पहाड़ की डायरी-2
मैंने पहले बताया था खाने की अव्यवस्थाओं को लेकर कितनी खींचातानी हुई थी । अब आगे……
रेस्ट हाउस के रसोइयों ने इस बात का भी जिक्र किया कि वे वहां से करीब 8-10 km दूर रहतें हैं, और हफ्ते में सिर्फ एक ही दिन अपने घर जा पाते हैं। हफ्ते भर का राशन वो अपनी साइकिल में बांध के ले आते हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि उनकी तनख्वाह भी रेगुलर नहीं थी, दिहाड़ी में काम करते थे वो। मेरा गुस्सा काफूर हो गया, यह जानकर कि जो खुद दो जून की रोटी सही से नहीं खा रहे, वो भला हमें क्या खिला पायेंगे। अलबत्ता, जितना मिला, उतने में ही खुश हो लिए ... हम फ़िक्र में धुआं उड़ाते चल दिये.
बिनसर से कौसानी के लिए निकले। बड़े होने के बाद कौसानी जाने का बड़ा मन करता था, हाँ! बताती हूँ क्यों? बचपन से ये कहानी-किस्सागो लगता था। मेरी मम्मी बहुत कम उम्र (करीब 25 साल की) में ही कौसानी बॉयज स्कूल की वाईस-प्रिंसिपल बन गयी थी। बहुत कठिनाई से अपने जीवन की शुरुआत की थी उन्होंने, स्वयं के अलावा परिवार के भरणपोषण का एक बड़ा जिम्मा उठाने लगी थीं वो। वो बताती हैं कि वहां के प्रिंसिपल साहब ने उन्हें कार्यभार सुपुर्द करते समय बड़े पापड़ बेलवाये थे। बहरहाल, बिनसर से कौसानी करीब 65 km है और हम लोग वहां शाम को पहुंचे। हम वहां एक तथाकथित बड़े से होटल में रुके। यहाँ यह जरूर बता दूं कि करीब 50-60 कमरों वाले इस होटल में एक दक्षिण भारतीय कुनबे के अलावा एक परिंदा भी पर नहीं मार रहा था। चलो, एक हम भी पहुँच गए। एक से भले दो। कहीं ये जरूर कहूँगी कि ऊँची दुकान, फीके पकवान। आज मुझे ये बात पढ़ के अजीब लगती है कि केदारनाथ के पीड़ितों को पांच सौ रुपये में एक कटोरी चावला (भात), दो सौ में बिस्कुट दे रहे हैं। हमने भी कमोबेश ऐसा ही देखा, खाने की गुणवत्ता के हिसाब से कीमतें आकाश छू रहीं थीं, पर मरता क्या न करता, जो मिला वो खा लिया। वहां की व्यवस्थाएं देख कर वहां रुकने का ज्यादा मन नहीं किया, सो उठाया बोरा-बिस्तर और चल दिए, अपनी भूमि अल्मोडा की ओर। अल्मोड़ा और कौसानी के बीच करीब 45 km का लम्बा सफ़र था। इस बार हमने मन बना लिया था कि वहां के लोगों के बीच बैठे सफ़र का आनंद उठाएंगे, सो एक सूमो में बैठ लिए।
पैसा कमाने के चक्कर में उस गाड़ीवाले ने अपने अन्दर के इंसान को जिन्दा रखा था। जितनी सीटें थीं, उतने ही यात्री , कुछ भी फालतू नहीं। गाड़ी के अन्दर जानवरों की तरह उसने यात्रियों को भर नहीं रखा था। उसकी बातें सुन के लग रहा था, कि उसकी एक और गाड़ी थी, जिसे ड्राईवर चुरा के ले गया था और वह खुद उस गाड़ी का मालिक था। परेशान लग रहा था वह। गाड़ी चलने ही वाली थी और एक पंडित जी ने नयी यात्रा शुरू करने से पहले उन्होंने गाड़ी के सभी यात्रियों को पिठिया ( रोली) से भरी थाली दी, और सबने पिठिया लगा लिया। कोई लालच नहीं, कोई लोभ नहीं। ड्राईवर ने पूजा की थाली में 10 रुपये रखे और यात्रा शुरु। वैसे आज के ज़माने में दस रुपये में क्या होता है. इसे कहतें हैं, संतोषं परमं सुखं। न कोई मोल-मोलाई न उनसे श्रापे जाने का कोई भय, बस लाल और पीले चंदन चंदन से सजे अपने सुन्दर माथे को लेकर हम आगे के लिए निकल पड़े। हम बीच की सीट पर बैठे थे, और आगे ड्राईवर के अलावा 2 लोग थे, साथ में उनके थी एक नन्हीं-सी, प्यारी-सी बच्ची। मम्मी की गोद में चिपकी वो बच्ची पलट- पलट के पीछे देखे जा रही थी और कह रही थी बच्चे बैठें हैं पीछे। हमारी नानी थी वो... उसकी मम्मी ने ड्राईवर को बताया कि वो बीमार है और एक दिन पहले उसके चाचा ने अल्मोड़ा के डॉ गोसाई से मिलने का समय ले रखा था। ऐसे तो वह देखने में ठीक ही लग रही थी पर विचारणीय बात यह थी कि हलके बुखार से पीड़ित उस बच्ची को देखने के लिए कौसानी में एक अच्छा डॉक्टर भी नहीं था। मालूम करने पर पता चला कि वहां के लोगों को हर बीमारी के इलाज़ के लिए अल्मोड़ा ही दौड़ना पड़ता है। कौसानी में इलाज़ के क्या साधन हैं, दवा-दारु की क्या व्यवस्था है, इसका अंदाज़ा लगाना मेरे लिए बड़ा ही कठिन था। दवा का तो पता नहीं, पर दारु की अच्छी व्यवस्था का अंदाज़ा लगाया जा सकता था क्योंकि कौसानी टैक्सी स्टैंड में शाम को 5 बजे ही बेवडों की पलटन अच्छी खासी महसूस होने लगी थी …
हमारे बाबू (दादा जी) पहाड़ पर एक व्यंग हमेशा कहा करते थे,
सदा शिकारम, भोजना दगाडम, बेय ब्याल पड गयीं, गदुआ का झाडम।
यह बात बड़ी कचोटने वाली यह थी कि दिल्ली में बैठ कर हम लोग, आज अपने आस-पास एम्स, फोर्टिस, मैक्स और अनगिनत हॉस्पिटल पाकर भी नुक्ताचीनी करते रहते हैं, पता नहीं वहां के लोग अपने इलाज के लिए किस भगवान का नाम लेते होंगे, किस देव की शरण में जाते होंगे ...
मैंने पहले बताया था खाने की अव्यवस्थाओं को लेकर कितनी खींचातानी हुई थी । अब आगे……
रेस्ट हाउस के रसोइयों ने इस बात का भी जिक्र किया कि वे वहां से करीब 8-10 km दूर रहतें हैं, और हफ्ते में सिर्फ एक ही दिन अपने घर जा पाते हैं। हफ्ते भर का राशन वो अपनी साइकिल में बांध के ले आते हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि उनकी तनख्वाह भी रेगुलर नहीं थी, दिहाड़ी में काम करते थे वो। मेरा गुस्सा काफूर हो गया, यह जानकर कि जो खुद दो जून की रोटी सही से नहीं खा रहे, वो भला हमें क्या खिला पायेंगे। अलबत्ता, जितना मिला, उतने में ही खुश हो लिए ... हम फ़िक्र में धुआं उड़ाते चल दिये.
बिनसर से कौसानी के लिए निकले। बड़े होने के बाद कौसानी जाने का बड़ा मन करता था, हाँ! बताती हूँ क्यों? बचपन से ये कहानी-किस्सागो लगता था। मेरी मम्मी बहुत कम उम्र (करीब 25 साल की) में ही कौसानी बॉयज स्कूल की वाईस-प्रिंसिपल बन गयी थी। बहुत कठिनाई से अपने जीवन की शुरुआत की थी उन्होंने, स्वयं के अलावा परिवार के भरणपोषण का एक बड़ा जिम्मा उठाने लगी थीं वो। वो बताती हैं कि वहां के प्रिंसिपल साहब ने उन्हें कार्यभार सुपुर्द करते समय बड़े पापड़ बेलवाये थे। बहरहाल, बिनसर से कौसानी करीब 65 km है और हम लोग वहां शाम को पहुंचे। हम वहां एक तथाकथित बड़े से होटल में रुके। यहाँ यह जरूर बता दूं कि करीब 50-60 कमरों वाले इस होटल में एक दक्षिण भारतीय कुनबे के अलावा एक परिंदा भी पर नहीं मार रहा था। चलो, एक हम भी पहुँच गए। एक से भले दो। कहीं ये जरूर कहूँगी कि ऊँची दुकान, फीके पकवान। आज मुझे ये बात पढ़ के अजीब लगती है कि केदारनाथ के पीड़ितों को पांच सौ रुपये में एक कटोरी चावला (भात), दो सौ में बिस्कुट दे रहे हैं। हमने भी कमोबेश ऐसा ही देखा, खाने की गुणवत्ता के हिसाब से कीमतें आकाश छू रहीं थीं, पर मरता क्या न करता, जो मिला वो खा लिया। वहां की व्यवस्थाएं देख कर वहां रुकने का ज्यादा मन नहीं किया, सो उठाया बोरा-बिस्तर और चल दिए, अपनी भूमि अल्मोडा की ओर। अल्मोड़ा और कौसानी के बीच करीब 45 km का लम्बा सफ़र था। इस बार हमने मन बना लिया था कि वहां के लोगों के बीच बैठे सफ़र का आनंद उठाएंगे, सो एक सूमो में बैठ लिए।
पैसा कमाने के चक्कर में उस गाड़ीवाले ने अपने अन्दर के इंसान को जिन्दा रखा था। जितनी सीटें थीं, उतने ही यात्री , कुछ भी फालतू नहीं। गाड़ी के अन्दर जानवरों की तरह उसने यात्रियों को भर नहीं रखा था। उसकी बातें सुन के लग रहा था, कि उसकी एक और गाड़ी थी, जिसे ड्राईवर चुरा के ले गया था और वह खुद उस गाड़ी का मालिक था। परेशान लग रहा था वह। गाड़ी चलने ही वाली थी और एक पंडित जी ने नयी यात्रा शुरू करने से पहले उन्होंने गाड़ी के सभी यात्रियों को पिठिया ( रोली) से भरी थाली दी, और सबने पिठिया लगा लिया। कोई लालच नहीं, कोई लोभ नहीं। ड्राईवर ने पूजा की थाली में 10 रुपये रखे और यात्रा शुरु। वैसे आज के ज़माने में दस रुपये में क्या होता है. इसे कहतें हैं, संतोषं परमं सुखं। न कोई मोल-मोलाई न उनसे श्रापे जाने का कोई भय, बस लाल और पीले चंदन चंदन से सजे अपने सुन्दर माथे को लेकर हम आगे के लिए निकल पड़े। हम बीच की सीट पर बैठे थे, और आगे ड्राईवर के अलावा 2 लोग थे, साथ में उनके थी एक नन्हीं-सी, प्यारी-सी बच्ची। मम्मी की गोद में चिपकी वो बच्ची पलट- पलट के पीछे देखे जा रही थी और कह रही थी बच्चे बैठें हैं पीछे। हमारी नानी थी वो... उसकी मम्मी ने ड्राईवर को बताया कि वो बीमार है और एक दिन पहले उसके चाचा ने अल्मोड़ा के डॉ गोसाई से मिलने का समय ले रखा था। ऐसे तो वह देखने में ठीक ही लग रही थी पर विचारणीय बात यह थी कि हलके बुखार से पीड़ित उस बच्ची को देखने के लिए कौसानी में एक अच्छा डॉक्टर भी नहीं था। मालूम करने पर पता चला कि वहां के लोगों को हर बीमारी के इलाज़ के लिए अल्मोड़ा ही दौड़ना पड़ता है। कौसानी में इलाज़ के क्या साधन हैं, दवा-दारु की क्या व्यवस्था है, इसका अंदाज़ा लगाना मेरे लिए बड़ा ही कठिन था। दवा का तो पता नहीं, पर दारु की अच्छी व्यवस्था का अंदाज़ा लगाया जा सकता था क्योंकि कौसानी टैक्सी स्टैंड में शाम को 5 बजे ही बेवडों की पलटन अच्छी खासी महसूस होने लगी थी …
हमारे बाबू (दादा जी) पहाड़ पर एक व्यंग हमेशा कहा करते थे,
सदा शिकारम, भोजना दगाडम, बेय ब्याल पड गयीं, गदुआ का झाडम।
यह बात बड़ी कचोटने वाली यह थी कि दिल्ली में बैठ कर हम लोग, आज अपने आस-पास एम्स, फोर्टिस, मैक्स और अनगिनत हॉस्पिटल पाकर भी नुक्ताचीनी करते रहते हैं, पता नहीं वहां के लोग अपने इलाज के लिए किस भगवान का नाम लेते होंगे, किस देव की शरण में जाते होंगे ...