मेरा स्वभाव !
यह विषय थोडा विस्मयकारी है, पर सच बोलने की हिम्मत तो करनी ही पड़ेगी. जीवन का लगभग १/३ हिस्सा गुज़ार चुकी हूँ, सो आत्ममंथन भी जरूरी है. कोई सोच सकता है कि ये सारी ढकोसलेबाज़ी
है, नेट पे लिखना, पर क्या करूं,बिना लिखे मन भी नहीं मानता, लिखने का कारण यह है कि जो कोई इस आलेख को पढ़े और कहीं भी अपने को इन परिस्थितियों को जुड़ा पाए तो जरूर सोचे, कि कैसे उन स्थितियों से जूझे.
मैं बचपन से ही थोड़ी अजीब-सी ही रही हूँ,लीक पर चलना मेरी फितरत नहीं रहीं है. नानी के पास से आई थी तो लगा था सब बढ़िया होगा, नया परिवार, नया वातावरण, नया स्कूल और हर कुछ नया. यूँ कहूं तो मैं ८ महीने की थी, जब मां-बाप से दूर हो गयी थी, और उनके पास आई तो हुई ८ साल की. मेरा बचपन तो अभी शुरू ही हुआ था अपने अभिभावकों के साथ. यूँ कहें हो तो मेरे लिए उनका साथ ऐसा था, जैसे मैं अभी-अभी पैदा हुई हूँ और बस नया जीवन शुरू ही करने जा रहीं हूँ. ये था मेरा उनके साथ मिलन का अनुभव. मेरी दाई मां की तरह मेरी मौसी मेरे साथ हजारीबाग आ गयी थी.मौसी के साथ मेरे बहुत सारे सम्बन्ध थे, मां का, बहन का, दोस्त का, और मेरे सबसी बड़ी दुश्मन का :-) दुश्मन का इसलिए क्योंकि वो पढने के लिए कहती थी.
मैं सबके बीच आ तो गयी पर मन अब भी कहीं छूटा हुआ था, त्युनरा में. ये किसी को पता नहीं होगा, कि मैंने सब के बीच में अपने को कैसे adjust किया.आज भी में ये सारी बातें मुझे बहुत सालती हैं, कि कोई तो हो जो मुझे बताये कि मैं बचपन में क्या करती थी, किस बात में रूठती थी, किस बात से मन जाती थी, क्या पसंद था, क्या नापसंद था? एक नानी थी, एक मामा थे, जो सदा के लिए चले गए,एक मौसी है तो उनसे ये पूछना कुछ अच्छा नहीं लगता. अपने मम्मी-पापा के पास मैं एक पेड़ की तरह आ गयी थी, जिन्हें उन्हें अपने आँगन में एक जगह देनी थी, क्योंकि प्रारंभिक उठा-पटक मैं देख चुकी थी. मुझे ये पता नहीं मेरा उन सबके बीच में आना, उन लोगों को क्या एहसास दे गया, पर मैं बहुत ही खुश हो गयी, जैसे किसी बिना माँ-बाप के बच्चे को एक परिवार मिल गया हो. मैंने बचपन में जो खोया है, वो न तो मेरे माँ-बाप वापस दे सकते हैं, न ही मेरे भाई-बहन और न ही ऊपर बैठा भगवान. पर मैं इसके लिए किसी को दोषी भी नहीं ठहरा नहीं सकती क्योंकि उन्होंने उस समय के हिसाब से जो सोचा होगा, सबकी बेहतरी के लिए सोचा होगा.
आज ये बात admit करते हुए मुझे कोई हर्ष नहीं है, पर इससे सरल माध्यम और कोई नहीं हो सकता कि बताऊँ कि जिस चीज़ को आपने अपने हाथों से बड़ा किया हो, उससे आपको ज्यादा प्यार होता है, न कि किसी बनी-बनायीं चीज़ से. मैं अन्दर से ही बहुत विरोधी प्रवृति की रहीं हूँ, जो चीज़ मेरी नज़र में अच्छी रही है, वो मरते दम तक अच्छी ही रहेगी. मैं अपनी मां से बहुत लडती रहीं हूँ, यूँ कहूं तो कुछ ज्यादा ही, हमारे बीच कोई बहुत ज्यादा मधुर सम्बन्ध नहीं रहे, पर जब होश आया,तो स्थिति सँभालने की कोशिश भी की. मेरी मम्मी जब स्कूल से आती थी तो उनके लिए चाय बनाने से लेकर, उस समय तक पाक कला में जितनी महारत थी, सारा जोर लगा के उन्हें पका के खिलाने की कोशिश करती थी. मैं सोचती हूँ कि मेरे लड़ाकू स्वभाव के कारण मेरे मकान-मालिक और उनके परिवार के बीच में मेरी position बहुत ही हेय थी, पर क्या करूं इसे मैं बदल नहीं सकती पर अपने इस स्वभाव के कारण उस कैम्पस में मैंने क्या-क्या खोया है, वो सोचूँ तो दिल बैठ जाता है. मैंने बहुत झूठ भी बोला है, और इसके परिणाम मुझे ही भुगतने पड़े हैं.
आगे कल ---------