Monday, July 29, 2013

पूर्व ही रच ली गयी थी 'रामायण '

पूर्व ही रच ली गयी थी 'रामायण '

कलयुग में सृष्टि ने एक नियम बनाया है कि इस जन्म में किये गए पापों का फल भी किसी को इसी जन्म में मिल जाता है और किसी को इसका प्रायश्चित करने के लिए अगला जन्म लेना पड़ता है. प्रसंगवश मैंने एक अलौकिक व्याख्यान पढ़ा और आप सब को बताने का मन भी किया, फलतः लिख रही हूँ, प्रकांड विद्वानों से अनुरोध है कि अगर कोई त्रुटि हो, तो क्षमा करें।
ये बात काफी पुरानी है, नारद देव जो ब्रह्मा जी के पुत्र थे, एक कंदरा में चुपचाप तपस्या करने लगे. उनकी अद्बुत तपस्या से भगवन इंद्र काँप उठे और संशय में पड़ गए कि इंद्रलोक उनसे छिन न जाये। फलतः उन्होंने कामदेव जो को वहां उन्हें विचलित करने के लिए भेजा, कामदेव बसंत को लेकर वहां पहुँचे और उन्हें डिगाने की बहुत कोशिश की, पर नारद जी अडिग रहे और उन्हें वापस जाना पड़ा. हुआ यह था कि एक बार पहले  भी कामदेव ने इससे पूर्व शंकर जी को भी डिगाने की कोशिश की, पर शंकर जी ने कामदेव को श्राप दे दिया था और रति के याचना करने पर उन्हें श्रापमुक्त कर दिया, पर उस तपोस्थान से कुछ किमी की दूरी तक काम का प्रभाव निष्क्रिय हो गया. नारद जी को यह भ्रम हुआ कि उनके खुद के ताप से काम वापस चले गए. नारद जी अपनी प्रशंसा करने के लिए शंकर जी के समक्ष गए. शंकर जी ने उनसे कहा कि अब ऐसी बात कभी किसी अन्य के समक्ष मत कहना और यह मेरी आज्ञा समझ लेना क्योंकि तुम विष्णु के परम भक्त हो, और मुझे अत्यंत प्रिय हो.. पर मद से वशीभूत नारद ने ब्रह्मा जी को यह बात बताई पर पिता ब्रह्मा ने भी उन्हें यह किसी को कहने से मना किया। अहंकार से वशीभूत नारद जी विष्णु जो के समक्ष गए और सारा वृतांत सुनाया। इतना कह  नारद जी वहां से चले गए.  
वहीं दूसरी और शिव की माया से प्रेरित हो श्री हरि ने एक माया नगरी बनायी और नारद जी ने उसमे प्रवेश किया। उन्होंने देखा कि यह तो कई योजन तक फैला हुआ है.. उनके वहां पहुंचते ही वहां के राजा ने उनका स्वागत किया और बैठने के लिए उचित स्थान देकर उनका यथोचित सम्मान भी किया। फिर उन्होंने नारद जी को अपनी पुत्री 'श्रीमती' से मिलाया और उन्हें बताया कि वे उसका स्वयंवर कराने की सोच रहे हैं. वार्तालाप के समाप्त होने के पश्चात नारद जी वापस आ गए और वे काम से ग्रसित हो गए, उन्हें लगा कि इतनी सुन्दर कन्या से उन्ही का विवाह होना चहिये. इस प्रयोजन से वे विष्णु जी के पास गए और नारद जी ने विष्णु जी को बताया की वो उस विशाल नेत्र वाली श्रीमती नामक युवती से विवाह करना चाहते है. उन्होंने भगवान से ये याचना की, कि यदि वो उन्हें अपना रूप दे दें, तो कन्या के पिता नारद जी को विष्णु समझ कर 'ना' भी नहीं कह पाएंगे और अपनी पुत्री का विवाह उनसे करा देंगे।
 विष्णु जी ने उनकी सारी बात सुनी और उन्हें अपने जैसा शरीर दे दिया पर मुंह बंदर-सा दे दिया।  चूँकि वे अपना चेहरा खुद नहीं देख सकते थे, इसलिए नीचे का शरीर मात्र देख वे अभिभूत हो गए और यह ठानकर विवाहस्थल की और चले गए कि आज तो उस सुन्दर कन्या से विवाह कर के ही लौंटेंगे। वहां उनके बगल में शिव जी के दो गण वेश बदलकर उनके साथ बैठे हुए थे. नारद जी ने सोचा की अभी राजा की पुत्री आएगी और सब सज्जनों के बीच उन्हें चुनकर अपना वर घोषित कर देंगी। पर हुआ ठीक इसके विपरीत, वो आई और उन्हें देखे बिना ही चले गयी. नारद जी बड़े दुखी हुए तब वेश बदल के आये गणों ने उनसे कहा कि उन्होंने अपना चेहरा भी देखा है, ऐसा कहकर वे जोर-जोर से हँसने लगे. नारद जी ने क्रोधवश उन गणों को राक्षस हो जाने का श्राप दे दिया, ऐसा सुन वो दोनों गण वहां से श्राप स्वीकार कर सहसा चले गए. इसी बीच विष्णु भगवान वहां आ गए और कन्या ने झटपट वरमाला उन्हें पहना दी. नारद जी  कुपित होकर वहां से चले गए. फिर गुस्सा होकर भगवान हरि के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्हें कई बुरी बातें और खरी-खोटी सुनायी। उन्होंने विष्णु जी को श्राप दे दिया  कि जिस प्रकार मैं स्त्री के वियोग में तड़प रहा हूँ, आप भी उसी प्रकार तड़पें और ये बंदर मुंह वाले लोग ही आपके जीवन में आने वाली विपत्ति के समय आपके सहायक बनें।
विष्णु जी ने सहर्ष श्राप स्वीकार कर लिया पर उन्हें सारा वृतांत कह सुनाया कि किस प्रकार नारद जी मद में उन्मत्त खुद को विजयी घोषित किये जा रहे थे और सब भगवन शिव की माया से ओत-प्रोत और उनके पराक्रम के प्रताप को वो अपना ही ओज समझे जा रहे थे.
 माया से वशीभूत नारद जी की आँखें खुलीं और उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ, उन्होंने भगवान विष्णु से कई प्रकार से प्रार्थना की कि उनके द्वारा दिए हुए श्राप को वो निष्फल कर दें, पर ऐसा हो न सका.  उधर वापस अपने लोक आते हुए नारद जी को भगवान शिव के वो दोनों गण मिले, जिन्हें उन्होंने राक्षस हो जाने का श्राप दिया था. गणों ने उनसे क्षमायाचना की, फिर उनके श्राप को कम करते हुए नारद जी ने कहा कि त्रेता में वे रावण और कुम्भकरण नाम से जाने जायेंगे और भगवन विष्णु का अवतार ही उन्हें मुक्ति दिलायेगा।

इस प्रकार से रामायण की कहानी पूर्व ही रच ली गयी थी, और भगवान को भी स्वयं श्रापमुक्त होने के लिए नर का रूप लेना पड़ा था. भगवान विष्णु को 'नारायण' भी कहते हैं. भगवान विष्णु भगवान शिव के परम प्रिय हैं और उन्हें कमल भी शिव के द्वारा ही प्रदत्त है. एक बार भगवन विष्णु, कमल हाथ में लिए पानी में कई समय तक विश्राम करते रह गए, तब से उनका एक और नाम हो गया, ' नारायण' अर्थात 'नारा है जिसका वास'
नारा (पानी) + अयण (वास)- पानी है जिसका वास, वो हैं नारायण।  

Thursday, July 18, 2013

प्यार

कैसे होता है प्यार? 

सुना है प्यार की कोई जात नहीं होती,
ये तो बस एक उन्माद है, जो आंधी की तरह आता है,
किसी को दिल देकर, भावना फैलाकर,
चुप चाप चला जाता है, मौनी बाबा सा।

देखती हूँ प्यार में डूबे हुए लोगों को,
जरूरी नहीं कि कामदेव के तीर से घायल हों,
सिर्फ नज़रों से, बातों से कर लेते हैं लोग बेइंतिहा प्यार,
पास में बैठ, होती है कुछ गुफ्तगू और थोड़ी तकरार
और इसको ही समझ लेते हैं प्यार।

 कोई किसी को कैसे करता है प्यार,
कैसा होता है इस प्यार का इज़हार,
ऐसा जैसे, माँ अपने बच्चे से करती है,
बहिने जब एक-दूजे पे तरती हैं,
गाय बछड़े से करती है,
दोस्त-दोस्त के नाम पर मर मिटता है
किसी से मिलने को जब कोई तरसता है,
पुराने किसी प्रेमालाप को यादकर,
जब ह्रदय पीड़ा से संकुचित हो जाता है
या अपनी मिटटी की याद में जब खून उबाल मारता है
या किसी अनजान को देख होठों के फूल खिलते हैं
और आँखें गुलाबी हो जाती हैं,
या जब किसी नन्हें से बच्चे को देख
जब गोद में उठाने का जी करता है    
तब प्यार ही  होता है मेरी जान,
और कोई तब रोक नहीं पाता,
इस आवेग को,
गुस्से को रोकने के तो कई किस्से सुने हैं,
पर प्यार करने से किसी को कोई कैसे रोक सकता है
दिल का साइज़ बढ़ जाता है और खून के बदले प्यार बहने लगता है
पूरे जिस्म-ओ-जान में खुमार चढ़ जाता है इस नशे का,
आगोश में भरकर उसे, कर देना चाहिए प्यार चस्पा,
सोने पे सुहागा तो तब हो जब
चूम कर लगाओ उसपर अपने प्यार का ठप्पा
व्यर्थ नहीं जायेगा प्यार का ये एहसास,
जिनको होता है प्यार वो तो होते ही हैं कुछ ख़ास।

@शिप्रा पाण्डेय शर्मा 

Sunday, July 14, 2013

सुलगता धुआं

सुलगता धुआं

रात गहरी हो चुकी थी, काली स्याह पर जैसे किसी ने थोडा काजल और डाल दिया हो, और बस गुजरती जा रही थीं घड़ियाँ रात की। जीवन के पन्ने पलट के एक दूजे की कहानियों में खोये हुए थे वे दोनो। नींद भी नहीं थी आँखों में, और डिनर किये भी काफी समय बीत चुका था। कुछ लोगों को बातें करने के लिए चाय का सहारा चाहिए पर रिया और ऋषिकेश को इसकी कोई जरूरत नहीं थी। उनकी बातें, किस्से कभी नए मौसम जैसे, तो कभी अलमारी में रखे पुराने कपड़े जैसे, जिन्हें बाहर निकालने पर पुरानी यादों की बदबू आती। बहरहाल एक चीज़ थी, जो कभी छूटती नहीं थी, वो थी ऋषि के हाथों से सिगरेट के दौर। ऋषि सिगरेट पीता और रिया उसका धुआं पीती।
  काफी मसरूफ़ रहता है मर्द बिचारा, अपनी जिंदगी की उलझनों में। काम का तनाव, आगे बढ़ने की ललक, और भी कई सारी बिन बुलाई मुसीबतों में सिर धुनता रहता है घर का ये मर्द। रिया हमेशा सोचती थी आज नहीं तो कल ये आदत जरूर छूटेगी पर कोई इलाज़ नहीं था इस मर्ज़ का। कहीं किसी ने बना के नहीं दिया था उसे कोई आशियाँ, एक-एक तिनका खुद समेटा था, उन्होंने खुद अपने दम पे। किसी के सामने कभी हाथ फ़ैलाने की नौबत नहीं आई थी, अच्छा-बुरा जो हुआ जिंदगी में, वो अपने अन्दर समेटना जानती थी रिया। उसे पता था अपनी जिंदगी का फलसफा, क्या होना है और क्यों होना है, पर उसकी बातें नक्कारखाने में तूते की आवाज़ सी थी, पता ही नहीं कि कभी किसी ने सुनी भी की नहीं। सबको अपनी जिंदगी से कुछ न कुछ चाहिए था, किसी को प्यार, किसी को दौलत, किसी को सम्मान और पता नहीं क्या-क्या, पर रिया को पता नहीं क्या चाहिए था इस जीवन से, किसी चीज़ के पीछे नहीं भागती थी वो, जो जैसा मिल जाये, उसी में खुश हो जाती थी, पर उस मिलने में थोड़ी सहजता हो, थोडा प्यार और अपनापन हो। किसी का छीन के खानेवालों में से वो कभी भी नहीं थी, सपने में भी नहीं। बार-बार समझाती अपने पति को इस लत को कम कर दे, धीरे-धीरे छोड़ दे, पर कोई फायदा नहीं। ये नहीं कि ऋषि कोई लतखोर था, या दिन रात छल्ले ही उड़ाता रहता था, पर जितना भी धूम्रपान करता था वो सब रिया को भी कहीं न कहीं छलनी करता था। उसे पता था कि किसी दिन कोई अनहोनी हो जाएगी तो पास में देखने वाले, ढ़ाढस देने वाले कम, और फब्तियां कसने वाले ज्यादा बैठेंगे पास में। गलतियाँ गिनाने वाले कई लोग दिख जायेंगे बरसाती मेंढक की तरह।
  रातों के पन्ने पलटते गए, उम्र गुजरती गयी। रातें तो काली की काली रहीं पर बालों के स्याह रंग पे दिन सा उजाला धीरे-धीरे चढ़ता गया। सभी व्यस्त, अपने कामों में बेखबर, जिंदगी से निश्चिंत। गुजारने के लिए जिंदगी हर कोई किसी न किसी काम में लगा रहा, और पता नहीं कब जवान से अधेड़ हो गए।
हर दिन की तरह रिया और ऋषिकेश अपने काम के लिए निकल पड़े, पर अचानक ऋषि को काम के लिए मुंबई ऑफिस से ही जाना पड़ गया। रिया अपने ऑफिस में थी। अचानक सीने में दर्द से कराह उठी रिया, और पड़ गयी बदहवास-सी अपने डेस्क पे, बगल में बैठी कोमल ने देखा कोई हरकत नहीं है पिछले कुछ मिनट से रिया के टेबल में, जा के देखा तो अवाक् रह  गयी थी वो तो। इमरजेंसी में ले गए ऑफिस वाले उसे हॉस्पिटल और एडमिट करवा दिया। सभी स्तब्ध थे, हैरान थे कि क्या हो गया है उसे, बहुत फिट थी वो, कम बोलना, कम खाना-पीना उसकी आदत थी, इसलिए लोगों को और ज्यादा हैरानी हो रही थी। बहरहाल मुंबई पहुंचा ऋषि आनन-फानन में वापस लौटा और सीधे हॉस्पिटल ही पहुंचा। चेहरे में पीलापन, और अचानक से बूढी-सी प्रतीत होती रिया को देख भक्क सा रह गया ऋषि। पता नहीं आज कितने दिनों बाद देखा था उसने ठीक से उसे।  हल्का हार्ट अटैक हुआ था उसे, जिसे 'एनजाइना अटैक' भी कहतें है। डॉक्टर ने चुप रहने की सलाह दी थी उसे।
 कारण का तो पता नहीं चल पाया किसी को, पर डॉक्टर का कहना था, ज्यादा स्ट्रेस लेतीं हैं लगता हैं रिया! आराम ही इसकी दवा है भाईसाहब।

२-३ दिन लगे पर, आखिरकार घर आ गयी रिया, साथ में एक फुल टाइम कामवाली भी लगा ली थी उन्होंने, जो घर के सारे काम कर सके। ऋषि सोचता रहा कि आखिरकार ऐसा क्या हुआ जिसके कारण रिया की यह हालत हो गयी। अब धीरे-धीरे ठीक होने लगी थी रिया और घर के काम-काज भी खुद करने शुरू कर दिए थे, उसने। ऋषि को यह बात पचा नहीं रही थी, आखिरकार उसने पूछ ही लिया, रिया ऐसा क्या है जो तुम्हे दिन पर दिन खाए जा रहा है, तुम कुछ बांटती नहीं, अपने भीतर ही दबाये रखती हो। रिया ने सोचा अभी न बोल पाई तो कभी भी न बोल पाऊंगी, सहसा वह बोल उठी, ये तो अभी ट्रेलर था ऋषि, इससे भी ज्यादा हो सकता था। सोचो मेरी जगह तुम भी हो सकते थे, आज मुझे हॉस्पिटल के बिस्तर में पड़े देख कर तुम कितने परेशान हुए, और तुम तो दिन-रात छल्लों की दुनिया में खोये रहते हो। कहाँ मशगूल रहते हो, किस उधेड़बुन में फंसे रहते हो, क्या-क्या छुपाते हो मुझसे? छोड़ दो ऐसी उठा-पटक की जिंदगी, नहीं चाहिये हमें ये सब, कितना चाहिए जिंदगी गुजारने के लिए? दो रोटी, एक छत, कुछ कपडे और अनगिन साँसें, हमारा काम चल जायेगा ऋषि, पर फिर जिंदगी वापस नहीं आएगी। पर एक बात बता दूं और तुम इसका कभी बुरा नहीं मानना, अगर आज मेरी जगह तुम होते तो ये पक्का है कि मैं पलट के तुम्हें देखने भी नहीं आती। हॉस्पिटल में तुम्हे साँसों को उँगलियों में गिनते देख मेरी कोफ़्त और बढ़ जाती, सालों से सुलगते तुम्हारे धुंए से मैं खोखली हो चुकी हूँ, कई जतन किये, तुम्हे रोकने के और सभी नाकाम। अपनी जिंदगी दे के ही कुछ प्रमाणित नहीं कर सकती थी मैं, पर हाँ, अगर मेरी जगह तुम होते तो पक्का तुम्हे देखने के लिए नहीं आती मैं।

 कहीं दूर चली जाती इस बार, जहाँ इस उलझन, सुलगन की लौ में तड़पना नहीं पड़ता। नहीं आती कि तुम्हे असहाय पड़ा देख मैं हृदयहीन हो जाती, भावशून्य रह जाती, किस मौके को कोसती, किन-किन रातों को याद करती जब रात का पन्ना पलट हम उजाले को देखने के लिए जागते थे। एक दम हिम्मत नहीं हैं मुझमे ऋषि क्योंकि हर पल, हर दिन, हर माह, हर साल मैंने तुम्हे रोका था, धुआं उड़ाने से, पर तुम कभी न समझ सके एक ये ही बात जो मैं हमेशा कहती रही।

नहीं आती मैं, दूर चली जाती कहीं सबसे .......... कहते बुदबुदाते सो गयी रिया, लगा ऐसे ऋषि को जैसे वहां बिस्तर पर नहीं रिया नहीं,  वो खुद लेटा पड़ा है। चुप-चाप निहारता रहा, एकटक सोचता रहा उसके साथी की हर नाकाम कोशिश को। छलनी पड़ा था उसका सीना और कराहती हुई रिया की साँसों से घबरा गया था ऋषि। बैठे-बैठे काले, डरावने सपने-सा लगने लगा था जीवन, जो सिगरेट की हर कश में गोल-गोल खुद को ही लीले जा रहा था। समझ ही नहीं पाया कि क्यों पीता रहा वो इतनी सिगरटें? खामोश बैठा रहा ऋषि, किसको छोडूं और किसे पकडूँ, इसी विचार में कलपता रहा वो बिस्तर में पड़ी रिया और टेबल में पडी सिगरेट को देखकर।

@शिप्रा पाण्डेय शर्मा

Friday, July 5, 2013

खूबसूरत कार्मेल पर लट्टू जेवियर्स

खूबसूरत कार्मेल  पर लट्टू जेवियर्स 
यह आलेख पढ़कर आप इसे कदापि अन्यथा नहीं लें, कि मैं किसी स्कूल के बारे में कुछ अनर्गल लिखने का प्रयास कर रही हूँ, पर यही सत्य है कि  दो प्रतिस्पर्द्धी स्कूलों के बच्चे पीढ़ियों से लव-हेट (Love-Hate) वाला संबंध रखतें है।
ज्यादा तो गहराई से मुझे नहीं मालूम, पर यौवन की दहलीज़ में कदम रखते ही आइना सबसे बड़ा सहारा हो जाता है नव युवाओं का। बाल संवारने से लेकर लटों को दाँये-बांयें करने में ही बड़ा वक़्त कट जाता है, रहा-सहा थोडा वक़्त किताबों के काले अक्षरों को समेटने में लग जाता है। वैसे मैं अपने को इससे पहले ही अलग कर लूं, क्योंकि ऐसा मेरे साथ एकदम भी नहीं हुआ, क्योंकि मम्मी ने स्कूल तक तो मुझे हमेशा ही बॉब-कट रखा। पर कॉलेज जाने के बाद जब बाल थोड़े बढे, तो एक बित्ती गुथ सँभालने के लिए शीशे के सामने खड़े होना बड़ा सुहाता था। पापा मजाक करते थे, कि काला पर्दा डाल दो शीशे में, नहीं तो एक दिन शीशा थक के खुद ही टूट जायेगा।

अलबत्ता, कार्मेल की हसीन लड़कियों के मिज़ाज को समझने के लिए शहर में दो ही हस्तियाँ थीं, या तो उन लड़कियों के माँ-बाप, या उनके आगे-पीछे डोलते हुए ये गबरू जवान। अच्छा, मैं थोड़ी नासमझ बचपन से ही थी, लडकियाँ गुट बना के लड़कों के बारे में गुफ्तगू करती थीं, और मुझे पास देखकर बात पलट देती थीं। इस बात में कोई लाग-लगाव नहीं है और यह बात सोलह आने सच है। क्लास 6th से तो मैं यह देखती आ रही थी। क्लास 6th में हमारी क्लास में एक बेहद ही हसीन लड़की थी, जो बाद में किसी दूसरे स्कूल चले गयी थी, वहीँ से मैंने अपने साथ ये वाक्या देखा। इन लोगों की कानाफूसी छुट्टी टाइम भी बहुत दिखती थी, चाट वाले भय्या के पास, या नीचे बैठ कर इमली बेचने वाली दीदी से पास ये लोग दिख ही जाते थे।रिक्शे में जाती किसी खूबसूरतो के आस-पास चँवर झूलाने वाले-से ये अल्हड, अमूमन मुझे तो दिख ही जाते थे। ये उनके साथ ऐसे होते थे जैसे  कि या तो रिक्शा चलने वाला रिक्शा चलाते-चलाते अगर थक जाये तो वे ही रिक्शा चला कर उन्हें घर पहुंचा देंगे, या हुड में बैठी लड़कियों के आस-पास ये किसी बॉडीगार्ड से कम नहीं लगते थे। थे तो सभी छोटे पर साइकिल की सवारी इनकी बड़ी मजेदार होती थी।
दो तरह की लडकियां जेवियर्स से जुडी थीं, एक तो जो पढने लिखने में बहुत ही तेज होती थी और आये दिन किसी न किसी डिबेट कम्पटीशन या एक्जीबिशन में वहां जाती रहती थीं, और दूसरी वो जो सुन्दर दिखने वाली थीं और वहां के नौ-निहाल इनपर लट्टू थे. जब तक मैं क्लास 9th में आयी तब तक इनका झुण्ड ब्रेक टाइम में स्कूल के अन्दर भी पधारने लगा था। उस समय थोडा सिनियरटी का एहसास हो चुका था। ये वाक़या मेरे साथ हो चुका है, इसलिये बताने में कोई झिझक भी नहीं है। एक बार हमारी एक जूनियर से मिलने एक भाईसाहब स्कूल में आ धमके, थोड़ी देर तक मैं देखती रही, पर एक समय के बाद मेरे से रहा न गया। मैंने आव न देखा ताव, उस लड़की को खूब डांटा और साथ में उस लड़के को भी खूब खरी-खोटी सुनाई। बीच में टीचर भी आईं, उन्होंने भी खूब फटकार लगाई उस लड़के को और अंततः वह साहबजादे वहां से निकल लिए। बड़ा लीडरशिप का एहसास हुआ था उस दिन, टिफ़िन खत्म और मेरी क्लास में कुछ बच्चों को यह पता लग गया कि मैंने ऐसा कारनामा किया है आज, तो सबने बड़ी चुटकियाँ लीं। पर एक सहपाठी थी, जिसने मुझे समझाया कि आज का दिन मेरे पर काफी भारी पड़ने वाला है, सो घर संभल के जाना। भाई  साहब, मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम. पता चले कि वो मियाँ मेरे ही पीछे पड़ जायें और परेशान करने लगे। भगवान का नाम लेके घर की और निकले। वो लड़का दिखा भी था, हमारे रिक्शे के आस-पास और मैं वहां चूहे की तरह दुबकी-सी बैठी थी। घर के पास आने से पहले ही मैं उतर ली और रास्ता बदल कर पैदल-पैदल घर पहुँच गयी।
उस दिन से समझ आया की रोमियो-जूलिएट की कहानी में बिना बात के विलेन न बनना ही अच्छा।

   बात बड़ी नाजुक है और खुलेआम कहने में मुझे कोई गुरेज़ भी नहीं है कि छोटे शहरों में उस समय लड़के-लड़कियों को बात करते देख लेने पर काफी बुरा माना जाता था। कई अटकलें लगायी जाती थी और कई फ़साने भी बनाये जाते थे। छोटी उम्र ( teen age) में लगाव, आकर्षण होना स्वाभाविक है, वैसे इस बात पर कोई ठप्पा नहीं लगाया जा सकता पर आकर्षण, सराहना और सुन्दरता किसी उम्र की मोहताज़ नहीं होती, वो तो बस नैसर्गिक है, अपने आप हो जाती है। बड़े शहर में रहने के बाद मुझे को-एड (co-ed) के मायने समझ आये। बचपन से ही कोई पर्दा नहीं, सब समान, एक जैसे. लड़का-लड़की वाला कोई एहसास नहीं। मजेदार बात यह थी, शहर से करीब 15 किमी दूर मेरु के बीएसएफ स्कूल को छोड़ कर हज़ारीबाग में कोई  co-ed स्कूल था भी नहीं। कार्मेल की लडकियां खालिस कॉन्वेंट वाली होती थीं और जेवियर्स के लड़के भी कोई कम नहीं थे। वैसा ही रुतबा था उनका भी। पर मजे लेने वाले तो सिस्टर्स और फादर्स पर भी जुमले छोड़ ही देते थे।
आज अगर फिर से रिक्शे पे बैठ के निकलूँ अपनी गली  से और ऐसे रोमियो-जूलिएट फिर से दिख जायें तो कसम ख़ुदा की इंस्टेंट आशीर्वाद ले लूं, "पुनः युवती भवः"।

गुजरा हुआ ज़माना, आता नहीं दोबारा, हाफ़िज़ खुद तुम्हारा।
http://youtu.be/qwY_WjMqUyE