Monday, January 30, 2012

कुछ कच्चे पल

३१-१-१२

कुछ कच्चे पल 

आ रहा है कुछ याद,
इन खुली-बंद आँखों में,
यादों के झुरमुट से,
गुनगुनी हलकी सरसराहट,
ठंडी हवाओं के झोकों की तरह
आज भी सुनाई देती है,
तुम्हारी सुनहरी आहट .....

कुछ खों-खों करके गाते हुए तुम्हारे वे नगमे,
पास आने की इतल्ला दे देते थे,
फाटक पे साइकिल की घंटी की सरगम से
पहचान जाती थी मैं उस समय की धड़कन..

कभी शाम को बालकोनी में बैठ,
नए गानों को ऊँचे सुरों में सुनने की कवायद,
और कभी हलके-हलके तबले की थाप में
उमड़ते, घनघनाते लफ्जों की तपिश,
मिजाज हरा कर देती थी, कसम से....

तुम्हारी खामोशी और मेरा अनजान बने रहना,
एक रास्ते में चल, रास्ता जुदा करना,
आज बड़ा ही अफसोसनाक लगता है,
पता था जबकि, सुर-सरगम नस-नस 
में बैठी  थी हमारे-तुम्हारे

तुम्हारे पते में, मैं अब नहीं जाती,
दूर गुमनाम किसी शहर की चिल्ल-पों में बस चुकी हूँ मैं,
न रखती हूँ तमन्ना, तुमसे कोई दिल का रिश्ता भी रखूँ,
मेरी साँसों में अब कोई और बस चुका है,
पर मुद्दतों बाद जब भी होता है जिक्र तुम्हारा,
घबराहट से भर जाता है, अब भी मेरा छोटा-सा ये दिल,
कि कहीं कोई चोरी पकड़ी तो नहीं गयी,
चुप-चाप सिमट जाती हूँ अपनी साँसें रोक के, 
मुझे पता है, ये लुका-छिपी का खेल
कभी ख़त्म होने वाला नहीं,

न तुम बोलोगे मुझसे और 
न मैं कभी आवाज़ दूँगी,
अपनी अनबुझ कहानी को
फिर भी मैं नया नाम दूँगी,
ये पहले प्यार की खनक
सुन सकते हैं हम सभी इन कानों से,
जीवन के ये कुछ कच्चे पल थे,
जो जल्द ही टूट गए,
किसी नयी उभरती कहानी के ये पन्ने रूठ गए,
छन-छन के आते हैं, इन पलों से 
यादों की सुनहरी-मीठी टीस,
खो जातें हैं हम सभी,
उस पहले प्यार के बीच... 

Thursday, January 26, 2012

कार्मेल स्कूल-2

कार्मेल स्कूल-2

अपने पिछले आलेख में मैंने बताया था कि क्लास 7th की ज्यादा बातें अब याद नहीं है मुझे पर अभी 3 कक्षाओं का सिलसिला बाकी है. क्लास 8th की हमारी क्लास टीचर थी, सिस्टर वीना Ac वो मेरी बेहद ही पसंदीदा टीचर रही हैं हमेशा से, उनके साथ मेरा जुड़ाव भी बहुत था. जैसे एक मां अपने बच्चे को किसी भी समस्या में पड़ने से पहले बचा लेती हैं, वैसे ही वह मुझे छोटी-मोटी समस्याओं से बचा लेती थी. सिस्टर वीना एक सुन्दर, सुडौल, और बेहत ही शांत किस्म की महिला थी, उनके चेहरे पर गोल चश्मा बड़ा ही फबता था. साथ में वो जूड़ा भी बनाती थी. उन्हें पता था कि मेरी अंग्रेजी बहुत ही कमजोर थी, पर डांटने के बजाय वो मुझे मेरी इस परेशानी से लड़ने के लिए हमेशा प्रोत्साहित करती रहती थीं.  मुझे एक वाकया याद है इस बारे में. इंग्लिश में  हमारी २ किताबें होती थीं, 1 तो btc की और एक Guided English . एक बार की बात है एक होमेवर्क था, जिसमें हमें अपने पिता को एक पत्र लिखना था, और उस पत्र का विषय था, कि हम Russia के किसी स्कूल में हॉस्टल में रह कर अपनी पढ़ाई कर रहे हैं और अचानक हॉस्टल में आग लग गयी है, आग इतनी भयानक नहीं है, पर उसमे आपका बहुत सारा सामान जल गया है, और आपको उनसे पैसे मंगवाने है. अब चिट्ठी लिखनी थी वो भी इतने दूर देश से. यहाँ तो पापा से कुछ भी फरमाइश कर लो तो वो तो मिल जाये पर अब क्या लिखूं ये समझ ही नहीं आया. मुझे तो इतने सारे वाक्य इंग्लिश में बनाने भी नहीं आते थे. होमेवोर्क तो हो गया और मैंने सिस्टर को वो चेक भी करने को दे दिया  सिस्टर ने जैसे ही इंग्लिश को कॉपी ली, और संभवतः पहली नज़र ही डाली होगी उन पंक्तियों पर, झट से उन्होंने मुझे बुला लिया और कहा, 'शिप्रा ये होमेवर्क पापा से करवाया है ना', और मैंने भी बेझिझक  कह दिया 'हाँ'. सिस्टर ने हंस के कहा थोड़ा-थोड़ा ही सही खुद से लिखने की कोशिश करो. उल्टा-पुल्टा ही सही पहले इंग्लिश में सोचो फिर उसे लिखो और फिर किसी से चेक भी करवाओ..... इस तरह मैंने फिर इंग्लिश के साथ धीरे-धीरे ही सही अपनी दोस्ती कर ली. इसी तरह एक बार attendance  के समय मैंने कहना था I was absent, पर कह दिया I am absent ,फिर क्या था पूरी क्लास खिल-खिला के हंस पड़ी, पर अपनी इस कमी को दूर करने के लिए मैंने खुद से कसम खा ली.

मेरी क्लास में बहुत सारे बच्चे थे, जिसमें सभी किसी न किसी चीज़ में ख़ास थे. सारिका,रूबी, अनामिका और बहुत सारे बच्चे पढ़ाई में बहुत ही तेज़ थे. मेरे मन में कुछ लोगों के लिए तो ख़ास ही जगह थी. एक तो मेरी बेस्ट फ्रेंड सारिका सिन्हा के लिए, क्योंकि वो मेरी सब बात सुन लेती थी और मान भी लेती थी और वो मेरी तरह गोलू-पोलू थी और मेरी पडोसी भी थी . संगीता दास मुझे अच्छी लगती थी, क्योंकि वो बहुत अच्चा ब्रेक डांस भी करती थी, साथ में बातें भी अच्छी करती थी,  उसकी और मेरी मम्मी दोनों साथ में एक ही स्कूल में टीचर भी थीं, इसलिए उससे निकटता का अनुभव होता था. संगीता की फ्रेंड थी, प्रीती होरा.पहले उसके लम्बे बाल थे, फिर क्लास 8th में उसने बाल छोटे करा लिए थे और वो स्मार्ट दिखने लग गयी थी. प्रीती, मुझे माफ़ करना पर ये बात लिखने का मन कर रहा है, कि हर बात के बीच में होंठ बजा के चटकारे लेकर  बोलती थी. 
उसने एक बार बाबा सहगल का rap song  गाया था, क्लास में 'हवा हवा ऐ हवा खुशबू लुटा दे, मैंने सोचा पता नहीं, कोई कविता कह रही होगी पर बाद में पता चला कि इसे rap song कहतें हैं, इस तरह संगीत की इस नयी विधा का पता चला. सोनिया बावा थी, एक बेजोड़ डांसर. उसकी तो पता नहीं कितनी फेन होंगी उस स्कूल में. आये दिन उसे छोटे बच्चे, गुलाब, चॉकलेट गिफ्ट करते रहते थे, वो हमारे स्कूल की माधुरी दीक्षित थी. हमारे क्लास की स्वाति जैन भी उसकी एक जबरदस्त फैन्स में से एक थी. सोनिया,स्वाति का एक ग्रुप था, जिसमें क्लास 9th  में जा कर स्निग्धा कान्त भी जुड़ गयी.  रूबी, आशा अग्रवाल, हरमीत,सोनालिका,सम्पूर्णा ये सभी एक ही ग्रुप में रहते थे. रिंकी सारिका के साथ थी, अल्पना, और जया ज्योति की जोड़ी थी. सभी के अपने ग्रुप थे, मेरा ऐसा कोई जोड़ा या तिगड़ी नहीं थी पर मैं मूलतः एक ही ग्रुप में रही जिसमे, सारिका, रिंकी, अनीता सिंह, अल्पना, जया ज्योति हुआ करते थे. हम सब प्राइमरी सेक्शन में  लगे झूले की तरफ टिफिन करने जाते थे और खाना खाकर वहीँ झूलते भी थे कभी-कभी. मैं लम्बी नहीं थी तो मेरे दोस्त मुझे पकड़ के मुझे झूले में टांग देते थे, और फिर में जुट जाती थी अपनी कलाबाजियों में. बहुत बार तो धम्म से गिर भी जाती थी बालू के ढेर में. खेल-कूद में तो मैं बड़ी ही फिस्सडी थी.

शेष आगे.............

कार्मेल स्कूल

कार्मेल स्कूल

कभी-न-कभी हम सभी पुराने दिनों और यादों में लौट जाना चाहते हैं और आज फिर पुराने पन्ने पलटने का मन कर रहा है. पुराना स्कूल मायके की तरह होता है, जहाँ से हम हमेशा जुड़े होतें हैं, चाहे वो पुराने शिक्षक/शिक्षिकाएं हों या पुराने दोस्त. जैसे मायका छूट जाने के बाद वहां की महत्ता ज्यादा पता लगती है, उससे जुड़ाव और ज्यादा हो जाता है, मेरा वही हाल मेरे स्कूल के साथ है. क्लास 6  में लगभग 100  बच्चों की एक क्लास थी, जिसमे क्लास 5 a , b और c सेक्शन के बच्चों के साथ बाहर से आये हुए बच्चों का जमघट लग गया था. हमारी क्लास टीचर थीं, मिस पूर्णिमा सिंह, जो हमारी पड़ोसी भी थी. मैं नवाबगंज में श्री रामनाथ गिरी जी के मकान में रहती थी, जो अनंदा स्कूल में टीचर थे. मिस पूर्णिमा, मिस लिली (संपूर्णा सिकदर की मम्मी) और मिस शिखा रानी सेन आस-पास ही रहते थे. मिस पूर्णिमा और  मिस लिली का घर सटा हुआ था, और मिस शिखा का घर रोड पार करके आता था. बहरहाल 100 या 101 बच्चों के क्लास में पहला रोल नंबर था अल्पना कुमारी का और अंतिम था ज़ेबा कौशर का. मेरा रोल नंबर 76 था और मेरे आगे थी, शेफाली सत्यार्थी. अब्सेंट-प्रेजेंट कहते-कहते ही 15 मिनट गुजर जाते थे. उस समय टीचर हर हफ्ते हमारी सीट बदल देती थी और मेरे साथ बैठती थी अंजना अग्रवाल या जया ज्योति. जया की हंसी मुझे बहुत पसंद थी, हलकी और खनक से भरी हुई.

मैं और मेरी बहिन किशोरी के रिक्शे में आते-जाते थे, पर शनिवार को सिर्फ हाई-स्कूल चलता था, तो मुझे अकेले ही जाना पड़ता था. एक दिन मिस पूर्णिमा ने मुझे अकेले जाते हुए देख लिया तो मुझे अपने साथ ले लिया. उस दिन से शनिवार को हमेशा मैं उन्हीं के साथ स्कूल जाने लग गयी. कभी-कभी उनकी बहिन मिस रागिनी भी साथ होती थी. मिस पूर्णिमा के साथ जाने के कारण मैं खुद को उनके करीब पाने लग गयी थी. वो मैथ्स की शिक्षिका थीं और मुझे सिर्फ अर्थमेटिक ही पसंद था. सबसे मजेदार क्लास थी, जिओग्राफी की. मिस सरोज पॉल थीं टीचर. मुझे पता है आप सब भी मुस्कुरा रहे होंगे नाम पढ़ के. एक ही क्लास में पता नहीं कितने चैप्टर ख़तम कर देती थीं. मुझे याद है जिओग्राफी की कॉपी, एक तरफ लाइन वाली और दूसरी तरफ सफ़ेद पन्ने. हर दिन हर कंट्री का मेप बनाना होता था, होमेवोर्क की कॉपी चेक करने के वक़्त एक- एक 'रो' की बारी आती थी. मैं भी कभी-कभी उस रो मैं बैठ जाती थी, जहाँ की कॉपी चेक हो चुकी हो.कभी वो क्लास में पूछती थी, कौन-कौन ट्रेन में बैठा है, और कौन प्लेन में. सभी बहुत मजा करते थे उस क्लास में.  क्लास 6  से 7th में जाते हुए सब के दिल बैठे हुए थे क्योंकि अब सेक्शन बंटने थे और सब अलग-अलग होने वाले थे. 7 में मुझे मिली A  सेक्शन और फिर 10th तक A ही मेरी क्लास भी रही. 7-10th  तक लगभग सारे सहपाठी भी वही रहे. 
क्लास 7th में हमारी क्लास टीचर थीं मिस माया. बड़ा ही मनहूसियत भरा हुआ वो कमरा था, अँधेरा भरा और काला. मेन हॉल के पास ही था वो. मिस माया हमें सिविक्स पढ़ाती थीं. उस क्लास के बारे में इतना तो याद नहीं मुझे, पर ये जरूर याद है कि मोरल साइंस की क्लास में दोनों सेक्शन साथ बैठते थे, जैसे कोई बिछुड़ा हुआ दोस्त मिल गया हो. जिसकी जो बेस्ट फ्रेंड वो उसी के साथ बैठ जाती थी और ऐसा लाज़मी भी था.   

आँखें

आँखें 

तुमने कहा था, कभी किसी रोज,
कि तुम्हारी आँखें खूबसूरत हैं,
पर इन आँखों में तुम उतरे नहीं,
ये कैसी हकीक़त है ?

कैसे खूबसूरत हो सकती हैं ये आँखें,
जब किसी ने इसे देखा नहीं,
इन काले कंचों के जोड़े में,
नज़रों से कोई खेल खेला नहीं.

दूर तक जब भी देखा,
तो सिर्फ तुम्हारा अक्श दिखता था,
पास तुम्हारे न होते हुए भी,
एक ही शख्स दिखता था, 
 ये वही था, जिसके पास गिरवी 
रखी थीं, मैंने अपनी निगाहें,
आँखें मूँद कर तकती रहीं थी,
खोल कर अपनी ये बाहें,
कि कभी इन रास्तों में तुम
 किसी रोज आ मिलोगे,
लगा कर मुझको गले,
तुम मुझसे ये कहोगे,
कि इन निगाहों ने दिखाया रास्ता मुझको,
तुम्हारे पास आने का,
बंद कर लो अब इन्हें, ये रास्ता ख़तम है,
मिली मंजिल मुझे,खुश हूँ मैं, अब न कोई भरम है.

ऐसा होता काश!
तो मैं आज इन निगाहों में होती,
देखते रहते मुझे तुम
और मैं इन पनाहों में होती,
पर तुम्हारी आँखों ने देखा क्या,
मुझे अब तक पता नहीं,
इन रास्तों में आते हुए
तुम कहीं और चल दिए,
मेरी इन खूबसूरत राहों में
धूल का मंजर दिए हुए,
तब से मेरी आँखों में 
सिर्फ उजाड़ रहता है,
खोई हुई मेरी इन राहों में 
न कोई सार रहता है,
बोझिल हो चुकी है ये नज़रें 
बन चुकी है ये बुत,
अब न कोई पैमाना है इनमें 
न कोई इन नज़रों का साक़ी है,
कितनी गहराइयों में डूबे हुए थे तुम
देखना बस ये बाकी है,
मेरी सूरत गर दिख जाये तुम्हें तो  
हकीक़त बस ये काफी है........ 

२६-१-२०१२

Monday, January 23, 2012

सपने

सपने मैं देखती हूँ हर रोज,
पर पहले इन खुली आँखों से,
बाद में आँखें मूँद कर,
उन्हें नींद में समां लेती हूँ.

हर रोज सोचती हूँ, याद करती हूँ,
अनगिनत कहानियाँ,
सोचते-सोचते सो जाती हूँ,
और ढूँढती हूँ उनमें अपनी ही निशानियाँ

कभी किसी ख्वाब में
देखतीं हूँ, बचपन के सपने,
कभी किसी ख़ास शख्स को,
जो दिल के बहुत करीब था अपने,
कभी पुराना घर तो कभी पुराने दोस्त
और कभी अपनी उम्मीदों  
का अपना सफ़र,
जो पीछे छूट गया कई कहीं किसी रोज

बहुत महत्वाकांक्षी नहीं थी मैं,
न थी जीवन की कोई लम्बी योजना
जो सोचा, लगभग वो सब कर लिया,
थोडा-थोडा ही सही, पर मजा सब का लिया
क्या पता तब मजा ज्यादा आता,
जब सोचती कि मैं छूं लूं आसमां,
दिन में सोचती और रात में छू गयी होती
फिर अपनी जिंदगी का फलसफा समझ आता 

काश! मैं कभी महल बनाने की सोचती
सपनों में तो अबतक बना चुकी होती वो महल,
झटपट बन जातें हैं ये हमारी नींद में,
और नहीं पड़ती इनके बनाने में कोई खलल
तजुर्बा बस बताने का इतना-सा है,
सपने कोई ख्याली पुलाव नहीं होते,
हम जो सोचते हैं इन खुली आँखों से,
दिल में बुन लेते हैं बस जाल उन सब के,
कभी कोशिशें कर लेतें हैं उन्हें पा लेने की,
औ' कभी थक-हार बंद आँखों में 
उन्हें नीदों में उतार लेते हैं..... 

२३-०१-२०१२

Friday, January 20, 2012

दिल-ए-राज

दिल-ए-राज
२०-१-२०१२


उस दिन नींद नहीं आई थी,
जब तुमने बताया था दिल-ए-राज
बेहोश, बदहवास हुई जा रही थी मैं,
रात भर उठती रही, लगा कैसे बिताऊँ मैं अब ये रात

लगा ऐसे, जैसे मेरा कलेजा मुंह को आ गया है,
शब्दों की जगह, भर गया वहां भी खालीपन यही,
न थूकते बना न निगलते ही बना
बेहोश कर देने वाला ये काला ज़हर,
बड़ी मुश्किल से गिन-गिन के गुजारे मैंने उस शब् के पहर

न थी कोई तमन्ना, न ही कोई आरजू,
कि किसी चौराहे में भी तुमसे मिलूँ,
हाँ, दिल के किसी कोने में एक याद का दीया जला रखा था,
जिसमें रोज तुम्हारी यादों की कुछ बूँद डाल दिया करती थी,
उस जलते हुए दीये की कसम, 
अपनी साँसों की एक डोर से हर दिन बाती नयी बुनती थी. 

जलती हुई उस ज्योत को कभी फडफडाने भी न दिया,
दिल के धडकनों से उसे सबसे छिपा रखा था,
अपनी नज़रों से भी कभी देखा न उसे,
दिन-रात बस उसकी तपिश से
दिल के होने का सबब जान लेती थी

अब क्या करूं, क्या कहूं,
इस सच को जानकर भी,
कि मेरे इस अलख की हो गयी तुम्हें भी खबर,
न तुम छुपा सके और न मैं,अपना ये हाल-ए-जिगर,
बेमौत-सी मर गयी मैं और बुदबुदाने लगी
जैसे सूंघा हो सांप और नब्जें बेअसर 

तुमने सोचा सांप का काटा है,
अब बच नहीं पायेगी
अपने दिल के कोने में ये ,
फिर बाती न जला पायेगी
कुछ धीमे-धीमे और जहरीले 
जालों को बुन, छोड़ के तुम चल दिये 
मेरे दिल में, अपने लिए कडवाहट का
दंश भर रास्ता अपना लिए,
पर याद है तुमको रहगुजर,
ज़हर ही ज़हर को मारता है,
प्यार के आगे, नफरतों का कहर हारता है,
उठ के फिर मैं बैठ गयी, 
अब की बारी नि:श्वास,
अपने दिल की हार देख
फिर हो गयीं हूँ बदहवास,
दिन-रात अब ये सोचा करूंगी, 
बाती भी खालिस थी औरतुम्हारी यादों का
पिरोया हुआ तेल  भी

अब कहाँ उगलूँ कहाँ थूकुं,
मैं ये हाल-ए-जिगर
कैसे सम्भालूँ दिल को ये,
जो था कभी लख्ते जिगर,
 सोचती हूँ अब तक गलत थी,
या गलत हूँ मैं आज,   
क्या तुम कोई और तो नहीं, 
क्यों बताया तुम्हें अपना ये दिल-ए-राज ? 
  

Thursday, January 19, 2012

मेरे कुछ शेर खास आपके लिए

१. मेरी आवाज़ में आ अपनी आवाज़ मिला , देख नज़ारा क्या दीया जलता दिखाई देता  है ?

२.  बेबसी और लाचारी है मेरे दोस्त, कोई गम का मारा है ,तो कोई उल्फत का  !!!

३.  मेरे  खून  की  रूमानियत  की  लहर  नहीं  देखी  है  तुमने  रितु , जरा  अन्दर  तो  झांको  जलजला  उफना पड़ा  है  :-)

४.  जुल्म तो जंजीर है  शमा ,बांध कर किये जातें हैं ,हम तो निगाहें मूँद कर भी ,लश्कर उड़ाए जातें हैं।

 ५.  मत खटखटाओ दरवाज़ा मेरे दोस्त इतनी रात में,हौले से पुकारो मेरा नाम,मैं आँखें खुली रखती हूँ !!!!!!!!

६. जो  जल  जातें  हैं  शमा, वो परवाने होते हैं,रात जवान होती है, हम दीवाने हुए जाते हैं .

७.शोले भड़कते हैं ,चरागों से तू काम चला, हम तो कंडी की आग ही सही,धीमे-से सुलग जातें हैं ...

८. बच के दौड़ना इन शोलों में शमा, कांच के टुकड़े छुपा रखे हैं कहीं ,दिल से निकलता खूं जमा देता है जुबान, , पैरों की नहीं लेता कोई खबर .....

९.  लौटकर आयें भी तो क्या सोचकर,एक बार चले जातें हैं बेबस करके, न आने में ही फायदा है ग़ालिब , कई रूह जला जातें हैं रोते-रोते ..... 

१०.बेहिसाब किस्से पढ़े , हज़ार आयतों की तरह , तमाम दर्द समेटे रहे, अपने तकिये में कहीं .....

११. ख्यालों से साज़िश की , गुनाह न कोई मैंने किया , न इलज़ाम तेरे दिल को दिया , न शिकवा मैंने किया

 , हवा की तरह बहती हूँ , मदमस्त, बेख़ौफ़, बेपर्दा,छू के जो निकल गयी तुझे ,जिस्म तेरा हवा क्यों हुआ ? 

१२. बेहिसाब किस्से पढ़े , हज़ार आयतों की तरह , तमाम दर्द समेटे रहे, अपने तकिये में कहीं .....


दायरा

किसी सज्जन ने सिखाया मुझे
दायरे में रहो अपने सदा,
कैसे अपनी ख्वाहिशों को छोड़ें ,
और न हो कभी किसी पे भी फ़िदा

बड़ा अफ़सोस हुआ मुझे
उस अदद आदमी की सोच पर,
रिवाजों, समाजों के चंगुल में फंसा,
दर-ब-दर ठोकरें खाकर.

प्यार कोई खेल नहीं होता,
न ही जिस्मानी होता है और
न किसी के गम की वजह
ये तो एक याद है जो हम सब सजा लेते हैं,
कोई आँखों में, कोई किताबों में तो कोई फोटो में बसा,
अपनी साँसों को इसमें बसा लेते हैं. 

तुम बहुत छोटे हो बच्चू 
अभी मेरी सोच के सामने
अपने दकियानूसी खयालातों को
रखो अपनी जेब में,
तुम कहो तो क्या चाँद रात में ही देखा करें हम,
उगते हुए सूरज में भी देख लेतें हैं उसे हम,
अपनी आँखों को कहो, अपने कोटर में ही रहे,
छुपे दिल की धड़कन से आहटें पहचान लेते हैं हम

कुछ नहीं माँगा है तुमसे मैंने तो कभी,
पुरानी धूल की सिलवट हटाने को था कहा,
अफ़सोस, तुम्हें अबतक न पता,
इन काली परतों को बनाने का मजा क्या है,
कैसे मय्यसर होंगे, तुम्हें इन छुपे काले फाहों के निशान,
एक याद में घुल जाते तो पता चलता कहीं
खुद को दुनिया से छुपाने का मजा क्या है..... 


१९-१-१२


Wednesday, January 18, 2012

जिक्र

बेहिसाब किस्से पढ़े , हज़ार आयतों की तरह  
,
तमाम दर्द समेटे रहे, अपने  तकिये में कहीं .....


किसका गुनाह-

ख्यालों  से  साज़िश  की ,
गुनाह  न कोई  मैंने  किया ,
न  इलज़ाम तेरे दिल को दिया ,
न  शिकवा मैंने  किया ,
हवा की तरह बहती हूँ ,
मदमस्त, बेख़ौफ़, बेपर्दा ,
छू के जो निकल गयी तुझे ,
जिस्म तेरा हवा क्यों हुआ ?

१९-१-१२
  

Tuesday, January 17, 2012

२७.७.2k 


एक विश्रांति थी, आज वह भी ख़त्म हुई,
न जाने आज इन ऊंगलियों मैं कैसी हलचल हुई,
इन नसों में आज कैसी धार बह चली है,
आश्चर्य, धीरे-धीरे न बहकर लगातार बह चली है|

मन मेरे अब आज अपना मौन व्रत तो तोड़ो,
साथ अपने इस त्याज्य सखा को फिर से जोड़ो,
जिसने वर्षों से तुम्हे अब तक संभाले रखा है,
अबतक तुम्हे इस संसार में जकड़ कर रखा है |

उद्गम से निकलकर, अलग होने की पीड़ा मैं भी जानती हूँ,
संभवतः हर बार तुम्हारे साथ होनेवाला यह कर्म मानती हूँ,
पर काल की गति कभी रुकती नहीं,थमकर कभी सोती नहीं,
उठ, आज स्वयं इस दर्द के पारावार से तू मुक्ति पा ले,
ऐसा जीवन छोड़ दे, जिसमे तूने दुखों को रखा संभाले |

महाशोक के क्रूर शोक से, उज्जवल किरण वह फिर तो आएगी,
इस रुके निर्झर से, फिर वह बहकर जाएगी,
मत कर संताप, छोड़ पश्चाताप, मन को अपने ढाढस बंधा,
वह किरण अब दूर जाकर भी, पुनः वही उजाला लाएगी |

Duhswapn

२९.४.९९
दु:स्वप्न

जीवन में  कल एक बार फिर,
तुम्हारा बहुप्रतीक्षित रूप दिखा,
आज प्रातः पहली बेला तक
संभवतः मन से नहीं हटा |

स्वपनलोक में मृगनयनी-सी
मैं चहुँदिशी भटक रही थी,
अपनी कस्तूरी तुम्हे दिखाने,
को मैं इधर खड़ी थी |

पास तुम्हे जब आते देखा,
मन की लहरें तीव्र हुईं,
पर तुम्हारी एक भावना,
तुम्हे मुझसे बड़ी दूर ले गयी|

कभी आम्र वृक्षों की शाखाओं,
पर हाथ रखे तुम हंसके बतियाते थे,
और कभी कुछ कानाफूसी कर,
बातें नयी बनाते थे |

मन की जिज्ञासाओं को,
अपनी शांत कराना मुश्किल था,
अपनी तीव्र पिपासा को,
खुद से समझाना मुश्किल था |

इस भावना को तुमसे बंधा देख,
मैं क्षणभर को सिहर गयी,
अपनी इस लम्बी तपस्या का,
परिणाम सोचकर ठिठक गयी|

यह मेरा एक दु:स्वपन था,
जो बीती रात ही चला गया,
अपनी अमित स्मृतियाँ छोड़े जिसने,
मुझे यह करने को विवश किया |

मेरी इस व्याकुल व्यथा को,
आकर प्राण कब समझोगे,
कब तक आशा मैं ये रखूँ,
कि इस द्वार पर तुम दस्तक दोगे |