Monday, September 3, 2012

सीता

सीता

क्यों डरतें हैं लोग सीता के नाम से,
नाजुक, भोली, सलोनी सीता के काम से,
मनमोहिनी, वीरांगना  देवी के भाम से,
समर्पित रही सदा जो प्रेमाभिराम से।

बेटी बनी जनक की, जब धरती की गोद में थी,
पाया दुलार घर का, खुद मात वो जग की थी
खेली वो खंजनो से, ममतामयी थी नारी,
होती रही प्रतिष्ठित हर सुखों की अधिकारी

माता का साथ छोड़ा , पिता की छाँव त्यागी,
थामा जो हाथ राम का, बनी राम की सौभागी
सखियों को पीछे छोड़ा, बहनों के साथ आई,
अपने साथ रघुकुल में सबको जोड़ लायी,
ऐसी हमारी सीता, जो जनकपुर से आई।

सास की प्राणप्यारी, पति राम की थी छाया,
बाबुल का आँगन छोड़ा,मन ससुराल में रमाया
घर-बार, पेड़-पौधे, बस प्राण में निरंतर,
सब में बसी रही वो हर क्षण- प्रत्यंतर।

कोमल सुकुमारी ने पति का हाथ थामा,
महलों का राज छोड़ा, पत्नी का धर्म धारा, 
पीछे न मुड़के देखा, जो आराम का था जीवन,
संग धूल -कंटकों के बांधा था अपना यौवन।

पीछे रही पति के, उनकी ही राह थामी
चलती रही वो ऐसे, जैसे हो अनुगामी,
इतना सरल, संयमित जिसका था ऐसा जीवन
धरती की बेटी सीता, जिसको नमन करें हम

रावण जो छल से हरके, लंका में उनको लाया
रोती रहीं विरह में, मन को कुछ न हर्षाया,
तृणओट में रही वो, जपती रही निरंतर
मन में रहो हमारे, तुम शूरवीर रघुवर।

उनके कठोर तप से, रावण भी था कांपा
अपनी मृत्यु की आहट को उसने भी था भांपा
करता रहा वो दूर से सीता पे अत्याचार
कर लेता काश वो इस कर्म पे विचार।

रावण समेत लंका को राम ने हराया
सीता को फिर से पाया, औ' ह्रदय से लगाया
तुम बिन मैंने हर पल ये, युग-युगांतर से बिताए
मेरे बिना इस लोक में, तुम कैसे रही थी हाय!

फिर से चले वो वापस, अयोध्या के धाम सारे,
संग साथी बंधु- बांधव मिले मात को दुलारे,
हुए आंसुओं से सबके पद पखार प्यारे
मिली मात संग सीता, कितनों के वारे- न्यारे।

ऐसी थी अपनी सीता, जो प्रभु पद में स्वयं रमाया,
देखा न उनके आगे, न अपनी शक्ति को था ध्याया,
चुप-चाप बनके भोली, सलोनी राम की
जीवन बिताया अपना जोड़ी नयनाभिराम-सी। 

।। बोलो रामप्यारी सीता मैया की जय।।