ऐसे
पर रात की काली स्याह सी ये लम्बी पगडंडी
डरा देती है हर दूर से आते हुए पथिक को

बियाबान यह घना जंगल है जीवन
जहाँ आता है हर कोई किसी के पास
 एक ख़ास ही प्रयोजन
न जाता है ये जंगल आदमी की भीड़ के बीच
न ही इसे महसूस होती है कोई सुगबुगाहट
खड़ा जंगल सा है ये घनघोर जीवन
जहाँ सब के अपने रास्ते है और कई गलियां-चोबारें
मतलब जहाँ से पड़े निकल जाता है रस्ता
हर मुसाफिर एक दीपक हाथ में रख चल-निकलता
पथभ्रमित नहीं होता है कोई भी एक यात्री
जीवन जी लेता है अकेले या कभी कोई एक साथी
पर हर दिन मेरे एक उच्छ्वास आ निकलती
इन झुरमुटों के बीच मुझे एक आस लगती
कि आये एक साथी, कोई प्रिय या सखा एक
अफ़सोस मैं स्वयं पथिक बन यहाँ अविराम चलती
जंगलों का अपनी यही गुमनाम जीवन
न दुःख में दुखी न सुख में सुखी
बस बढ़ निरंतन ...........     

  


  
 



 

Tuesday, February 5, 2013

बेसूरमा हो गयी थी वो .....


कहानी, किस्सागो सुनाने की मैं इतनी अभ्यस्त नहीं, फिर भी एक कहानी सुनाने का मन कर रहा है। 


बेसूरमा हो गयी थी वो .....


कई साल पहले सूरमा ने बोर्ड की परीक्षा दी थी और परिणाम का इंतज़ार कर रही थी। उसे पता था कि वो पास भी हो जाएगी और अच्छे अंकों से, पर थोड़ी डरी हुई भी थी कि पता नहीं स्थिर का क्या हाल होगा। छोटी-सी उम्र में उसे अपने से ज्यादा उसका ख्याल था। दोनों ही बड़े नामी-गिरामी स्कूल में पढ़ते थे। सूरमा को अपना तो पता था, पर स्थिर की पढाई की हालत की कोई खबर नहीं। ये जरूर देखा था, कि वो अपने दोस्तों के साथ नोट्स की अदला-बदली करता रहता था। उसके कई दोस्त आते थे, कभी कोई तो कभी कोई किसी न नाम उसने मेढक रखा तो किसी का नाम मुस्कान। सब कभी आँगन में बैठ जाते तो कभी छत पर चुहलबाज़ियाँ करते। सूरमा को ये सब अच्छा लगता था, कहीं लड़कपन में उसे अपने बढ़ने का बोध होता था। शीशे के सामने बालों के साथ खेलना उसे बेहद पसंद था। वो भी अपने आँगन में चारपाई लगा के बैठ जाती और केक्टस के गुलाबी फूलों से खिलवाड़ करती। कभी मिटटी को खोदती तो कभी पानी डालने के बहाने ही बाहर जाकर जूतों के निशान ताकती रहती। रिजल्ट के दिन नजदीक थे और उसकी उमंगों के भी। उसे एक अकल्पनीय राह की तलाश थी जिसके सपने वो सालों से देखती आ रही थी। आख़िरकार वो दिन भी आ गया जिसका उन सबको इंतज़ार था रिजल्ट आ गया और 'सूरमा और स्थिर' अच्छे अंकों से पास हो गए। सूरमा चाहती थी कि स्थिर को मुबारकबाद दे पर इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाई , इसलिए उसने गेट के सामने ही केक्टस के फूल दाल दिए।
नए स्कूल में दाखिले की मारामारी शुरू हो गयी। सूरमा का दाखिला आख़िरकार शहर से दूर एक वीरान-सी जगह में हो गया। बहुत खुश हो गयी सूरमा कि नए दोस्तों का साथ मिलेगा और नयी बातें होंगी। दोस्त बनाने में वो काफी पीछे थी पर दिल के किसी कोने में कहीं उसने किसी को एक ख़ास दोस्त का दर्ज़ा दे रखा था। ये बात अलग थी की कभी उससे कोई खास बात नहीं की थी, पर सोचती जरूर थी कि कभी वो भी उसी स्कूल में आएगा। एडमिशन के सारे कलाप पूरे हो चुके थे और नए सफ़र की ओर बढ़ने की बारी थी, उसे लगा की स्थिर साथ चलेगा पर उसने तो बिना बताये ही अपनी एक नयी राह चुन ली। बहुत दिल टूटा सूरमा का, लगा कि साथ चलने के सारे सपने टूट गए, मिटटी में मिल गए, बिखर गयी वो। अभी तो दिल कांच का ही था, थोडा-सा क्रैक आ गया उस पर। उन टूटे कांचों में भी 'हीर' सी बनी वो नादान अपना ही अक्स देख रही थी, उसे क्या खबर थी की इसका मतलब क्या निकलेगा। अभी तो बातों का, या यूँ कहें की नज़रों से रूबरू होने का सिलसिला शुरू भी नहीं हुआ था कि राह ही अलग हो गयी। अब बेमन से ही स्कूल जाने लगी थी सूरमा, कुछ ख़ास मन नहीं लग रहा था उसका वहां क्योंकि जिसके साथ कदम-दर-कदम जाने की सोची थी, वो तो पीठ पीछे न जाने किसी और ही रास्ते जा चुका था, नहीं दिखने के लिए। अचानक एक दिन उसने एक ख़त भेजा अपने घर पर, जहाँ उसने अपनी कुशलवाद भेजी थी और अपने नए कार्यकलापों का वर्णन किया था, उसना बताया कि वो जब आएगा तो 'खलनायक' बन के धूम मचा देगा। थोड़ी तस्सली हुई उसे क्योंकि उसने सभी का हाल पूछा था कहीं चिट्ठी के किसी कोने में उसका भी, उसे लगा कि वो भी कहीं एक्नोलेज हुई है।
एक दिन केमिस्ट्री की क्लास कर वो बाहर ही निकल ही रही थी, कि ये साहब अपने दोस्तों के साथ टोली बना के घूमते दिखे। आज तो लगा कि जैसे बगीचे के सारे फूल खिल गयें हैं और उसके चेहरे पर भी एक प्यारी-सी मुस्कान आ गयी है। अब सूरमा को हर रोज स्कूल जाना अच्छा लग रहा था और अब तो अपनी प्यारी-सी छोटी चोटी में वो लेस भी बांधने लग गयी थी, जिससे लेस की चमक सीधे उसके चेहरे पर पड़े और और उसका चेहरा भी चमकने लगे। पता नहीं कब दिन गुजर गए और स्थिर भी रफूचक्कर हो गया। चेहरा सुजा के सूरमा स्कूल बस में बैठी और और अनमने ढंग से क्लास में घुस गयी, उसने कभी किसी को इन अधूरी चाहतों का किस्सा नहीं बताया न ही शेयर किया। लगा कि जब कहानी बन जाएगी तो फ़साना सुनाई देगा। अब सूरमा लिखने लगी थी, तारों से बातें करने लगी थी, पन्नों को अपनी दास्ताँ सुना के खुद को तसल्ली दे देती। डूब गयी थी किसी कोने में वो उस मीठे अहसास की डुबकियां लगा के।

दशहरे के मेले में कई दोस्त फिर से जुट गए और सूरमा भी सब के साथ हो ली। अचानक स्थिर ने एक अनाउंसमेंट करवा दी की एकं लड़की इस भीड़ में खो गयी है, जिसका नाम सूरमा है ,जिसने सफ़ेद रंग की स्कर्ट और लाल रंग का टॉप पहना हुआ है, जिसे इसके बारे में पता चले तो कृपया बॉक्स में आकर सूचित कर दे। सूरमा को ख्याल आया कि उसने ही तो वो ड्रेस पहनी है, गुस्सा होने के बदले वो तो ख़ुशी के मारे झूमने लगी कि चलो आखिरकार उसके होने का अहसास तो है उसे। किसी भी तरह वो अपने वजूद का एहसास दिलाने के लिए बेताब थी। पढाई का तो पता नहीं, पर यौवन के सालों में सूरमा को लगने लगा कि वो बदरंग होने लगी थी, उसका चेहरा मुरझाया रहता था, उसके दोस्त भी पूछते थे कि वो क्यों चुप-सी मुरझाई, सकुचाई रहती है, पर उसके पास कोई जवाब नहीं थे, लोगों के सवालों के। कभी खुश हो जाती दोस्तों के किसी हंसी-ठठाकों के बीच अन्यथा लाजवंती की तरह सर झुकाए रहती।

साल ख़तम होने को था और सूरमा का संयम उसका मौन चरम पर था। उसने सोच लिया था इस बार वह स्थिर को बता के रहेगी कि वो उसे बचपन से ही बेहद पसंद करती है। जाड़े की छुट्टियां शुरू होने ही वाली थी और स्थिर भी घर आने वाला था। सूरमा का प्रोग्राम सारा सेट था इस बार पीछे नहीं हटने वाली वाली थी वो। नए साल के पिकनिक के लिए दोनों दोस्तों से साथ बाहर घूमने के लिए गए और कॉफ़ी-शॉप में कॉफ़ी आर्डर की थी, अचानक एक लड़की वहां आकर सबके बीच बैठ गयी, उसका नाम था शीतल। बेहद ही बिंदास, हंसमुख पर सूरमा की अपेक्षा कमतर सुन्दर और सभ्य। स्कूल के किस्से, बचपन की नादानियों के मांझे कभी कोई उडाता तो कभी कोई और काट डालता। शाम हो गयी और सभी बछड़ों की तरह अपनी माँ के आँचल में वापस जाने की तैयारी करने लगे। सूरमा और स्थिर को तो साथ ही आना था क्योंकि दोनों पास ही रहते थे और सूरमा को स्थिर के नाम पर ही बाहर जाने की इजाजत मिली थी। घर थोड़ी-ही दूरी पर था, और स्थिर ने सूरमा का हाथ थाम लिया और बड़े ही भरोसे के साथ एक बात कहने की हिम्मत जुटाई। सहमी, घबरायी और बेबस सूरमा ने बस अपनी सांसें संभाल रखी थी, उस ख़ास बात को सुनने के लिए। स्थिर ने कहा वो शीतल है, मैं उसे बहुत पसंद करता हूँ और उसी के साथ स्कूल में पढता हूँ। फक्क पढ गया चेहरा सूरमा का, उसकी आँखों में बसा स्थिर का चेहरा स्थिर ने पढ़ गया और सुन्न हो गया वो भी। बेसूरमा हो गयी वो और भाग के घर में घुस गयी सूरमा और पापा के सीने में चिपटकर फफकने लगी, ' पापा, मैं हार गयी, हार गयी, मेरा नाम ही गलत साबित हो गया, मेरी आँखों से ही कोई और सूरमा चुरा ले गया और कुछ न कर सकी मैं। बहुत देर कर दी थी सूरमा ने बताने में किसी को अपना हाल, पर समझ गए थे पापा, बड़ी होने लगी है उनकी बेटी, भरोसा टूटने पर संभल ही जाएगी धीरे-धीरे ......
सच में खलनायकी कर गया स्थिर, अब कोई सूरमा किसी को दिल नहीं दे पायेगी, स्थिर हो जाएगी अपने सपनों में , खो भी नहीं पायेगी जूतें के निशान ढूँढने और तारों के बीच अफसाने बनाने मे ...
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बेसूरमा हो गयी थी वो .....

कहानी, किस्सागो सुनाने की मैं  इतनी अभ्यस्त नहीं, फिर भी एक कहानी सुनाने का मन कर रहा है। 

बेसूरमा हो गयी थी वो .....

कई साल पहले सूरमा ने बोर्ड की परीक्षा दी थी और परिणाम का इंतज़ार कर रही थी। उसे पता था कि वो पास भी हो जाएगी और अच्छे अंकों से, पर थोड़ी डरी हुई भी थी कि पता नहीं स्थिर का क्या हाल होगा। छोटी-सी उम्र में उसे अपने से ज्यादा उसका ख्याल था। दोनों ही बड़े नामी-गिरामी स्कूल में पढ़ते थे। सूरमा को अपना तो पता था, पर स्थिर की पढाई की हालत की कोई खबर नहीं। ये जरूर देखा था, कि  वो अपने दोस्तों के साथ नोट्स की अदला-बदली करता रहता था। उसके कई दोस्त आते थे, कभी कोई तो कभी कोई किसी न नाम उसने मेढक रखा तो किसी का नाम मुस्कान। सब कभी आँगन में बैठ जाते तो कभी छत पर चुहलबाज़ियाँ करते। सूरमा को ये सब अच्छा लगता था, कहीं लड़कपन में उसे अपने बढ़ने का बोध होता था। शीशे के सामने  बालों के साथ खेलना उसे बेहद पसंद था। वो भी अपने आँगन में चारपाई लगा के बैठ जाती और केक्टस के गुलाबी फूलों से खिलवाड़ करती। कभी मिटटी को खोदती तो कभी पानी डालने के बहाने ही बाहर जाकर जूतों के निशान ताकती रहती। रिजल्ट के दिन नजदीक थे और उसकी उमंगों के भी। उसे एक अकल्पनीय राह की तलाश थी जिसके सपने वो सालों से देखती आ रही थी। आख़िरकार वो दिन भी आ गया जिसका उन सबको इंतज़ार था रिजल्ट आ गया और 'सूरमा और स्थिर'  अच्छे अंकों से पास हो गए। सूरमा चाहती थी कि  स्थिर को मुबारकबाद दे  पर इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाई , इसलिए उसने गेट के सामने ही केक्टस के फूल दाल दिए।
 नए स्कूल में दाखिले की मारामारी शुरू हो गयी। सूरमा का दाखिला आख़िरकार शहर से दूर एक वीरान-सी जगह में हो गया। बहुत खुश हो गयी सूरमा कि नए दोस्तों का साथ मिलेगा और नयी बातें होंगी। दोस्त बनाने में वो काफी पीछे थी पर दिल के किसी कोने में कहीं उसने किसी को एक ख़ास दोस्त का दर्ज़ा दे रखा था। ये बात अलग थी की कभी उससे कोई खास बात नहीं की थी, पर सोचती  जरूर थी कि कभी वो भी उसी स्कूल में आएगा। एडमिशन के सारे कलाप पूरे हो चुके थे और नए सफ़र की ओर बढ़ने की बारी थी, उसे लगा की स्थिर साथ चलेगा पर उसने तो बिना बताये ही अपनी एक नयी राह चुन ली। बहुत दिल टूटा सूरमा का,  लगा कि साथ चलने के सारे सपने टूट गए, मिटटी में मिल गए, बिखर गयी वो। अभी तो दिल कांच का ही था, थोडा-सा क्रैक आ गया उस पर।  उन टूटे कांचों में भी 'हीर'   सी बनी वो नादान अपना ही अक्स देख रही थी, उसे क्या खबर थी की इसका मतलब क्या निकलेगा। अभी तो बातों का, या यूँ कहें की नज़रों से रूबरू होने का सिलसिला शुरू भी नहीं हुआ था कि राह ही अलग हो गयी। अब बेमन से ही  स्कूल जाने लगी थी  सूरमा, कुछ ख़ास मन नहीं लग रहा था उसका वहां क्योंकि जिसके साथ कदम-दर-कदम जाने की सोची थी, वो तो पीठ पीछे न जाने किसी और ही रास्ते जा चुका था, नहीं दिखने के लिए। अचानक एक दिन उसने एक ख़त भेजा अपने घर पर, जहाँ उसने अपनी कुशलवाद भेजी थी और अपने  नए कार्यकलापों का वर्णन किया था, उसना बताया कि वो जब आएगा तो 'खलनायक' बन के धूम मचा देगा। थोड़ी तस्सली हुई उसे क्योंकि उसने सभी का हाल पूछा था कहीं चिट्ठी के किसी कोने में उसका भी, उसे लगा कि वो भी कहीं एक्नोलेज हुई है।
    एक दिन  केमिस्ट्री की क्लास कर वो बाहर ही निकल ही रही थी, कि ये साहब अपने दोस्तों के साथ टोली बना के घूमते दिखे। आज तो लगा कि जैसे बगीचे के सारे फूल खिल गयें हैं और उसके चेहरे पर भी एक प्यारी-सी मुस्कान आ गयी है। अब सूरमा को हर रोज स्कूल जाना अच्छा  लग रहा था और अब तो अपनी प्यारी-सी छोटी चोटी में वो लेस भी बांधने लग गयी थी, जिससे लेस की चमक सीधे उसके चेहरे पर पड़े और और उसका चेहरा भी चमकने लगे।  पता नहीं कब दिन गुजर गए और स्थिर भी रफूचक्कर हो गया।  चेहरा सुजा के सूरमा स्कूल बस में बैठी और और अनमने ढंग से क्लास में घुस गयी, उसने कभी किसी को इन अधूरी चाहतों का किस्सा नहीं बताया न ही शेयर किया। लगा कि जब कहानी बन जाएगी तो फ़साना सुनाई देगा। अब सूरमा लिखने लगी थी, तारों से बातें करने लगी थी, पन्नों को अपनी दास्ताँ सुना के खुद को तसल्ली दे देती। डूब गयी थी किसी कोने में वो उस मीठे अहसास की डुबकियां लगा के।

दशहरे के मेले में कई दोस्त फिर से जुट गए और सूरमा भी सब के साथ हो ली। अचानक स्थिर ने एक अनाउंसमेंट करवा दी की एकं लड़की इस भीड़ में खो गयी है, जिसका नाम सूरमा है ,जिसने सफ़ेद रंग की स्कर्ट और लाल रंग का टॉप पहना हुआ है, जिसे इसके बारे में पता चले तो कृपया बॉक्स में आकर सूचित कर दे। सूरमा को ख्याल आया कि उसने ही तो वो ड्रेस पहनी है, गुस्सा होने के बदले वो तो ख़ुशी के मारे झूमने लगी कि चलो आखिरकार उसके होने का अहसास तो है उसे।  किसी भी तरह वो अपने वजूद का एहसास दिलाने के लिए बेताब थी। पढाई का तो पता नहीं, पर यौवन के सालों में सूरमा को लगने लगा कि वो बदरंग होने लगी थी, उसका चेहरा मुरझाया रहता था, उसके दोस्त भी पूछते थे कि वो क्यों चुप-सी मुरझाई, सकुचाई रहती है, पर उसके पास कोई जवाब नहीं थे, लोगों के सवालों के। कभी खुश हो जाती दोस्तों के किसी हंसी-ठठाकों के बीच अन्यथा लाजवंती की तरह सर झुकाए रहती।  

साल ख़तम होने को था और सूरमा का संयम उसका मौन चरम पर था। उसने सोच लिया था इस बार वह स्थिर को बता के रहेगी कि वो उसे बचपन से ही बेहद पसंद करती है। जाड़े की छुट्टियां शुरू होने ही वाली थी और स्थिर भी घर आने वाला था। सूरमा का प्रोग्राम सारा सेट था इस बार पीछे नहीं हटने वाली वाली थी वो। नए साल के पिकनिक के लिए दोनों दोस्तों से साथ बाहर घूमने के लिए गए और कॉफ़ी-शॉप में कॉफ़ी आर्डर की थी, अचानक एक लड़की वहां आकर सबके बीच बैठ गयी, उसका नाम था शीतल। बेहद ही बिंदास, हंसमुख पर सूरमा की अपेक्षा कमतर सुन्दर और सभ्य। स्कूल के किस्से, बचपन की नादानियों के मांझे कभी कोई उडाता तो कभी कोई और काट डालता। शाम हो गयी और सभी बछड़ों की तरह अपनी माँ के आँचल में वापस जाने की तैयारी करने लगे। सूरमा और स्थिर को तो साथ ही आना था क्योंकि दोनों पास ही रहते थे और सूरमा को स्थिर के नाम पर ही बाहर जाने की इजाजत मिली थी। घर थोड़ी-ही दूरी पर था, और स्थिर ने सूरमा का हाथ थाम लिया और बड़े ही भरोसे के साथ एक बात कहने की हिम्मत जुटाई। सहमी, घबरायी और बेबस सूरमा ने बस अपनी सांसें संभाल रखी थी, उस ख़ास बात को सुनने  के लिए। स्थिर ने कहा वो शीतल है, मैं उसे बहुत पसंद करता हूँ और उसी के साथ स्कूल में पढता हूँ। फक्क पढ गया चेहरा सूरमा का, उसकी आँखों में बसा स्थिर का चेहरा स्थिर ने पढ़ गया और सुन्न हो गया वो भी। बेसूरमा हो गयी वो और भाग के घर में घुस गयी सूरमा  और पापा के सीने में चिपटकर फफकने लगी, ' पापा, मैं हार गयी,  हार गयी, मेरा नाम ही गलत साबित हो गया, मेरी आँखों से ही कोई और सूरमा चुरा ले गया और कुछ न कर सकी मैं।  बहुत देर कर दी थी  सूरमा ने बताने में किसी को अपना हाल, पर समझ गए थे पापा, बड़ी होने लगी है उनकी बेटी, भरोसा टूटने पर संभल ही जाएगी धीरे-धीरे ......
 सच में खलनायकी कर गया स्थिर, अब कोई सूरमा किसी को  दिल नहीं दे  पायेगी, स्थिर हो जाएगी अपने  सपनों में , खो भी नहीं पायेगी जूतें के निशान ढूँढने और तारों  के बीच अफसाने बनाने मे ... 

Tuesday, January 29, 2013

शाहरुख़, शाहरुख़ और सिर्फ शाहरुख़!!!

शाहरुख़, शाहरुख़ और सिर्फ शाहरुख़!!!
मैं ये बात हमेशा खुलेआम कहतीं हूँ कि शाहरुख़ जैसा कोई नहीं। जो लोग शाहरुख़ को कम्युनल बताते हैं, उन्हें अपनी  इस  कारगुजारी पर शर्मिंदा होना चाहिए। शाहरुख़ एक बेहद तमीजदार और हंसमुख स्वभाव के व्यक्ति हैं। हाल ही के घटनाक्रमों में पाकिस्तान ने उनके साथ जरूरत से ज्यादा सेंसिटिविटी दिखाने का ढोंग किया है, पर इस देश को पहले अपने गिरबान में झांकना चाहिए। ये जितने भी लोग वहां गरीबी और गैर भारतीयता (Anti-Indian) के चक्कर में पड़कर आतंकवादी बनते हैं, उन्हें पहले बसाने की कोशिश  करनी चाहिए। जिस देश में आये दिन मार-काट होती रहती है, वो शाहरुख़ को  क्या सुरक्षा प्रदान करेगा? हमारे इस अभिनेता को एक आम नागरिक की तरह अपने विचार रखने का हक है। अगर उनके इस बयान की इतनी ही नुक्ताचीनी करनी है तो समाजवादी आज़म को कट्टर इस्लामी विचारधारा वाले लोग क्यों नहीं पकड़ते, जो ताजमहल को गिराने के लिए उन्मादी भीड़ का सरदार बनने की ख्वाहिश रखतें हैं। ताज और शाहरुख़ दो अलग-अलग चीज़ें हैं पर दोनों रोमांस का आइना है। गौरी से ब्याह करके शाहरुख़ ने अपनी खुली मानसिकता का परिचय दिया और वो अन्य अभिनेताओं की तरह नहीं हैं जो 2-3 ब्याह रचते हैं, वे एक पत्नी परिवार के पक्षधर हैं और अपनी पत्नी को ससम्मान रखतें भी हैं। इस्लाम का निर्वहन करते हुए भी उन्होंने कभी इसकी छूट का फायदा नहीं उठाया। ये उनका USP है। किसी भी व्यक्ति के जीवन में बिन बुलाये मेहमान की तरह कई मुश्किलें आ सकतीं हैं और अगर उन्होंने अपनी इस मुश्किलों का जिक्र भी किया तो क्या बुरा किया, वैसे किसी ने सही ही कहा है" बात निकलेगी तो दूर तलक़ जाएगी". शब्दों के चक्कर में पड़कर भावनाओं का फालूदा बनाने में समझदारी नहीं है।
  

Wednesday, January 16, 2013

स्वर्ग का सफ़र

स्वर्ग का सफ़र

बहुत दिनों से सोच रही  थी कि एक लम्बे सफ़र पर निकलूँ,  बहुत सोचा कि कहाँ कि यात्रा की जाये, कोई ख़ास जगह दिमाग में नहीं आ रही थी, तो सोचा स्वर्ग का सफ़र क्यों न कर आऊँ! ज्यादा खर्चा भी नहीं होगा, और मनपसंद लोगों से मुलाक़ात भी हो जाएगी। आँखें भी बंद नहीं की मैंने और सफ़र की शुरुआत भी हो गयी। मजे की बात यह रही कि पूरे सफ़र में मुझे कहीं चलना भी नही पड़ा, बस इधर से उधर घूम लिए।

 मुझे मॉरिशस के नाम पर कुछ हमेशा से ही हो जाता था, तो पहले यही से यात्रा शुरू की। नीला पानी कितना रोमांटिक होता है, मदहोश कर देने वाला। अरे वहां पहुँच के लम्बे-लम्बे पाइन के पेड देखे, बस मन किया कि इन पर चढ़ जाऊं और फिर कहीं खजूर की तरह अटक जाऊं, पर भाई लम्बी यात्रा पर निकली थी, तो अटकना संभव नहीं था, तो पेड पकड़कर थोड़ी देर चक्कर काटती रही, थोडा-थोडा mary go round की तरह। आम जिंदगी में भी मैं जहाँ कभी सुन-सांन जगह देखती हूँ तो, बड़े से पेड का मोटा तन पकड़कर झट से एक चक्कर काट ही लेती हूँ, बड़ा मजा आता है। घूमती रही और कुछ पुराने गीत गुनगुनाती रही, कसम से बड़ा मजा आया, शायद आप  भी समय निकल कर ऐसा जरूर करते होंगे।पहले जब मैं छोटी थी और रस्ते में जाते किसी लड़के को गाने गाते हुए देखती थी तो बड़ा गुस्सा आता, कि कितना निर्लज्ज है, शर्म भी नहीं आती इसे, पर किसी एक दिन एक्सपेरिमेंटल मैंने भी एक रास्ता गाते हुए तय किया, तब से अनायास ही गानों के बोल फूटने लगते हैं मुंह से । नीला पानी और छप-छप  न करू ऐसा हो ही नहीं सकता, पेंट के पोंचे ऊपर किये और पैरों को गीला होने की आज़ादी दे दी। मॉरिशस में बहुत सारे भारतीय रहते हैं इतना पता था अलग-अलग बोली बोलने वाला भारतीय, बस उन्हें गले लगा कर मिलती रही और उनकी ख़ैर-ख्वाह पूछती रही, ज्यादा तो भोजपुरी बोलनी नहीं आती बस फिर भी जितनी 'नीर' से सीखी थी उतनी तो बोली थी, का हो भय्या कैसन बनी, अपन सुनाईं, वगैरह-वगैरह। एक pickle ग्रुप था उनसे अपने पति का एक पसंदीदा गाना सुना' कहे के तो सब कोई आपन, आपन कहावे बाल को बा। सुनके आँखें भर आई। थोडा गाया, हुडदंगी की और आगे रास्ता नाप लिया। वहां की मिट्टी में कुछ ख़ास बात थी पर आगे भी दुनिया घूमनी थी।

अरे पैसे लगने नहीं थे, तो निकल पड़ी स्विट्ज़रलैंड देखने, कुकी बुआ और मन्ना से सुना था, कि नायाब प्रकृति है, उसे संभाल के भी तरीके से रखा गया है।  क्या बताऊँ बहन, लाल, गुलाबी, पीले पत्तों से पटा देश जैसे भगवान ने खुद फोटो- शॉप किया हो, अरे आँखों को आराम नहीं, सोचूँ कि  बर्फ से ढका पहाड़ देखूं, पता नहीं इतने लम्बे आकार के लिए ऐसे मखमली रजाई कैसे बनायीं होगी, थोडा रजाई हटा के चेहरा देखने का मन किया और कहूं लूकू ....लूकी। छोटा प्रसन्न याद आ रहा था, जब उसके साथ मैं ये खेल खेलती थी।  थोड़ी स्की की, फिर गिरते-पड़ते बेस पे आ गयी। खाने को ज्यादा कुछ नहीं था मेरे लिए, शुद्ध शाकाहारी हूँ न, तो पेड़ों से सेव तोड लिए, खाते हुए रस्ते पे चल दी। आलिंगन करते पेड़ों को देख कर अकेले ही गाने लगी नीला आसमां सो गया। अमिताभ याद आ गए, काश मैं उनकी हीरोइन होती! उनकी आँखों में चुलबुलापन है। एक-दो घड़ियाँ खरीदीं वहां से, एक अपने पापा के लिए, क्योंकि उन्होंने ही मुझे मेरी पहली घडी दी थी सितम्बर 4, 1992 को जब वो धनबाद से एक इंस्पेक्शन से वापिस आये थे। आप सोच  रहे होंगे मैं फेंक रही हूँ, पर विश्वास कीजिये मैंने आज भी वो तारीख अपनी ख़ास डायरी/ नोट बुक  में नोट की है, यह नोट बुक वह थी जो प्रतियोगिता दर्पण में इयरली कैलेंडर के बतौर पाठकों को मिलती थी।  आज वो दिन था जब अपने पापा को मैं घड़ियों के देश से एक घडी ले  के दे रही थी, मुझे मिली थी टाइटन विस्टा, राउंड शेप, और मैं दे रही थी .... फर्क सिर्फ समय का था,   उन्होंने अपने सब बच्चों मैं सबसे पहली घडी मुझे खरीद के दी और मैंने आज कई साल बाद उन्हें। प्यार दोनों कलाइयों  में बंधा था। अपने घर के बच्चों प्रसी, हार्दिक, वासु, मिष्टी, कृष्णा, दिवा इन सब के लिए मैंने खूब सारी  चोकलेट ले ली और लम्बे से थैले में डाल ली।  दुनिया को मिल्क चोकलेट देने वाला पहला देश यही है और यहाँ दुनिया की सबसे बेहतरीन चोकलेट मिलतीं हैं तो अपने बच्चों के लिए ये तो ले जाना लाज़मी था।

ऐल्प्स की वादियों में बसा ये देश अपनी इम्ब्रोइडरी के लिए बहुत प्रसिद्ध है, सो खरीद ली 2 शाल मैंने वहां से, स्विट्ज़रलैंड भी भारत की तरह गांवों में बसता है, यहाँ किसानों को बड़े आराम से देखा जा सकता है, जैसे भारत के खेतों-खलिहानों में दंत कथाएँ कह के लोग अपना टाइम पास कर लेते हैं, वैसे ही यहाँ 'योडलिंग' करके दिन कटा जाता है। योडलिंग वह  है जो किशोर कुमार हमारे वहां के गानों में करते थे, Oh-di-lay-ee-ay, di-lay-dee-oh, de-lay-ee  मस्त गातें है स्विट्ज़ वासी। थोडा टाइम था और जाना बहुत दूर-दूर था, तो बस 1-2 उम्दा वाइन की बोतलें ले लीं अपने खास लोगों को गिफ्ट करने के लिए। आगे का रास्ता काफी लम्बा था तो ज्यादा सामान नहीं ढ़ो सकती थी। थैली समेटी और निकल पड़ी आगे के सफ़र पर।

एक और देश जो मुझे बेहद आकर्षित करता है वह है पुर्तगाल, ये वही देश है जिसने भारत सुदूर दक्षिण में राज किया था। गोवा में पुर्तगालियों का शासन रहा, वैसे तो मैं गोवा भी नहीं गयी हूँ पर मेरे दो दोस्त वहां के हैं खालिस गोअन। वे जब मेरे घर में आये थे, तो उनके हाथ से मेरे सिन्दूर का डिब्बा गिर गया था, उन्होंने उसे रंग का डिब्बा समझ लिया था, और खेद प्रकट करते हुए कहा था, सॉरी आपकी अलमारी में रखा लाल रंग का डिब्बा हमसे गिर गया, और हमने वो पाउडर उठा के कूड़ेदान में डाल दिया है, मैं हंस पड़ी कि ये लोग नादान हैं इस डिब्बे की कीमत इन्हें क्या मालूम ? बहरहाल स्विट्ज़रलैंड से दक्षिण की और मुड़ी तो पुर्तगाल पहुँच गयी। स्वास्थ्य, विकास के हिसाब से ये बड़ा ही विकसित और व्यवस्थित देश है। वहां पहुँच के मुझे लगा की मैं भारत की वास्को-डी-गामा  हूँ, इन साहब ने भारत के मसाले वर्षों पहले यूरोप के देशों में पहुंचाए थे और आज मैं वहां मसालेदार चाय पीने पहुँच गयी थी। NRI मसाले भी देख के जरूर खुश हो रहे होंगे कि चलो, किसी भारतीय के गले में जा रहे हैं।
बचपन में 1 राइम गाते थे
Vasco di gama, went on a drama.............. :) हा हा हा हा
जैसे की पहले  भी लिखा था कि मैं विशुद्ध शाकाहारी हूँ, पर मछलियाँ देख के रखने का शौक भी है सो यहाँ से और उम्दा जगह और क्या हो सकती थी ताज़ी मछलियाँ पकड़ने के लिए। कहतें हैं कि यहाँ 100 से भी ज्यादा प्रकार की फ्रेश वाटर मछलियाँ मिलती हैं। सो कुछ रख ली इना, मीना,टीना नाम की मच्छी लोगों को गिफ्ट करने के वास्ते एक्वेरियम में रखने के लिए ।  भूख भी तेज़ी से हिलोरे मार रही थी पेट के अन्दर पर समझ भी नहीं आ रहा था, यहाँ तो हर जगह बीफ, चिकन पोर्क यही मिल रहा था। राह चलते किसी सज्जन से मैंने पूछा तो उन्होंने मुझे कहा अरे आपको नहीं ,मालूम यहाँ की पेस्ट्रीज दुनिया की बेहतरीन होती है, फिर क्या था पहुँच गयी पेस्ट्री शॉप और अपने दांतों की परवाह किये बिना एक के बाद 2,3,4 हज़म कर गयी इन मुई पेस्ट्रीज को, कमबख्त बहुत मीठी होती है, कोई बीकानेर की भुजिया तो दे दो।  चल पड़ी इस देश के गानों को सुनने, बेगाने देश में कोई मुझे कविता कृष्णामूर्ति और एस.पी.बालासुब्रमनियम सुना दे, तरस रहे थे कान मेरे। मैंने सुना था की यहाँ हमेशा ही संगीतोत्सव चलता ही रहता है, तो थोड़ी तसल्ली तो थी कि कुछ तो अच्छा सुनने को मिल ही जायेगा। तो तसल्लीबख्स पियानो सुना। वैसे तो पियानो मैंने मॉल में ही सुन रखा था, पर लाइव ऑडियंस के बीच सुनने का मजा निराला था   

अपने पसंदीदा देशों में घूमने के बाद किसी ऐसी जगह की तलाश में थी, जहाँ कुछ अपनों के दर्शन हो जाते। एक सुनहरी सीढ़ी मुझे थोड़ी दूरी पर मिली, जिसके पायदान चाँदी के थे, हौले-हौले हिलते हुए यह  बेहद संगीतात्मक लग रही थी। मुझे थोड़ी हैरानी हुई कि विकसित देशों में भी लोग ऐसी पारंपरिक सीढियों से काम चला लेते हैं, यहाँ तो ऐसे हर जगह लिफ्ट ही लिफ्ट दिखाई देती है। सामान कम था तो लगा कि इस सीढ़ी पर चढ़ा जा सकता है। अपना पिट्ठू संभाला और जूतों के लेस कस के बांध लिए, पता चले कि चदते हुए जूते ढीले हो और नीचे गिर जाएं।  बस सीढ़ी के बगल में पहुंची ही थी, कि सीढ़ी मेरी सीध में आकर रुक गयी और मैं ये देख कर अवाक् रह गयी कि हिलती हुई यह सीढ़ी मेरे पास क्यों और कैसे दोनों बाहें फैलाये खडी है? बस क्या था मैं चढ़ गयी दोनों हाथों का सहारा लेते हुए। जैसे एलीवेटर में हम खड़े रहतें हैं और ऊपर/नीचे की और बढ़ते रहतें हैं, उसी तरह यह सीढी भी बढती जा रही थी, एक एलीवेटर की ही तरह। सोने का पालना तो सुना था पर सोने की सीढ़ी नहीं। आज इस बात के भी मजे ले रही मैं। देखते ही देखते  लगा किसी स्वप्नलोक पहुँच रहीं हूँ, गुलाबी हलके फाहों को उँगलियों के पोरों से उड़ाते हलके नीले समतल-सी जगह को छू ही रही थी कि  अचानक  बढ़ चली एक अनाम सी दुनिया में। मन में ड़र भी था और उत्साह भी कि पता  नहीं कहाँ जा रहीं हूँ मैं, पर आनंद की अनुभूति जरूर थी। पता नहीं मेरी एक आँख भी फड़क रही थी पर खून का उबाल भी जोरों पर था। सीढ़ी रुक गयी और और एक अनजान-सा मुस्कुराता चेहरा मुझे आगे बढ़कर रिसीव करने के लिए खड़ा था, लग रहा था कि कभी इन्हें कहीं देखा है पर अपना ये स्वागत देख कर मुझे एक ही  एहसास हो रहा था कि आज मैं अपने हीरो शाहरुख़ से कमतर नहीं हूँ, जिसके इंतज़ार में  कुछ लोग खड़ें हैं। मोतियों के हार के साथ मेरा स्वागत हुआ पर मैं अभी भी सन्न थी। ओह ओ, आप भी सोच नहीं सकते वहां कौन खड़ा था, हलके स्याह रंग में एक लम्बा छह फुटिया, थोड़े घुंघराले बालों वाला एक हसीन-सा मेरी ही उम्र का एक नौजवान हाथ में सिगार लिए बैठा था, मैं थोड़ी ही दूरी पर थी उसके, पर 'हाय'/ Hi की मुद्रा में उसने मुझे कहा 'अलख निरंजन' लगा काटो तो खून नहीं, और अब उसके आगे-पीछे एक-दो सांप घूम रहे थे, मुझे ये प्राणी बेहद नापसंद है और अब मैं बस ड़र गयी, सामने बैठे इस आदमी ने बड़े ही सहज भाव से कहा 'डरो नहीं प्रिये'  और उन दोनों को पकड़कर अपनी शर्ट की जेब में डाल लिया और हाथ उठा कर मुझे पास आकर बैठने का आमंत्रण दिया। मैं चुप थी, सकपकायी हुई थी, हैरान थी साथ ही साथ निःशब्द भी थी। मेरे आसन में बैठते ही मंत्रमुग्ध कर देने आदमी ने कहा, शिप्रा, मैं हूँ शिव, तुम्हारा शिव!!!!!!!!!! इंग्लिश में कहूं तो Oh My God! और हिंदी में मेरी बोलती बंद!!!!!!!    


swarg ka safar