Saturday, June 22, 2013

पहाड़ की डायरी-2

पहाड़ की डायरी-2
 
मैंने पहले बताया था खाने की अव्यवस्थाओं को लेकर कितनी खींचातानी हुई थी । अब आगे……

 रेस्ट हाउस के रसोइयों ने इस बात का भी जिक्र किया कि वे वहां से करीब 8-10 km दूर रहतें हैं, और हफ्ते में सिर्फ एक ही दिन अपने घर जा पाते हैं। हफ्ते भर का राशन वो अपनी साइकिल में बांध के ले आते हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि उनकी तनख्वाह भी रेगुलर नहीं थी, दिहाड़ी में काम करते थे वो। मेरा गुस्सा काफूर हो गया, यह जानकर कि जो खुद दो जून की रोटी सही से नहीं खा रहे, वो भला हमें क्या खिला पायेंगे। अलबत्ता, जितना मिला, उतने में ही खुश हो लिए ... हम फ़िक्र में धुआं उड़ाते चल दिये.

बिनसर से कौसानी के लिए निकले। बड़े होने के बाद कौसानी जाने का बड़ा मन करता था, हाँ! बताती हूँ क्यों? बचपन से ये कहानी-किस्सागो लगता था। मेरी मम्मी बहुत कम उम्र (करीब 25 साल की)  में ही कौसानी बॉयज स्कूल की वाईस-प्रिंसिपल बन गयी थी। बहुत कठिनाई से अपने जीवन की शुरुआत की थी उन्होंने, स्वयं के अलावा परिवार के भरणपोषण का एक बड़ा जिम्मा उठाने लगी थीं वो। वो बताती हैं कि वहां के प्रिंसिपल साहब ने उन्हें कार्यभार सुपुर्द करते समय बड़े पापड़ बेलवाये थे। बहरहाल, बिनसर से कौसानी करीब 65 km है और हम लोग वहां शाम को पहुंचे। हम वहां एक तथाकथित बड़े  से होटल में रुके। यहाँ यह जरूर बता दूं कि करीब 50-60 कमरों वाले इस होटल में एक दक्षिण भारतीय कुनबे के अलावा एक परिंदा भी पर नहीं मार रहा था। चलो, एक हम भी पहुँच गए। एक से भले दो। कहीं ये जरूर कहूँगी कि ऊँची दुकान, फीके पकवान। आज मुझे ये बात पढ़ के अजीब लगती है कि केदारनाथ के पीड़ितों को पांच सौ रुपये में एक कटोरी चावला (भात), दो सौ में बिस्कुट  दे रहे हैं। हमने भी कमोबेश ऐसा ही देखा, खाने की गुणवत्ता के हिसाब से कीमतें आकाश छू रहीं थीं, पर मरता क्या न करता, जो मिला वो खा लिया। वहां की व्यवस्थाएं देख कर वहां रुकने का ज्यादा मन नहीं किया, सो उठाया बोरा-बिस्तर और चल दिए, अपनी भूमि अल्मोडा की ओर। अल्मोड़ा और कौसानी के बीच करीब 45 km का लम्बा सफ़र था। इस बार हमने मन बना लिया था कि वहां के लोगों के बीच बैठे सफ़र का आनंद उठाएंगे, सो एक सूमो में बैठ लिए।
पैसा कमाने के चक्कर में उस गाड़ीवाले ने अपने अन्दर के इंसान को जिन्दा रखा था। जितनी सीटें थीं, उतने ही यात्री , कुछ भी फालतू नहीं। गाड़ी के अन्दर जानवरों की तरह उसने यात्रियों को भर नहीं रखा था।  उसकी बातें सुन के लग रहा था, कि उसकी एक और गाड़ी थी, जिसे ड्राईवर चुरा के ले गया था और वह खुद उस गाड़ी का मालिक था। परेशान लग रहा था वह। गाड़ी चलने ही वाली थी और एक पंडित जी ने नयी यात्रा शुरू करने से पहले उन्होंने गाड़ी के सभी यात्रियों को पिठिया ( रोली) से भरी थाली दी, और सबने पिठिया लगा लिया। कोई लालच नहीं, कोई लोभ नहीं। ड्राईवर ने पूजा की थाली में 10 रुपये रखे और यात्रा शुरु। वैसे आज के ज़माने में दस रुपये में क्या होता है. इसे कहतें हैं, संतोषं परमं सुखं। न कोई मोल-मोलाई न उनसे श्रापे जाने का कोई भय, बस लाल और पीले चंदन चंदन से सजे अपने सुन्दर माथे को लेकर हम आगे के लिए निकल पड़े। हम बीच की सीट पर बैठे थे, और आगे ड्राईवर के अलावा 2  लोग थे, साथ में उनके थी एक नन्हीं-सी, प्यारी-सी बच्ची। मम्मी की गोद में चिपकी वो बच्ची पलट- पलट के पीछे देखे जा रही थी और कह रही थी बच्चे बैठें हैं पीछे। हमारी नानी थी वो... उसकी मम्मी ने ड्राईवर को बताया कि वो बीमार है और एक दिन पहले उसके चाचा ने अल्मोड़ा के डॉ गोसाई से मिलने का समय ले  रखा था। ऐसे तो वह देखने में ठीक ही लग रही थी पर विचारणीय बात यह थी कि हलके बुखार से पीड़ित उस बच्ची को देखने के लिए कौसानी में एक अच्छा डॉक्टर भी नहीं था। मालूम करने पर पता चला कि वहां के लोगों को हर बीमारी के इलाज़ के लिए अल्मोड़ा ही दौड़ना पड़ता है। कौसानी में इलाज़ के क्या साधन हैं, दवा-दारु की क्या व्यवस्था है, इसका अंदाज़ा लगाना मेरे लिए बड़ा ही कठिन था। दवा का तो पता  नहीं, पर दारु की अच्छी व्यवस्था का अंदाज़ा लगाया जा सकता था क्योंकि कौसानी टैक्सी स्टैंड में शाम को 5 बजे ही बेवडों की पलटन अच्छी खासी महसूस होने लगी थी …

हमारे बाबू (दादा जी) पहाड़ पर एक व्यंग हमेशा कहा करते थे,
 सदा शिकारम, भोजना दगाडम, बेय ब्याल पड गयीं, गदुआ का झाडम।

यह बात बड़ी कचोटने वाली यह थी कि दिल्ली में बैठ कर हम लोग, आज अपने आस-पास एम्स, फोर्टिस, मैक्स और अनगिनत हॉस्पिटल पाकर भी नुक्ताचीनी करते रहते हैं, पता नहीं वहां के लोग अपने इलाज के लिए किस भगवान का नाम लेते होंगे, किस देव की शरण में जाते होंगे ...

Friday, June 21, 2013

पहाड़ की डायरी

पहाड़ की डायरी

यूँ तो मन नहीं कर रहा है, बहुत ही विचलित कर देने वाली प्राकृतिक विपदा से मन कुम्हला गया है, दुःख से द्रवित है, पर अपनी मिटटी से जुड़े होने के कारण अपने विचार व्यक्त करना छोड़ भी नहीं सकती। आज से करीब एक महीने पूर्व ही मैं पहाड़ों (डानों) के दर्शन करके आई, पर ऐसा कुछ खास उमंग भरा कुछ भी नहीं रहा, कुछ स्थितियों के लिए तो हम खुद ही जिम्मेदार थे, और कुछ वहां की सामजिक, भॊगोलिक व्यवस्था देख के ह्रदय विदीर्ण-सा हुआ जा रहा था।

अल्मोड़ा से तो मेरा वैसा ही लगाव है, जैसा कृष्ण का वृन्दावन से. यह बहुत ही स्वाभाविक-सी बात थी, कि वहां तो मेरा जाना जरूर ही होता . पर कहानी शुरू होती है हल्द्वानी से, जहाँ से पहाड़ों की गुफाएं खुलती हैं। हल्द्वानी से बिनसर जाने का हमारा इरादा था और वन विभाग के एक गेस्ट हाउस में बुकिंग हो रखी थी। हल्द्वानी से अल्मोड़ा होते हुए हम बिनसर के लिये निकले थे। बेहद उत्साहित और अपनी धरती को छू लेने से ही अपने पहाडी होने का अहसास अविरल हिलोरे मार रहा था, कहीं भीतर। बिनसर में रेस्ट हाउस 0 पॉइंट में था, मतलब कि वहां 'न कोई बंदा, न बन्दे की जात'. देवदारों के सघन जंगलों से जाती हमारी गाड़ी और पृथ्वी से घर्षण करते गाड़ी से टायरों की आवाज़ से ही हमारा खून सूखे जा रहा था। भरे दिन के वक़्त रास्ते में अपनी साँसों की रफ़्तार और जंगलों से आती कीड़े-मकोड़ों की खुसफुसाहट मुझे क्या सोचने को मजबूर कर रही थी कि मैं आपको बता भी नहीं सकती। बिनसर से करीब 15  KM आगे जाकर ये रेस्ट हाउस था। वहां पहुँचने से  पहले नीचे ही हमसे कई प्रकार के टैक्स वसूल कर लिए गए। उस ऑफिस को देख कर ऐसा लगा कि सच में खज़ाना हाथ लग गया, और अब यहाँ खूब मजे करके जायेंगे। करीब दिन में 12 बजे हम वहां पहुंचे। गेस्ट हाउस काफी बड़ा था और हम लोग 5 लोग थे। 3  बड़े और 2 बच्चे। सबसे खूबसूरत और हैरान करने की बात यह थी की पूरा रेस्ट हाउस हमारे लिए बुक किया गया था। बिनसर जाते हुए कसारदेवी के पास हम चाय पीने के लिए रुके थे। चाय तो नहीं पी, पर कोल्ड ड्रिंक जरूर पी ली वहां एक नया विक्रय तरीका देख मुस्की काटे बिना नहीं रहा गया। कोल्ड ड्रिंक की नार्मल बोतल 10 रुपये की थी और बिक रही थी 12 में, जानते हैं क्यों? 2 रूपया फ्रिज में रखकर ठंडा करने के लिए। वहां के दुकानदार ने पूछा हमारे गंतव्य के बारे में, तो उन्होंने हिदयातन हमसे यह जरूर कह दिया कि अपने साथ खाने-पीने की सामग्री जरूर ले लेना, कुछ मैगी, ओट, और हलके-फुल्के खाने पीने की चीज़ें तो हम दिल्ली से ही ले के चले थे, पर फिर भी एहतियातन हमने ब्रेड, बटर, आलू, दूध  चाय पत्ती जैसी मौलिक चीज़ें अपने साथ ले लीं।
बिनसर गेस्ट हाउस पहुंचे और वहां की प्राकृतिक छटा देख के मन गदगद हो उठा। वहां के स्टाफ ने बड़े ही गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया और हमारा सामान कमरों में रखवा दिया। कई घंटो के सफ़र से थका हम सबका शरीर चाय का प्यासा था। वहां के स्टाफ कम खानसामे को हमने चाय का आर्डर दिया, गरम चाय माँगने के सबब में एक ठंडा-सा  उत्तर मिला, साहब! यहाँ तो सामान नहीं होता, आपको खुद ही लाना पड़ेगा। भारत सरकार के एक बेहद खूबसूरत से अतिथि-गृह में स्वागत की इस भव्यता से हम इतने आहत हो गए कि मन किया काश! पहाड़ों से  नीचे कूद पड़ने पर गर कुछ न होता तो सीधे वसंत कुंज में आ टपकती। करेला, ऊपर से नीम चढ़ा ....... उसी गेस्ट हाउस में पीछे की तरफ बैठे थे एक बुजुर्ग दंपत्ति। जो कहीं नीचे प्राइवेट रेस्ट हाउस में रह रहे थे और उन्होंने ऊपर सामान ला कर गेस्ट हाउस की रसोई में खाने का आर्डर दे रखा था। भगवान की कृपा और उस भलमानस दुकानदार की सूझ-बूझ थी की हमने दूध, चीनी, और चाय पत्ती उसी की दुकान से खरीद ली थी। हमने उन्हें चाय बनाने का आर्डर दिया और साथ ही खाने के बारे में भी एक काल्पनिक मेनू पूछना चाहा। उन्होंने बताया कि यहाँ 0 पॉइंट में यात्रियों को रहने के लिए इस रैनबसेरे के अलावा और कुछ नहीं मिलता। न खाना, न चाय और न ही कुछ। उसने हमें सलाह दी कि 15 km पहले जो जगह है वहां से  1-2 दिन का रसद लाया जा सकता है। पर हमने हल्द्वानी से बुक की हुई गाड़ी वापस लौटा दी थी। तो अब करें भी तो क्या करें? हमने अपने बैग से खाने की जितनी भी सामग्री थी, बाहर निकाली और उन्हें बनाने के लिए दे दी। मैगी बनी, चाय बनी, ब्रेड गरम हुए और हमने प्याज़ टमाटर और नमकीन के साथ मिला कर उस सुस्वादु भोजन का आनंद लिया।

अब मेरे मन में सवाल उठता है कि कई हज़ार रुपये खर्च करने के बाद क्या हम ऐसे आतिथ्य के भागी थे। जब बुकिंग की गयी थी, तब ही साफ़-साफ़ शब्दों में क्यों नहीं बतलाया गया कि  खाने का कोई प्रबंध नहीं होगा, अपने जिन्दा रहने की सामग्री स्वयं ले के आयें।  हमारी भारतीय संस्कृति तो कहती है 'अतिथि देवो भव', और कलयुग में आज भी पतन के गर्तों में समाये हम मानव अपने अतिथियों से उनके जीने के सामान के आकांक्षी नहीं होते।
ऐसे समय में यही कहावत याद आती है,

रूखा-सूखा खाय के ठंडा पानी पी,
देख परायी चूपड़ी, मत ललचायें जी .....

जी के ललचने का तो सवाल ही नहीं होता पर रुखा-सूखा भी हाथ नहीं लगा। सरकारी सुविधाएं नाम की ही होती हैं, जब मौसम खुशगवार था, तब सरकारी रवैय्या कितना बेपरवाह था, आज वहां लोगों का क्या हाल होगा ये सोच के ही शब्द मौन हो गयें हैं।

शेष आगे .....