Saturday, September 10, 2011

विसर्जन


विसर्जन

अपने मन के मंदिर में मैंने सजाएं हें कई भगवान,
जो दिखते उनसे हैं, पर हैं इंसान,
न किसी में कोई फर्क, न ही कोई भेद,
भगवानों की तरह उन सबकी पदवी भी एक.
सबको एक भाव से पूजती हूं,
एक ही भाव से करती हूं उन सबका ध्यान,
कभी दीपक जलाकर, कभी धूप दिखाकर
करती रहती हूं उन सबका गुणगान.
     
    इस मंदिर में कभी कोई आता है,
    और कभी चला भी जाता है,
    कोई जगह कभी खाली नहीं रहती,
    सिर्फ समय बदलता जाता है

     कभी उन्हें स्थापित कर करतीं हूं वंदन-पूजन,
     नित्य नये मंत्रों से होता है स्तवन,
     नित नये गान, नये साज बजाकर रिझाती हूं,
     फूलों की नयी मालाओं से उनको सजाती हूं
     फिर भी वे मौन ही रहतें हैं,
     मन के मेरे मंदिर से जुड़े रहतें है


           रस्मों- रिवाजों के दौर के बाद
          होती है उनकी विदाई की बारी
     अपना बनाके आती है फिर जुदाई की बारी
     मन सहम जाता है, शून्य हो जाता है,
     चारों ओर खाली-सा दिखता है

    भगवान की लीला अपरंपार है
   अपनी विदाई में तो उल्लास लातें हैं,
   महोत्सव मनवाते हैं, खुशी बांटतें हैं
   पर इंसान के जाने का दर्द, कितना निमर्म देते हैं,
   हर जगह शोक,क्रंदन,निराशा भर देते है

   इंसानों के गमन को वह मृत्यु कहतें हैं
   पर अपने गमन को विसर्जन की संज्ञा देतें हैं,
   पर मन तो मेरा हैं और मंदिर भी मेरा
   उसमें बैठे इंसानों के बारे में सोचने का हक भी मेरा
   आज से मैं इस गमन को नया नाम देती हूं 
   और मृत्यु के बदले विसर्जन दे इसे विश्राम देती हूं.

शिप्रा पाण्डेय शर्मा
10-9-11

Friday, May 6, 2011

माउन्ट कार्मेल स्कूल, हजारीबाग

माउन्ट कार्मेल स्कूल, हजारीबाग

अपने जीवन का एक बहुत महत्त्वपूर्ण हिस्सा मैंने इस स्कूल में बिताया है, सो आप सब लोगों के साथ इसे भी बांटने की तीव्र इच्छा है.

मैंने ३१.०७.१९८६ में उस स्कूल में दाखिला लिया था, और उसी दिन से हो गयी थी मैं इसी स्कूल की.पहला दिन स्कूल का, और मैं किसी को जानती नहीं थी, मेरी क्लास थी 5thC. 'सी' सेक्शन इसलिए क्योंकि वह 'हिंदी'
 बोलने और पढने वाले बच्चों की क्लास थी.  कार्मेल में आने से पहले मैं सरस्वती शिशु मंदिर,अल्मोड़ा में पढ़ती थी, एक पूर्णरूपेण हिंदी स्कूल, जहाँ के आचार-विचार में संपूर्ण भारतीयता थी. मेरी क्लास में नूर मरियम लकड़ा, अंशु, किरण, पिंकी,सलोनी नाम की अन्य लडकियां भी थीं. मेरे ख्याल से उन सब में डील-डौल के हिसाब से मैं थोड़ी छोटी लगती थी. और भी कई लडकियां भी थीं, जिन्हें दिल्ली के स्कूल सिस्टम के हिसाब से आज EWS कैटेगरी में रखा जा सकता है,क्योंकि ऐसा लगता था कि वे समाज के काफी निचले स्तर से आती थीं. हमारी स्कूल की प्रिंसिपल सिस्टर ऐथेल थीं. स्कूल का पहला दिन था और लंच टाइम हो चुका था, और भूख भी बहुत लग रही थी, स्कूल के उस पहले दिन मैंने और मेरी बहन ने एक साथ लंच किया. मेरी दोस्तों के बीच धीरे-धीरे मेरी दोस्ती बढ़ने लग गयी थी, उन सब लड़कियों मैं मुझे नूर बहुत पसंद थी, क्योंकि वो बहुत अच्छा गाती थी.मैं एक संस्कृत प्रधान स्कूल से एक कॉन्वेंट में आई थी, तो वहां के रहन-सहन, डिसीप्लिन को समझने में थोडा टाइम लग गया, पर सबसे अच्छी बात ये थी, कि स्कूल में घुसते के साथ ही 'चैपेल' के बाहर हम अपना बैग रखते थे और फिर अन्दर जाकर cross  बनाते थे, और दिवार के किनारे लगी कटोरी से 'ग्रेप जूस'पीते थे, जिसे वहां 'सेक्रेड वाटर' भी कहते थे.अब मेरे अन्दर carmelite बनने के सारे गुण धीरे-धीरे आने लग गए थे. Jesus को देखना अच्छा लगने लगा था, क्योंकि स्कूल आने से पहले मैंने उन्हें कभी इतने करीब से देखा नहीं था. एक टीचर थीं मिस रागिनी, जो मुझे बहुत मानती थी, क्योंकि मेरी संस्कृत उन्हें बहुत पसंद थी और वो क्लास के बीच में खड़ा कर मुझसे कभी भी कुछ भी पूछ लेती थी. सारी टीचर्स बहुत अच्छी थीं, पर मिस अन्नाकुत्टी के नाम से मेरे पसीने आने लगते थे.एक तो वो कुछ भी बोलती थीं और वो कुछ दक्षिण भारतीय स्टाइल में बोलती थीं या तो इंग्लिश में बोलती थी, जो मेरे पल्ले बहुत कम पड़ती थी. एक बार की बात है,टिफिन के बाद ही SUPW की क्लास थी और मेरे पास सुई-धागा नहीं था, मुझे ये लगा कि अब क्या करूँ, पनिशमेंट खाने से अच्छा ये लगा कि घर जा कर  सुई-धागा ले आऊँ, और मैं रिक्शे में घर जा के सब कुछ ले आई , पर घर जा के तो इस बात का मजाक तो इतना बनाया गया कि ये वाक्या परिवार के लोगों को भुलाये नहीं भूलता.
 अब धीरे-धीरे सेशन ख़तम होने का टाइम आया और रिजल्ट वाला दिन भी आ गया. स्कूल के पीछे डायनिंग हॉल था, जहाँ रिजल्ट भी मिला था और क्रिसमस गिफ्ट भी. कुछ हैयेर बैंड, कुछ क्लिप्स और टॉफी और चोकलेट भी मिले.वो मेरी परफेक्ट ट्रीट थी.
अब में क्लास 6th में आ चुकी थी. क्लास का पहला दिन था और स्कूल एसेम्बली बहुत बड़े युकिलिप्ट्स पेड़ के नीचे शुरू हो रही थी और क्लास 6th का स्वागत हो रहा था और मैं कम लम्बी होने के कारण लाइन में सबसे आगे खड़ी थी और साथ ही साथ वहीँ हमारी ऐटन्डेंस भी हो रही थी, तभी एक लम्बी-सी टीचर वहां आयीं और उन्होंने मुझे पुचकार कर के कहा, बेटा आपकी एसेम्बली वहां हो रही है, आप वहां जाइये... वो मुझसे बहुत प्यार से बोलीं जा रहीं थीं. और मैं धीरे-धीरे परेशान भी हो रही थीं कि वे मुझे वापस क्यों भेज रहीं हैं, क्योंकि उनका इशारा मुझे वापस प्राइमरी सेक्शन में भेजने का था और हो सकता है. कि वो ये भी सोच रहीं हों कि मैं गलती से इस जगह आ गयी, फिर काफी छानबीन के बाद पता चला कि असली में मेरा प्रमोशन क्लास 6th में हुआ है और इस प्रकार उन्होंने इस बात के पुष्टि होने के बाद मुझे अपनी गोद में ही उठा लिया और आज भी मैं उन प्यारी और मृदुभाषी  टीचर को भूल ही नहीं सकती, वो कोई और नहीं, वो थी हम सबकी प्यारी मिस सुचिता शेखर, जो बाद में जाकर क्लास 9th A में हमारी क्लास टीचर भी बन गयीं, जिन्हें एक बार मैंने स्कूल में आधी नींद में 'मम्मी' भी कह दिया था. 
------आगे कल-------------    


Wednesday, May 4, 2011

पुरुष

२९-१०-१९९९ 
 पुरुष
पुरुष जब नीर बहाता है,
तब वह नारी से भी दीन नज़र आता है,
और जब वह व्याकुल हो जाता है,
तो फैले आँचल में छुप जाता है |

स्त्री का जब सुख-सौभाग्य छिने,
तब वह कठोर पाषाणी-सी हो जाती है,
पुरुषों के संग से नारी हटे,
तो वह असहाय मोम बन जाता है |
होतें हैं पुरुष अधीर,
जो आज तक मैंने उन्हें जाना है,
तो धरते क्यों तुम छद्म रूप गंभीर,
क्या तुमने न खुद को पहचाना है |

हों,पुरुष गर दम्भी तो,
खुद अपने से उकताते हैं,
और कभी हों कोमल-कान्त,
तो सौ-सौ नीर बहाते हैं |

अपने पुरुषत्व का मान लिए,
क्यों अज्ञानी से तुम फिरते हो,
चंचल, चपला, चतुर नारी के समक्ष ,
खुद डींगे लिए हिरते हो |

जब इतना निर्बल,निःसहाय,
नैराश्य भाव तुममें आ जाता है,
सत्य कहूं हे मनुपुत्रों तुम,
स्त्री से भी ज्यादा दुर्बल दिखते हो
तब मुझमें एक असीम-से शक्ति भर उठती हे,
स्त्रीत्व का मान लिए मैं फिरती हूँ,
और अपनी इस एकल सत्ता में,
तुमको कभी भी परम स्थान नहीं मैं देती हूँ |

होली

१.३.१९९९
 होली
 बहुत दिनों बाद मैं रंगों में डूब गयीं हूँ,
जिसमे छंद हैं. लय है व बहुत-सी भंगिमाएं हैं,
आओ, तुम्हे उन्ही रंगों में डुबों दूँ,
जो आज फिर मैंने पाएं हैं |
    
  पत्रों के अन्दर आज अनेक रंग हैं,
 हाँ,उनमे रखी पिचकारी भी मेरे संग है,
  शब्दों की बूंदों को अन्दर तो आने दो,
  तुम्हारी दी हुई वही परिचित उसमे वह भंग है |

विस्मय है, विरोध है,अठखेली है, क्रोध है,
और वह संदेह है.जिसका तुम्हे पहले से बोध है,
अरे,श्रृंगार तो छूट ही गया,
पर उसे बाहर ही छोड़ दो, वह तो अभी अबोध है |
  
  मन की तश्तरी तुम कहाँ छोड़ आये.
   इतने सारे रंग मैंने भिंगोयें हैं,
   किस पात्र में डालकर मैं इसे लगाऊंगी,
   जो, आज मैंने पहली बार पाएं हैं |

 मेरी पिचकारी मैं उस लाहौर की इत्र भी है,
जिसे मेरे बड़े बहुत दूर से जमकर लाये,
इसमें वह सभी उत्साह है,उमंग है,
जो मेरे मित्रों,अनुजों ने कमाएं हैं |

तैयार हो जाओ, आज तुम्हारी बारी है,
डर रहे कि मैं तुम्हें अपने रंगों में भिंगों दूँगी.
अरे, तुम्हारा ही रंग कितना पक्का है,
जिसपर वह रंग बनानेवाला भी हक्का-बक्का है,
पर माफ़ करना जो बात आज मैंने बोलीं हैं,
आज एक बार फिर वही होली है :-)

Sunday, April 24, 2011

मेरा स्वभाव

मेरा स्वभाव !

यह विषय थोडा विस्मयकारी है, पर सच बोलने की हिम्मत तो करनी ही पड़ेगी. जीवन का लगभग १/३ हिस्सा गुज़ार चुकी हूँ, सो आत्ममंथन भी जरूरी है. कोई सोच सकता है कि ये सारी ढकोसलेबाज़ी
 है, नेट पे लिखना, पर क्या करूं,बिना लिखे मन भी नहीं मानता, लिखने का कारण यह है कि जो कोई इस आलेख को पढ़े और कहीं भी अपने को इन परिस्थितियों को जुड़ा पाए तो जरूर सोचे, कि कैसे उन स्थितियों से जूझे. 

मैं बचपन से ही थोड़ी अजीब-सी ही रही हूँ,लीक पर चलना मेरी  फितरत नहीं रहीं है. नानी के पास से आई थी तो लगा था सब बढ़िया होगा, नया परिवार, नया वातावरण, नया स्कूल और हर कुछ नया. यूँ कहूं तो मैं ८ महीने की थी, जब मां-बाप से दूर हो गयी थी, और उनके पास आई तो हुई ८ साल की. मेरा बचपन तो अभी शुरू ही हुआ था अपने अभिभावकों के साथ. यूँ कहें हो तो मेरे लिए उनका साथ ऐसा था, जैसे मैं अभी-अभी पैदा हुई हूँ और बस नया जीवन शुरू ही करने जा रहीं हूँ. ये था मेरा उनके साथ मिलन का अनुभव. मेरी दाई मां की तरह मेरी मौसी मेरे साथ हजारीबाग आ गयी थी.मौसी के साथ मेरे बहुत सारे  सम्बन्ध  थे, मां का, बहन का, दोस्त का, और मेरे सबसी बड़ी दुश्मन का :-) दुश्मन का इसलिए क्योंकि वो पढने के लिए कहती थी.
   मैं सबके बीच आ तो गयी पर मन अब भी कहीं छूटा हुआ था, त्युनरा में. ये किसी को पता नहीं होगा, कि मैंने सब के बीच में अपने को कैसे adjust किया.आज भी में ये सारी बातें मुझे बहुत सालती हैं, कि कोई तो हो जो मुझे बताये कि मैं बचपन में क्या करती थी, किस बात में रूठती थी, किस बात से मन जाती थी, क्या पसंद था, क्या नापसंद था? एक नानी थी, एक मामा थे, जो सदा के लिए चले गए,एक मौसी है तो उनसे ये पूछना कुछ अच्छा नहीं लगता. अपने मम्मी-पापा के पास मैं एक पेड़ की तरह आ गयी थी, जिन्हें उन्हें अपने आँगन में एक जगह देनी थी, क्योंकि प्रारंभिक उठा-पटक मैं देख चुकी थी. मुझे ये पता नहीं मेरा उन सबके बीच में आना, उन लोगों को क्या एहसास दे गया, पर मैं बहुत ही खुश हो गयी, जैसे किसी बिना माँ-बाप के बच्चे को एक परिवार मिल गया हो. मैंने बचपन में जो खोया है, वो न तो मेरे माँ-बाप वापस दे सकते हैं, न ही मेरे भाई-बहन और न ही ऊपर बैठा भगवान. पर मैं इसके लिए किसी को दोषी भी नहीं ठहरा नहीं सकती क्योंकि उन्होंने उस समय के हिसाब से जो सोचा होगा, सबकी बेहतरी के लिए सोचा होगा.

आज ये बात admit करते हुए मुझे कोई हर्ष नहीं है, पर इससे सरल माध्यम और कोई नहीं हो सकता कि बताऊँ कि जिस चीज़ को आपने अपने हाथों से बड़ा किया हो, उससे आपको ज्यादा प्यार होता है, न कि किसी बनी-बनायीं चीज़ से. मैं अन्दर से ही बहुत विरोधी प्रवृति की रहीं हूँ, जो चीज़ मेरी नज़र में अच्छी रही है, वो मरते दम तक अच्छी ही रहेगी. मैं अपनी मां से बहुत लडती रहीं हूँ, यूँ कहूं तो कुछ ज्यादा ही, हमारे बीच कोई बहुत ज्यादा मधुर सम्बन्ध नहीं रहे, पर जब होश आया,तो स्थिति सँभालने की कोशिश भी की. मेरी मम्मी जब स्कूल से आती थी तो उनके लिए चाय बनाने से लेकर, उस समय तक पाक कला में जितनी महारत थी, सारा जोर लगा के उन्हें पका के खिलाने की कोशिश करती थी. मैं सोचती हूँ कि मेरे लड़ाकू स्वभाव के कारण मेरे मकान-मालिक और उनके परिवार के बीच में मेरी position बहुत ही हेय थी, पर क्या करूं इसे मैं बदल नहीं सकती  पर अपने इस स्वभाव के कारण उस  कैम्पस में  मैंने क्या-क्या खोया है, वो सोचूँ तो दिल बैठ जाता है. मैंने बहुत झूठ  भी बोला है, और इसके परिणाम मुझे ही भुगतने पड़े हैं.

आगे कल ---------

लागी तेरी नराई

लागी तेरी नराई 

कुछ कम ही दिन बचे हैं, तुम्हारे उस घर मैं,
फिर हो जाओगी,तुम पराई,
हम दूर बैठे रहेंगे तुमसे,
पर लगेगी तुम्हारी नराई | 

हम न तो तुम्हारे जन्म में थे एक-साथ,
न ही साथ रहे उसके बाद,
फिर भी तुम दिल के करीब रही,
मेरे दिल की अज़ीज़ रही,
आज भी एक दूरी है,
यह जीवन की मजबूरी है,
पर रहेगा हमेशा खालीपन वही,
चाहे रहो यही, या कहीं और सही,
हो जाओगी तुम अब पराई,लागी तेरी नराई |

जाना तुम्हारे साथ रहकर बच्चे को पालना क्या है,
तुम्हे क्या पता,यादों का सालना क्या है,
जाने क्यों ये वनवास है,
तुमसे मिलने की न कोई आस है,
पर सच्ची दुआएं रहेंगी सदा तुम्हारे साथ,
तुम्हारी मेहँदी में,रात के गानों में,
कपडे खरीदने से लेकर, उन नए बेगानों में,
घर से निकलते वक़्त तुम डालना ,
तुम मेरी यादों पर भी खील,
वह हो शायद,मेरी यादों की
ताबूत पर तुम्हारी गाढ़ी हुई अंतिम कील,
खुश रहना, आबाद रहना,
जहाँ रहना,अपनों के साथ रहना,
सोचते-सोचते तुम्हारी डोली भी निकल जाएगी,
पर सच्ची गुडिया, तेरी याद बहुत आएगी | 
  
  

Saturday, April 16, 2011

संघर्ष

संघर्ष 
२२.२.१९९९
सिर्फ एक मैं ही नहीं, करोड़ों तेरी संतान है,
आश्चर्य है बड़ा कि तू हम सबका एक भगवान है,
कैसे सृष्टि पालता है, कैसे हमको हालता है,
क्या यह बहुत आसान है, तू क्या बड़ा महान है?

तेरे बहुत धर्माधिकारी रोज तुझको पूजते हैं,
तेरी एवज मैं, वे लोगों से बहुत कुछ लूटते हैं,
जाने तू ये पाप है, फिर भी तू चुपचाप है,
क्या मैं समझूं, ये प्रदत्त जीवन मेरा भी एक अभिशाप है?

वाह रे वाह तेरी ये माया,तूने ही ब्रह्माण्ड रचाया
खेल कितना खेलता है, लोगों को तू पेलता है,
कितनों के जीवन लगाये पार तूने, सिखाया है पतवार खेने,
क्या तेरा ये न्याय है, जिसपे तू इठलाये है

किये मैंने भी उतने पाप, जितने तूने पुण्य करवाए हैं,
आज तेरी बाट जोहूँ, काहे तू मुस्काए हैं,
रोक ले मुझको पतन से, इतने कंटक पाए हैं,
आज फिर से स्वप्न देखूं, पर अँधेरा छाए है

है नहीं वो स्वर्ण, माणिक, जो तुझपे मैं न्योछार दूं,
है नहीं वो हार कंगन, जिसपे मैं उधार लूं,
मिट्टी का तन, मिट्टी का मन, आज तुझ पर वार दूं,
और चाहे कुछ अगर तो ले ये अर्पण सार दूं

पर मुझे भी आज अपनी थोड़ी समझ उधार दे,
मान मुझको गर न लायक, शेष भी उतार ले,
पर बता हे नाथ, इतने कांटें कब से कब तक,
जीवन में ये बिखराया हे,
कल से उस कितने कलों तक,
भाग्य ये मुरझाया हे
छीन ले मुझसे ये जीवन, जो बहुत दुखदायी हे,
मुझसे सुन्दर और निरर्थक जीवन तो चोपाया पाया है

है  नहीं मंजूर, मुझको कि मैं खूँटी से बंधी रहूँ,
अपनी पिछली करनी, तेरे प्रदत्त भविष्य पे में हंसती रहूँ,
गर कहीं तू आज है, इस लोक में तेरा राज है
आज मुझको इस बंधी खूँटी से तू निकाल दे
मेरे इस बोझिल तन का तू ये भाल ले,
और मेरा चिरप्रतीक्षित स्वप्न पूरा कर दिखा,
जा, मेरा सम्पूर्ण जीवन तुझपर समर्पित ये लिखा

आज मैं फिर एक गंभीर जीने को विवश हूँ,
क्या यही दुर्भाग्य मेरा, कि विवशता से मैं भरी हूँ
मेरे दाता, दीन में, आज मेरा कल्याण कर दे
मेरे इस उद्वेगित मन में फिर वही विश्राम भर दे,
जिसमे तेरा ही बसा हुआ , एक नाम हो बस,
मेरे इस चिरप्रतीक्षित स्वप्न को परिणाम हो बस,
मेरे पाप कर्मों से भरे मन को तू माफ़ कर दे,
आज अपने निश्छल मन से मेरा तू इन्साफ कर दे |

आफ़ताब

२१.२.१९९९
 आफ़ताब
चाँद रफ्ता मेरे घर पे दस्तक दे गया,
पूछा बता तो तू, तेरा वजूद क्या है?
तू राम है या रहीम है, तेरे अन्दर का खूं क्या है?

तू चनार है, या तू है झेलम
सिंध है या कोई सतलुज,
पूछा उसने सच ये बता,
तेरे पानी का रंग क्या है?

तू फिजां है या महकी खुशबू,
तुझे सूँघ लूं है ये मेरी आरजू,
तू गुल है ये कि गुलाब है,
तेरा गुंचा महके ये मेरी जुस्तजू

दुआ कर बनूँ मैं भी कभी,
पैदा हूँ मैं इसी सरजमीं,
जहाँ आज भी मेरी रौशनी,
झेलम की तरह साफ़ है, चनारों की तरह पाक है,
जिसे तू देखे, कहीं वो भी सही,
बता तेरे किनारों मैं कहीं मेरी धुंधली-सी भी कोई राख है?

मैं तो रोया, रोता ही गया,
सोचा कि ये क्या हो गया,
मेरे अन्दर भी वही जान है,
जिसपे तू कुर्बान है,
ये चाँद वही, सूरज भी वही,
झेलम भी वही, गुलिस्तां भी वही,
उठ के देखा, आज फिर वो चाँद है, जो कल मुझे दस्तक दे गया.

सोचता हूँ कल था वो यहाँ,
पर आज बड़ी दूर गया,
पर वो तो आफ़ताब है,
आज भी वो पाक है,
तू भी देखा, मैं भी देखा,
अब बता तू ऐ चाँद किसकी नज़र में आफ़ताब है?

Friday, April 15, 2011

मेरी कवितायेँ!!!

मैंने बचपन (१९९५) से लेकर अभी तक काफी कवितायेँ लिखीं और मेरी मम्मी मुझे हमेशा आगे और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करती रहीं. मेरी हर कविता को सुनना और उसे पापा को सुनवाने की कवायद जिंदगी का एक अद्भुत एहसास है, यूँ तो लोग कवियों को पागल ही मानते हैं, पर सच कहूं तो ये उस समय उनके मन से उठी आवाज़ होती है, जिसे वे किसी समझदार व्यक्ति की तरह कलमबद्ध कर लेते हैं, मेरी कविताओं की एक dairy घर शिफ्ट करने के चक्कर में खो चुकी है पर ये बची कवितायेँ मेरी दूसरी  dairy से हैं. कृपया इन्हें पढने की कृपा करें. मैं इस ब्लॉग को अपनी पुस्तक मानकर अपनी सारी कवितायेँ अपने माता-पिता को समर्पित करती हूँ,क्योंकि वो ही मेरे आधारस्तंभ है, और मेरे अन्दर की सारी भावनाएं उनके दी हुई  कुछ नायाब धरोहर है, जिसे मुझसे कोई कभी नहीं ले सकता.

२०.२.१९९९
सरहद-ऐ-सदा
ये जो तेरे खैर मकदम में उठें हैं कदम,
  सच मान इसे उठाने में लाखों कसरतें की हमने,
उठा के सीने से लगा या फैंक दे ठोकर से कहीं दूर इसे,
   इस गुलिस्तां को सजाने की हिम्मत तो की हमने.

है तो गुलिस्तां ही ये, हो वो सरहद या इस पार सही,
  बिखरे किसी गुल को काँटों से हटाने की हिम्मत तो की हमने
टूटी किसी पंखुड़ी से बाशर्त जिन्दा कोई फूल रहता तो नहीं,
 उस गिरे किसी फूल को बीजों से लगाने की हिम्मत तो की हमने

न देखा मैंने, ना तूने उन गुलबोश क्यारियों का मंजर,
  पर आज उसी मंजर से सेहरा बनाने की हिम्मत तो की हमने
मजहबी वीरानियों ने जो चुप-सी कब्रगाह बना डाली थी,
  आज उन्ही वीरानियों में बारात लाने की हिम्मत तो की हमने

 इस खुशनुमा माहौल में आज दिल जार-जार हुआ जाता है
शुक्रिया तुझे की मौसम में रवानी लेन की हिम्मत जो की
 या खुदा हमें माफ़ कर,जो हमने सय्यादों सी क्यारियाँ नोचीं,
पर मोहलत भी हमें दे बढ़ने की, जो क्यारियाँ हमने रोपीं,

शुक्रिया हर फिजां, हर खुशबू हर रवानी का,
 वे तमाम पाक चीज़ें जो शिद्दत से फिर महकीं
तेरे अलहिद मुझे झुण्ड में कुछ और बोलना भी नहीं आता
आज वही ग़ालिब, वही तुलसी को मिलाने की हिम्मत जो की

उस खुशनुमा मंजर में घिरे हर फूल की किस्मत तो सोचो,
जिसे बेबाक एक-दूजे को हमने पहनाने को हिम्मत जो की
इस काम में थोड़ी मुश्किल तो आएगी मगर
तेरी किसी मिट्टी को अपने में मिलाने की हिम्मत तो की

इंतज़ार कर उस रात को, जब मिलेंगे हम इस तरह,
जिस तरह हवा के बहने से पौधे
शरमा के मिलते हैं,पर बिछुड़ते भी हैं
तब आनंद-सा हो जाता है क्योंकि नयी खुशबू को पैदा होना होता है
आज मैंने-तुमने आहिस्ता-आहिस्ता ही सही,
अपनी पीढ़ी को हम बनाने की हिम्मत तो की |
 
आगे कल.............

 

likhna hai!!!

लिखना जरूरी है, क्योंकि आजतक मैंने कभी किसी को बताया नहीं, कि मेरे लिए वो खास है, और जिससे मेरा जुड़ाव है. इंग्लिश में इसके लिए एक शब्द है 'टचवुड', जिससे में अपने इस प्रसंग की शुरुआत कर रहीं हूँ.   

एक व्यक्ति जिससे मेरा जुडाव हो गया, और बस यूँ ही जिंदगी ने उन्हें मेरे लिए और उन्होंने जिंदगी के लिए मुझे चुन लिया..ये शख्श आज के दिन मेरे पतिदेव के रूप में जाने जाते हैं, और उनका नाम है नीरज. मैं इसे एक इत्तेफाक ही मानती हूँ, कि हम दोनों लगभग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. मेरे पति और मेरे में पहली समानता ये है कि हम दोनों 'पानी' से जुड़े हुए हैं, वो 'नीरज' हैं और में 'शिप्रा'.आपको ये पढ़कर थोडा अटपटा जरूर लगेगा पर मुझे ये बताते हुए बहुत ही अच्छा लग रहा है, कि मुझे 'पति' शब्द ही थोडा अटपटा लगता है, इसलिए मैं  नीरज को अपना 'समकक्षी' मानती हूँ. नीरज एक ऐसे इंसान हैं जो बहुत ही मानवीय,निष्कपट और सरलतम है. सरलतम इसलिए कि वो पानी की ही तरह है, जिस रूप में ढालना हो, अपने आप ढल जातें हैं, उन्हें बताना नहीं पड़ता. नीरज मुझे वर्ष २००१ में मिले थे और पिछले १० सालों से में उनको काफी अच्छे से जानती हूँ. मेरे और उनके रिश्ते में सिर्फ एक ही बात बदली है, और वो है कि पहले नीरज मुझे 'शिप्रा जी' कहते थे, और और आज 'सिप्पी' कहतें हैं. ऐसे तो पति-पत्नी एक दूजे के कई नाम रख देतें हैं, पर 'नीर' ने मेरे मम्मी-पापा का दिया नाम आगे बढ़ाना अच्छा समझा, क्योंकि वो मेरे नाम के साथ मेरा बचपन और और मेरे अन्दर के बच्चे को खो देना नहीं चाहते थे. मैं जिंदगी से काफी संघर्ष करती रही हूँ और नीरज हमेशा ही साथ रहे. 
हमारी शादी के बाद नीरज मुझे ये लोरी गा के सुलाते थे, 'आओ रे निंदिया निनोर बन से'. माँ-बाप बनने के बाद हम अपने बेटे 'प्रसन्न' को आज भी ये ही लोरी गा कर सुलाते हैं.कभी कभी लगता है कि क्या लिखूं समझ नहीं आ रहा, पर आज दिल कर रहा है, कि उस आदमी के बारे में जोर-जोर से सबको रोक-रोक कर बताऊँ, कि आप इस आदमी से जरूर मिले.मैंने अक्सर लोगों को उनकी वैवाहिक जिंदगी की परेशानियाँ बाँटते देखा/सुना है, पर विश्वास मानिये अगर आप हर स्थिति से समझौता कर सकते हैं, तो आपसे ज्यादा सुखी और कोई नहीं हैं. मुझे जिंदगी में आज, अभी और जीवन के किसी भी पल क्या करना है, इसका बस मैंने जिक्र किया है और बंदा हाज़िर है, आपकी मदद के लिए.  
   काम करने के मामले में नीर किसी मशीन से कम  नहीं हैं, घंटो एक ही कुर्सी में बैठे वो निकाल देते हैं और काम को लेकर हो रही थकान के बारे में जिक्र तक नहीं करते और न कभी होठों में उफ़ तक आने देते हैं.मेरे लिए उनकी एक आदत जो काफी पका देने वाली है, वो की उनके खाना खाने का कोई टाइम टेबल नहीं है.आजतक उन्होंने मुझ से कभी कुछ बना देने की बात भी  नहीं कही,.जिंदगी में कई मोड़ ऐसे आयें हैं, जब मैंने सोचा है की कोई आदमी इतना सीधा कैसे हो सकता है, पर उनकी निष्कपटता और सादगी से समझ आ जाता है कि वृक्ष कबहूं नहीं फल बखे, नदी न सींचे नीर...मतलब जो गुण आदमी के डीएनए में होता है, वो चाहकर भी उसे नहीं छोड़ सकता है. कई साल पहले किसी ने नीरज के बारे में कहा था कि वो बहते हुए पानी में हीरा है, सिर्फ उनको पकड़ लेना और तराशा जाना है,और ये बात अक्षरशः सत्य है.  मैंने कई लोगों से ये कहते सुना है कि नीरज का मेरे लिए स्नेह इसलिए इतना है, क्योंकि हमारी 'लव मैरिज' है, पर ऐसा नहीं है, हमारा स्नेह एक-दूसरे के लिए प्रतिस्पर्धात्मक है, जो किसी भी तरह किसी से कम नहीं है. नीरज ने लोगों को प्यार से ही जीतने को कोशिश की है.