Monday, December 31, 2012

नया वर्ष 2013


  शाम ढल रही है 
यादों का दीया जल उठेगा,
धीमी लो के साथ धीमे-धीमे,
अपना प्रकाश बढायेगा।

सफ़र हमारी यादों का
एक और साल आगे बढ़ जायेगा
कई रिश्ते जुड़ गए, कई दूर आकाश में चले गए,
पर हर रिश्ते के साथ एक याद जुड़ गयी।









आने वाला है एक नया वर्ष
नया जीवन, नया उत्साह लेकर,
नयी उत्तेजना है मन में,
क्या है उसके आँचल में?
फूल ही फूल गिरे सबके आँगन में,
और अपार खुशियाँ रहे सबके दामन में,
चुने हम सब अब अपनी जिम्मेदारी,
करें आने वाले कल की तैयारी,
हर दिन अब सबके जीवन मे शुभ हो,
नव वर्ष-13 में अब सिर्फ हर्ष हो ...
आप सभी  को नव वर्ष 2013 की
हर्षमय और मंगलमय शुभकामनाएं ....  

Saturday, December 29, 2012

मेरा चीरहरण

मेरा चीरहरण 

कान्हा तुम कहाँ थे,
किस जगह से देख रहे थे मुझे
या स्वर्ग की बत्ती गुल थी उस दिन !

ये सिर्फ चीरहरण नहीं था हरि,
हरण था मेरे मान का, सम्मान का
इस दुनिया में भेजने वाले भगवान का,
क्या तुम भी राजनीति करते हो,
कि जिस के आशीर्वाद से मैं पैदा हुई,
क्या बचाने की जिम्मेदारी भी उसे ही लेनी थी?

नाम सुना था तुम्हारा द्रौपदी को बचाने में,
मेरी बारी कहाँ थे स्वामी,
पर भूल जाती हूँ मैं,
वो तुम्हीं थे, जो गोपिकाओं के वस्त्र चुराते थे
कैसे उम्मीद रखूँ तुमसे बिहारी
कि तुम आते औ' मुझे बचाते
काश! अपनी थोड़ी शक्ति मेरे मित्र में डाल देते
या ऐसी सुनसान सड़क में प्रकट हो जाते चुपके से,
करते प्रयोग सुदर्शन का,
या बचा लेते मेरा चीरहरण।

सही में तुम लोग बस
ऊपर बैठके बंशी बजाओ
समय रहते भी अपनी लीला
कभी न दिखाओ,
पर आ गयीं हूँ अब मैं तुम्हारे आस-पास,
कैसे चुराओगे नज़रें, कैसे दोगे झूठा विश्वास,
माता-पिता, भाइयों को मेरे थोड़ी सांत्वना दो,
चुप कराओ उनकी कराहती साँसों को,
जनता के बीच उठते उफान को,
सुनो विनती मेरी गिरधारी,
कई लोग अभी भी हैं शरणांगत तुम्हारी !             

Thursday, December 20, 2012

कुछ ख़ास दोस्तों के नाम: फ्लैशबैक

कुछ ख़ास दोस्तों के नाम: फ्लैशबैक

दिन ढलता है और निकलते है हम अपने छत्ते से,
पूरे दिन की घटना और बहुत सारी गपशप,
पल्लू  में बांध लातें हैं
औ' सर पर पांव रख भाग के आते हैं पार्क में,
और फिर खोल देते हैं जीवन का पिटारा।

अपनी कहानी, अपनी जुबानी रोज कहतें हैं,
रोते हैं, हँसते हैं, गपियाते  हैं
अपनी कहानी सुनांने को रोज तरसते हैं

बच्चों की आड़ में,
निकल पड़ते हैं हरदिन,
एक-दूसरे से मिलने के लिए,
गुदगुदाता-सा रिश्ता है हमारा,
नाम है इसका दोस्ती।
 
रेशम का नाजुक, और बसंत-सा रंगीन,
मेरा, तुम्हारा, हम सबका मिजाज़,
हरा हो जाता है एक-दूसरे के खिले चेहरे देख कर,
जैसे हवा के झोंके ने छू लिया हो अधखुली
गुलाब की कलियों को,
इठलाते हुए अपने कहकहों के बीच,
गुम हो जाते हैं जैसे भोंरा छुपा हो कलियों के बीच।

कभी बेस्ट चीज़ों की बातों पे हंसना,
कभी कहना हां सुन, कभी अरे, तो
कभी चेहरे के तेज के हंसगुल्ले उड़ाना,
हमारी मिस ब्यूटीक्विन को निहारना,
सबब है हमारे साथ रहने का।








जा के सबके घरों में, घंटों चाय पे बिताना,
 चुस्कियां लेके बातों के मजे लेना,
सालता है आज मुझको न होने पे ये,
सर्द मौसम ने चुरा ली है, हमारी मुस्कुराहटें
हमारी चुहलबाजियों पर बिछ गयी है कोहरे-सी परत,
स्वेटर के फंदों-से जुडें हैं हम इस जिंदगी में,
एक-एक खुले तो उधड़ जाएगा पूरा ताना-बाना,
हमारा घोंसला फिर चुका है निर्जन,
निकलते हैं फिर-से वापस अब पुराने अड्डे पे,
साथ हैं हम, तभी कुछ बात है,
वरना सबका अपना-अपना दाल-भात है,
ठंडे पड़े मौसम में मिलके लगाते हैं आग,
निकलते हैं घर से फिर, चल जल्दी से भाग,
याद आती है मुझको फिर वो सुहानी शाम,
जहाँ बहुत दिनों से मैं फ्लैशबैक पर हूँ ...


कुछ ख़ास दोस्तों के नाम ....

Wednesday, December 19, 2012

बिना तेल के भोजन

बिना तेल के भोजन 

आज एक नए टॉपिक पर बात करूंगी। यह काम मैं काफी दिनों से कर रहीं हूँ और चाहूंगी कि  आप भी अपने जीवन में अपना के देखें। आप अपने खान-पान में कितना नियंत्रण रखते हैं? आपका खाना आपके जीवन में गहरा प्रभाव डालता है आप जैसा खाते हैं, वैसे ही दीखते हैं।
अपने शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए मैंने हमारे जीवन से पाम ( Palm Oil) जिसे हम आम भाषा में  रिफाइन कहतें हैं त्याग दिया है। क्या आपने कभी अपने  रिफाइन तेल रखने वाले डिब्बे को देखा है, अगर उस डिब्बे के बाहर एक बूँद भी ज़म जाती है तो सूख कर वह चिपचिपी और सफ़ेद हो जाती है। जिसे साफ़ करने के लिए हमें गरम पानी की जरूरत होती है। सोचिये, ऐसी कितनी ही बूँदें मिलकर हमारे हृदय की आस-पास की धमनियों में जमी होंगी, जो आने वाले दिनों में हमें परेशानी का सबब दे सकती हैं। मैंने 5 साल पहले एक मौन प्रण लिया था, जो अब लगभग पूरा होने जा रहा है। मैंने सोचा था कि  मैं जब 35 की हो जाऊंगी तब उबला खाना, खाना शुरू कर दूँगी, पर मैंने अब पहले ही शुरू कर दिया है, जो मेरे लिए एक जीत है, मेरे अपने से लिए प्रण से ...

मैंने खाने में तेल डालना ही बंद कर दिया है और खासकर सब्जी बनाने और दाल छोंकने के समय। कैसी भी सब्जी और दाल बिना रिफाइन के बनायी जा सकती है और उतनी ही सुस्वादु ... हम सब जानते हैं कि  सब्जी में बिना प्याज़, लहसुन, हरी मिर्च और अदरक के स्वाद अधूरा लगता है तो क्यों न इन सब को डाला जाये और सब पहले जैसा ही बना लिए जाये। आपको जानकर आश्चर्य होगा की प्याज़ भूनने के अलावा भी एक और तरीके से पक सकता है। इसके लिए पहले बर्तन गरम कर लें, गैस/ स्टोव में  कम आंच में बर्तन रख कर बिना तेल डाले जीरा, हींग, अजवाईन गरम कर लें और भूरा होने तक भून लें। भुनने की खुशबू से भी पता चल जाता है कि मसाला तैयार है। प्याज़, लहसुन,अदरक, मिर्ची को छोटा-छोटा काट  लें, या कद्दुकश कर लें।बेहतर होगा कि खाना प्रेशर कुकर में ही बनाएं। ये सारी चीज़ें डालकर अच्छे से आपस में मिला लें और थोडा-सा पानी डालकर कुकर में 2-3 सीटी बजने दें। गाढ़ी ग्रेवी/ या ज्यादा तरी के लिए इस सब चीज़ों के साथ थोड़ा दही भी मिला दें और 5-6 सीटी देकर अच्छे-से  पकने दें, फिर ठंडा होने के बाद इन सारी चीज़ों को किसी मथने वाली चीज़ खूब अच्छे से मिला लें। इस तरीके से तैयार हो जाता है किसी भी दाल-सब्जी के लिए मसाला/ग्रेवी।

सब्जी भूनने से उसके पोषक तत्व समाप्त हो जातें हैं, तो बेहतर है उसे उबाल लें और उसका स्टॉक वापस सब्जी में ही डाल लें।

1. फूलगोभी को एक बर्तन में उबाल लें,बरतन में  पानी गरम कर लें, उबलते पानी में गोभी के टुकड़े दाल लें, थोडा नमक भी डालें और ढक  के 2-3 मिनट उबालें, और फिर गैस बंद कर दें। ठंडी होने पर गोभी अलग कर लें   और चाहे तो उसका स्टॉक फिर से काम में ले आयें।
2. टमाटर की ग्रेवी बनानी है, तो छोटे टमाटर काट के सीधे बर्तन में डालें और थोड़ा नमक डाल के उसे गलने दें, फिर जब पक जाये तो अच्छे से मिला लें।
   मैंने अभी भिंडी के साथ किसी भी तरह का प्रयोग नहीं किया है तो खुद एक्सपेरिमेंट कर के इसके बारे में जरूर बताऊंगी। सर्दियों में  कभी-कभी फ्राइड खाना जैसे पकोड़े खाना सबको पसंद है, सो सरसों के तेल में  ही इन्हें बनाये तो बेहतर है।

फैट/वसा हमारे भोजन में एक आवश्यक तत्त्व हैं, जो हमारे शरीर में लुब्रिकेंट का काम करतें हैं और हमारी हड्डियों को फ्लेक्सिब्लिटी देतें हैं, सो इसका होना शरीर के लिए जरूरी है। एक निश्चित मात्रा में घी शरीर को लाभ ले सकता है, सो वसा को पूरी तरीके से छोड़ना भी खतरनाक है। उबला खाना खाएं और स्वस्थ्य रहे।

आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी ....

Tuesday, December 18, 2012

सामाजिक विकलांगता का नाम है 'वहशीपन'

 सामाजिक विकलांगता का नाम है वहशीपन  
रेप, बलात्कार, हवस एक ही नाम है हैवानियत से परिचय करने के लिए। परसों दिल्ली में  घटी इस घटना से मन आहत है, उद्वेलित है और साथ ही कुछ करने में अक्षम भी है। भला हो उस पुरुष साथी का, जो उस लड़की के साथ था, नहीं तो अभी उसकी लाश ही मिलती या सडा-गला, क्षत-विक्षत शरीर कहीं चर्चा का विषय होता।
 ये समझ में ही नहीं आता कि लोग कैसे इतना नीचे गिर सकते हैं।
        शराब आदमी की मति भ्रमित करता है और ये ही हुआ उन निकृष्ट लोगों के साथ जिन्होंने ये कुकृत्य करने का दु:साहस किया। शराब से आपका अपने आप पर नियंत्रण नहीं रहता, फिर भी पीना जरूरी है, क्योंकि ऐसे लोगों की शान इसी में हैं। दिल्ली चूँकि हमारी राजधानी है, तो रहने के फायदे भी उतने ही हैं, बनिस्पत दूसरे शहरों के, पर नुकसान भी हमें ही झेलना पड़ता है। आये दिन बढ़ते क्राइम को देख कर सजग होने का समय आ चुका है। हम अपने घरों में लड़कियों को पुरुषों की बराबरी करने  से रोकते हैं, चाहे हम प्रोफेशनली कितने ही सफल क्यो न हो जायें पर कोई एक चीज़ है जो हमें रोक देती है, उनके चेहरे में तमाचा मारने से। बात सिर्फ लड़कियों की ही नहीं है, लड़कों की बदतमीज़ी भी दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है। जितना गली-गलोच लड़के करते हैं, शायद ही किसी लड़की को गाली बकते किसी ने देखा होगा। हमारी भाषा ही हमारे स्तर का पैमाना है, जिस दिन भाषा बिगड़ी, समझो उसी दिन गए हाथ से। क्या अपने बच्चों की बोल-चाल पर हमारा नियंत्रण नहीं होना चाहिए ? जिंदगी में परिवर्तन एक नियम है और हम सब उसी नियम का हिस्सा है।
    घर से शुरुआत क्यों न की जाये, एक उदाहरण देना हो सकता है पर्याप्त न हो पर इससे सबक जरूर लिया जा सकता है। बरसों से भारत में पोलियो, टी.बी., तपेदिक जैसी लाइलाज बीमारियाँ कई लोगों की जान ले लेती थी, पर आज सही दिशा-निर्देश में इन बीमारियों के उन्मूलन कार्यक्रम के तहत इनका देश से लगभग सफाया हो चुका है। कुत्सित मानसिकता भी एक बीमारी है, ये शारीरिक ही नहीं एक मानसिक व्यसन भी है और इसके लिए सिर्फ उत्तम विचारों का निवाला ही एक उपाय है। कड़े क़ानूनों को लागू करके इनका नित्य जीवन में प्रयोग करने से हो सकता है कुछ परिवर्तन जरूर आये। आये दिन लड़कियों में फब्ती कसना, उनका मजाक उड़ाना ये सब हम अपने आस-पास हर रोज देखतें हैं, पर सिर्फ ये सोच के चुप रह जातें हैं कि  इनके मुंह  कौन लगे। कहीं ये हमें परेशान न करने लगे, माँ-बाप का नाम ख़राब होगा इत्यादि पर अगर एक आवाज़ उठा के कोशिश की जाये तो बड़े कदम उठाने में आगे सहूलियत होगी।

बहुत सारे तत्व इससे जुड़े हुए हैं, जिसमें बहुत बड़ा हाथ हमारे मनोरंजन के  साधन टीवी का है। किसी भी फिल्म में देख लें, लड़कियों को कम कपड़े पहना के कैमरे के सामने खड़ा कर दिया जाता है, और हीरो अपने बदन को ढक कर यहाँ-वहां कर रहे होते हैं। क्या हीरो का बदन दिखाने के लिए नहीं है या बिचारा कुपोषित है।फिल्मी  बाज़ार में  चालू/ चलती फिल्में बिक जाती हैं, इस शरीर उघाड़ने  के क्रम में।  क्या आपका शरीर आपकी पर्सनल प्रॉपर्टी नहीं है, जिसकी इज्ज़त बचाना आपके अपने हाथ में  हैं?
मनोजरंन का तात्पर्य/ शाब्दिक अर्थ है मन का रंजन, दिल-बहलाव, . कोई ऐसा कार्य या बात जिससे समय बहुत ही आनंदपूर्वक व्यतीत होता है। मन का रंजन हँसने से, खेलने-कूदने और ऐसे किसी सकारात्मक काम से हो सकता है, जो आपके जीवन के नियमित कार्यक्रम से आपको थोडा निजात दिलाये और आपका ध्यान बांटे।
हम अपने घर की लड़कियों को जब तक पूर्णरूपेण स्वतंत्र नहीं करेंगे तब तक यह समस्या आती रहेगी। आख़िरकार लड़कियों को पराये घर जाना ही होता है, तो आने वाले समय के लिए जब हम उन्हें  तैयार करके भेजते हैं तो इन बिन बुलायी घटनाओं के लिए अलर्ट करना भी हमारी ही जिम्मेदारी होनी चाहिए। जब तक एक निडर जीवन जीना हमें घर से नहीं सिखाया जायेगा, तब तक कैसे हम इन समस्याओं से लड़ना सीखेंगे।
अंत में  इतना कहना जरूर चाहूंगी कि ,

अहल्या द्रौपदी सीता तारा मंदोदरी  तथा,
पंचकन्या स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम।।  

Monday, December 17, 2012

परोपकार: सबसे बड़ा धर्म

परोपकार:  सबसे बड़ा धर्म 

कुछ दिन पूर्व एक लघु कथा पढ़ी थी, जो मेरे दिमाग में बैठ गयी है, सोचती हूँ आप सब के साथ साझा करूं।

 एक कॉफ़ी शॉप थी, वहां हर रोज दसियों लोग कॉफ़ी पीने आते थे, कोई अपना पूरा मग ख़तम कर के जाता तो कोई कॉफ़ी में नुक्स निकाल आधी पी के चला जाता। इसी तरह एक दिन एक व्यक्ति आया और एक कोने में जाकर बैठ गया। उसने 2 कप कॉफ़ी का आर्डर दिया। कॉफ़ी शॉप छोटी थी, तो मालिक स्वयं ही कॉफ़ी सर्व करता था। उसने अपने डेस्क से ही बैठे-बैठे पूछ लिया, भाईसाहब कहीं मैंने गलत तो नहीं सुना, आपने 2 कप कॉफ़ी का आर्डर दिया है। उसने कहा नहीं सर, आपने सही सुना है, मैंने 2 कप का ही आर्डर दिया है, पर मेरी एक रिक्वेस्ट है, एक कप कॉफ़ी हाथ में, और दूसरी एक पर्ची में दे दीजियेगा ....

   यह बात सुनकर शॉप का मालिक मंद-मंद मुस्कराते हुए सोचने लगा, जरूर किसी सनकी ने  आज जगह हथिया ली है, खैर मुझे तो पैसे मिल जायेंगे। कॉफ़ी आई और उसने चुस्की ले कर अपनी कॉफ़ी ख़तम की और जिस जगह वह बैठा था, वहां पर बची 1 कॉफ़ी की स्लिप लगा कर चला गया। सर्दी का मौसम था, कॉफ़ी पीने वालों की तादाद बढती जा रही थी। खैर, वह आदमी अगले दिन फिर कॉफ़ी की शॉप में आया, पर साथ में आज एक और साथी के साथ आया, इस बार उन्होंने 4 कॉफ़ी का आर्डर दिया और ये सुनिश्चित किया कि उसकी एक पुरानी स्लिप वहां दीवार पर लगी हुई है कि नहीं ... फिर उन दोनों मित्रों  ने मिलकर अपनी 1-1 स्लिप फिर दीवार में चिपकाई और वहां से चल दिए। इस तरह ये सिलसिला चलता रहा, और कुल मिलाकर उस आदमी ने करीब 20-30 स्लिप दीवार में चिपका दी। शॉप में कप धोने वाला एक आदमी इस बात को हर रोज बड़ी बारीकी से देख रहा था, उसने एक दिन शॉप के किनारे रखे कूड़ेदान के पास बैठे आदमी को एक कप कॉफ़ी पिलाई और दीवार में लगी एक स्लिप निकाल के कूड़ेदान में डाल दी। वहां वो आदमी हर रोज एक के बदले 2 कप कॉफ़ी का आर्डर देता रहा, और यहाँ कप धोने वाला 1-1 स्लिप का सदुपयोग करता रहा। इस तरह उस शॉप में अब लोगों ने एक के बदले 2 कप कॉफ़ी का आर्डर देना शुरू कर दिया, और रास्ते में चलता कोई भी गरीब उस शॉप में घुस कर बेधड़क अपने लिए एक कॉफ़ी का आर्डर देता और एक स्लिप कूड़ेदान में फेंककर आगे निकल जाता ......

कहानी का सार है परोपकार करना जीवन का सर्वोत्तम धर्म है, जिसे छिछोरी भाषा में कह सकते हैं, नेकी कर दरिया में  डाल। होने को ये उक्ति यहाँ फिट नहीं बैठती पर कुछ लोग इस तरह की भाषा ज्यादा अच्छे से समझते हैं। वह आदमी 2 कॉफ़ी की कीमत अफोर्ड कर सकता था, तो उसने किया। अपने साथ उसने एक अनजान व्यक्ति को ठण्ड के मौसम में थोड़ी राहत दी। वह आदमी मुझे एक पेड़ की तरह लगने लगा है, जो सर्दी, गर्मी, बरसात में खुद कष्ट सहता रहता है, और फल देता रहता है। स्लिप निकाल के कॉफ़ी पीने वाला आदमी उस फल का अधिकारी है। अंग्रेजी में Cecil .F. Alexandar ने एक कविता लिखी है, All things bright and beautiful..... इस कविता की 1 पंक्ति मुझे बरबस याद आती है ...  

The rich man in his castle,
The poor man at his gate,
He made them, high or lowly,
And ordered their estate.

मेरी मम्मी कहतीं हैं कि आदमी के जीवन मैं 50 % हाथ उसकी मेहनत और 50% हाथ किस्मत का होता है और यह सही भी है। यह बात सच है कि आदमी अपने कर्मो से भी राज और रंक बनता है, पर ऊपर वाले की भी इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है, हर आदमी की रचना उसी के हाथ में निहित है। जब हम ऊपर से ही निर्धारित होकर आये हुए हैं, तो धरती में अपनी भूमिका को नकारना नहीं चाहिये। अगर हम किसी निर्धन के जीवन में किसी भी पॉजिटिव तरीके से धन आने का कारण बन सकते हैं, तो वो कारण बनने से चूकना नहीं चाहिए। क्योंकि ना जाने किस भेष में बाबा, छुपा हुआ है भगवान ... हो सकता है हम उस गरीब के जीवन में भगवान की तरह हों, पर साथ में हमें भी ये देखना चाहिए कि हर गरीब के भेष में भगवान छिपा हो सकता है। 
इसलिए कोई भी काम करने से पहले ये जरूर देखना चाहिए कि किसी भी कार्य के जरिये परोपकार किया जा सकता है, उसके लिए धनराशि ही नहीं मन में श्रद्धा और त्याग का होना भी जरूरी है .....

Wednesday, December 12, 2012

स्त्री का जीवन; असंख्य बदलाव, अनगिन भावनाएं

स्त्री का जीवन; असंख्य बदलाव, अनगिन भावनाएं 

बहुत दिनों  से सोच रही थी कि कुछ लिखूं, पर समय मिल नहीं पा रहा था।मुझे याद है मैंने बचपन में कहीं सुना था कि जब बेटियाँ जनमती हैं, तो उनका नामकरण संस्कार बड़ी ही ख़ामोशी से मनाया जाता था। पता नहीं ऐसा क्यों करते थे लोग, क्या उनके घर की बेटियां गुमनाम जीवन जीने के लिए पैदा होती थी ?
मम्मी कहती हैं जब तनु ( मेरी बड़ी बहन ) पैदा हुई थी तो जलसा हुआ था। अपनी बारी का तो मुझे पता नहीं। पर इतना जरूर याद है और मरते दम तक याद रहेगा कि  नानी, मामा, मौसी हर साल मेरे जन्मदिन पर मार्कंडेय जी की पूजा करवाते थे, जो मूलतः बेटों के ही जन्मदिवस पर ही लोग करवाते थे। ये पूजा अब हम अपने बेटे के जन्मदिवस/ जन्मतिथि वाले दिन जरूर करवाते हैं। कहते हैं मार्कंडेय जी आयुवृद्धि  का वरदान देते हैं।
  बात असल में यह है कि स्त्री मूलतः दो रूपों में पहचानी  है,  एक बेटी के रूप में, दूसरी पत्नी के रूप में। बेटी के रूप में चंचल, अल्हड, मदमस्त- सा जीवन होता है उसका, पर पत्नी बनते ही जिम्मेदारियों का पहाड़ धीरे-धीरे उस पर आने लगता है। मुझे याद है अपने अविवाहित जीवन में मैंने कभी-कभार ही गृह संबंधित कोई कार्य किये होंगे, पर विवाह के बाद रसोई और मेरा तो इस जनम से नाता ही जुड़ गया है। बेटी बन कर अपने माँ-पापा के संघर्षपूर्ण जीवन को एक दर्शक के नज़रिए से देखती थी, पर आज जब खुद उसी पायदान पर खड़ी हूँ, तब समझ आता है, जिंदगी तुम्हारे कितने नूतन रूप हैं। मैं ऐसा बिलकुल भी नहीं कह सकती कि प्रतिदिन मेरे जीवन में कोई न कोई परिवर्तन आता है, पर हाँ, सुधार की गुंजाइश जरूर रखती हूँ। जब माँ-पापा के साथ थी, तब सही में कोई गंभीरता नहीं थी, जीवन के प्रति, जो रास्ते में आया, या तो अपना लिया या ठोकर मार दी, ये ही दो नियम थे, कभी तीसरा विकल्प सोचा ही नहीं कि सहेज के भी रखा जा सकता है।
 करीब 10 सालों से मैं विवाहित हूँ, पर अब जब खुद पलट के देखती हूँ तो एक औरत के रूप में जीवन अलग ही दिखलाई देता है। मुझे आज भी सबसे बड़ी चिंता खाने-पीने को लेकर ही होती है, कि खाना क्या बनाना है। मेरे घर के लोग सही से खा-पी लें, ये ही मेरी प्राथमिकता होती है। जीवन हम सभी को बहुत कुछ सिखाता है। पहले शादी को लेकर उत्साह रहता है, फिर अपने साथ दूसरे व्यक्ति के प्रति भी हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है और जब हम एक जिम्मेदारी निभा पाने में सफल हो जाते हैं तभी तीसरे सदस्य के आने की तैयारी हम सभी करते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि पति-पत्नी शादी के कुछ सालों के बाद ही एक पूर्ण परिवार की ओर अग्रसर हों, जिससे अपने रिश्तों को प्रगाढ़ रूप दिया जा सके।
उम्र बढ़ने के साथ ही रिश्ते भी नए-नए रूप लेते हैं। पति-पत्नी जब अकेले होते हैं, तो उनके बीच में खटपट होनी भी लाजमी है, क्योंकि एक छत के नीचे दो समान उम्र के लोगों का निवास होता है, और वहां पर भी 'सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट'  की बात होती है, पर यहाँ जीवन अपना प्रभुत्व बना के नहीं, दोनों की परस्पर इच्छाओं का सम्मान करके सफल होता है। एक स्त्री जब पत्नी से आगे बढ़के एक माँ बनती है, तो एक अनजान ताकत उसके अन्दर कितने सारी नयी अनुभूतियाँ डाल देती  हैं, जिसका आंकलन/ अनुभव एक पुरुष के लिए कर पाना सच में एक मिस्ट्री ही है। फिर ये झगड़े और खटपट विष-वमन की तरह हम पी लेते हैं, या इसे अन्यथा (इग्नोर) कर देते हैं क्योंकि घर का माहौल ख़राब न हो। माँ बनते ही, ममत्व सबसे पहले आता है, और फिर आती है त्याग की भावना।  लगता है जीवन का ये नियम है कि ममत्व को जिलाए रखने के लिए त्याग अवश्यम्भावी है। अपने छोटे से  बच्चे को खुश रखने के लिए माताएं  कभी अपना निवाला बीच में से छोड़ के उठती हैं, तो कभी रात में सोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए अपनी नींद त्याग देती हैं, इसे कहतें हैं समय की पुकार ... जब किसी के प्रति प्रीति रखनी हो, तो उसके लिए स्नेह और त्याग रखना भी जरूरी है, विश्वास तो एक शर्तिया शब्द है, क्योंकि यही दो भावनाएं ऐसी हैं, जो किसी दो व्यक्ति को आपस में जोड़ के रखती है।
  स्त्री को धैर्य की प्रतिमा भी कहते हैं। प्रतिमा को अहिल्या शब्द से भी जोड़ा जा सकता है। अहिल्या ने अपने श्राप से मुक्ति पाने के लिए प्रतिमा का रूप ले लिया और फिर उसे श्रीराम द्वारा सदगति मिली। परिवार को सुदृढ़ रखने के लिए धैर्य प्रबल तत्त्व है। वह धैर्य परिवार के विकास में मील का पत्थर साबित होता है। बच्चे की किलकारी के लिए धैर्य, उसके चलने-उठने-गिरने से लेकर उसे एक सफल व्यक्ति तक परिणत करने का धैर्य एक सतत प्रयास है, जीवन की उन सभी इच्छाओं पर एक नियंत्रण रखने का जो विचलित होने पर मार्ग से भ्रमित कर सकती हैं।

आगे बाद में .....  

Monday, September 3, 2012

सीता

सीता

क्यों डरतें हैं लोग सीता के नाम से,
नाजुक, भोली, सलोनी सीता के काम से,
मनमोहिनी, वीरांगना  देवी के भाम से,
समर्पित रही सदा जो प्रेमाभिराम से।

बेटी बनी जनक की, जब धरती की गोद में थी,
पाया दुलार घर का, खुद मात वो जग की थी
खेली वो खंजनो से, ममतामयी थी नारी,
होती रही प्रतिष्ठित हर सुखों की अधिकारी

माता का साथ छोड़ा , पिता की छाँव त्यागी,
थामा जो हाथ राम का, बनी राम की सौभागी
सखियों को पीछे छोड़ा, बहनों के साथ आई,
अपने साथ रघुकुल में सबको जोड़ लायी,
ऐसी हमारी सीता, जो जनकपुर से आई।

सास की प्राणप्यारी, पति राम की थी छाया,
बाबुल का आँगन छोड़ा,मन ससुराल में रमाया
घर-बार, पेड़-पौधे, बस प्राण में निरंतर,
सब में बसी रही वो हर क्षण- प्रत्यंतर।

कोमल सुकुमारी ने पति का हाथ थामा,
महलों का राज छोड़ा, पत्नी का धर्म धारा, 
पीछे न मुड़के देखा, जो आराम का था जीवन,
संग धूल -कंटकों के बांधा था अपना यौवन।

पीछे रही पति के, उनकी ही राह थामी
चलती रही वो ऐसे, जैसे हो अनुगामी,
इतना सरल, संयमित जिसका था ऐसा जीवन
धरती की बेटी सीता, जिसको नमन करें हम

रावण जो छल से हरके, लंका में उनको लाया
रोती रहीं विरह में, मन को कुछ न हर्षाया,
तृणओट में रही वो, जपती रही निरंतर
मन में रहो हमारे, तुम शूरवीर रघुवर।

उनके कठोर तप से, रावण भी था कांपा
अपनी मृत्यु की आहट को उसने भी था भांपा
करता रहा वो दूर से सीता पे अत्याचार
कर लेता काश वो इस कर्म पे विचार।

रावण समेत लंका को राम ने हराया
सीता को फिर से पाया, औ' ह्रदय से लगाया
तुम बिन मैंने हर पल ये, युग-युगांतर से बिताए
मेरे बिना इस लोक में, तुम कैसे रही थी हाय!

फिर से चले वो वापस, अयोध्या के धाम सारे,
संग साथी बंधु- बांधव मिले मात को दुलारे,
हुए आंसुओं से सबके पद पखार प्यारे
मिली मात संग सीता, कितनों के वारे- न्यारे।

ऐसी थी अपनी सीता, जो प्रभु पद में स्वयं रमाया,
देखा न उनके आगे, न अपनी शक्ति को था ध्याया,
चुप-चाप बनके भोली, सलोनी राम की
जीवन बिताया अपना जोड़ी नयनाभिराम-सी। 

।। बोलो रामप्यारी सीता मैया की जय।।

    

Wednesday, August 15, 2012

*मैं तो आज़ाद हूँ *

मैं आज़ाद हूँ धर्म की रूढ़िवादिता से,
मैं आज़ाद हूँ इन रीतियों से, रिवाजों से 
मेरे मन का पंछी उड़ता है,
ऊँचे ख्वाबों के गगन में,
लहराता है अपने सपने,
खुश होता है छोटी-सी मुस्कान पा के,
बताता है अपनी चाहतों की मंजिल,
उनपे चढ़ता है, फिसलता है, उतरता है,
और फिर मंजिल हासिल करता है,
अपनी मुट्ठी में बंद कर के,
आज़ाद हूँ मैं वो सब पाने को,
जो सब मेरा है, मेरे दिल का है...

 तुम भी अपनी आज़ादी पहचानो,
 उड़ो, घूमो, कहकहे लगाओ,
 न करो गुलामी किसी की, न ही किसी सेठ की, न बॉस की 
 सच कहो, सच सुनो,
 आज़ाद रहो हर बंधन से,
 न होगे निराश, न ही कोई आस,
 रखो किसी से कोई ख़ास,
 उड़ पाओगे, अपने घोंसले से जुड़ पाओगे,
  हर बंधन से, 
  सुनो, सीखो और अमल करो,
इंसानियत से, पुरुषार्थ से,
जीवन सफल बनाओ,
फिर आज़ाद हो हरि की शरण में जाओ ।

Thursday, July 26, 2012

मौत

मौत

मौत तुम एक छलावा हो,
सिर्फ कुछ सेकंड में जीवन ले जाती हो
जिंदगी जीने के लिए जीवट चाहिए,
तुम में वो माद्दा ही नहीं

तुम कर जाती हो सबको स्तब्ध,
इंसान से जुड़े लोगों को कर निशब्द,
मृत शरीर को देख रोते-बिलबिलाते कुछ लोग,
अपने पीछे छोड़े जाती हो एक मनहूस सी शांति

 क्या सोचती हो, पता है कितने कर्म करने पड़ते हैं,
 चलते रहना होता है जीने के लिए
बिना थके-हारे साँसों को समेटे,
खुद के लिए, कुछ अपनों के लिए
अपने वजूद को बचाए रखना होता है।

इस भागमभाग में कई चीज़ें अपनी बनानी होती हैं
तिनका-तिनका जोड़, जिंदगी संवारनी होती है
तुम्हारा क्या है, बिना कोई अलार्म दिए आती हो
झट से सब तबाह किये जाती हो।

गर आदमी साथ में अपने कुछ ऊपर ले जा नहीं सकता
तो एक मेमो दुनियावालों के लिए पास कर दो
खाओ, पियो, और उडाओ, ये बना दो जिंदगी जीने के उसूल
हर आदमी यहाँ बचाने के चक्कर में हर रोज मरता है
कोई थोडा कम तो कोई थोडा ज्यादा

शरीर ही साथ ले जा सकती हो तुम
यादें, आभास, आहट ये शब्द यहीं रहते हैं
हर पल सीने में दफ़न उस चेहरे को तुम
कभी मिटा नहीं सकती,
तुम सिर्फ एक मौत हो, मौत   
ले ही जा सकती हो, छीन लेती हो
वापस नहीं ला सकती, सिर्फ उजाड़ सकती हो
नफरत है मुझे तुमसे, तुम जैसी हर उस चीज़ से
जो किसी का जीवन ले लेती है,
है हिम्मत तो कभी जिंदगी के साथ बैठो
हंसो, खेलो, खिलखिलाओ, और बिना किसी के प्राण ले वापस चले जाओ ।

Friday, July 20, 2012

ऐसा क्यों कर रहे हो तुम?

ऐसा  क्यों कर रहे हो तुम?

तुम्हें पता है कि मैं हर रोज बच्चे को स्कूल छोड़ के आती हूँ,
पाईप निकालती हूँ,
और दिल्ली जैसे शहर में,
जहाँ पानी की मुश्किल है
झमाझम बरसा देती हूँ पानी
उन हरे पौधों में, जो मैंने बरसों पहले लगाये थे।

हर रोज बे-नागा मैं फिल्टर चलाती हूँ,
पर पानी बर्बाद नहीं करती,
बचा के रखती हूँ उसके बर्बाद हुए पानी को,
जमा करती हूँ कि कहीं इसकी फिर से जरूरत पड़ जाए
मैं तुम्हारे दिए हुए हवा, पानी जैसे उपहारों की कीमत पहचानती हूँ ।


प्रकृति के उपहारों का बहुत क़र्ज़ है हम पर,
हम सांस भी तुम्हारे ही कारण ले पाते हैं प्रभु,
तुम बिना किसी विभाजन के सबको
बराबर बांटते हो अपनी नेमतें,
और तब ही हम जी पातें हैं यहाँ ।


बड़ी मुश्किल में हूँ मैं
जब अल सुबह देखती हूँ कि चिड़िया, तोते, कौवे
अपनी छोटी-सी चोंच से सारा पानी गटकते हैं
बालकोनी में चलते नल के नीचे
नहाते हैं कुछ बूँदों की फुहारों में,  
पर दिन चढ़ते ये हवा में उड़ते पंछी
चोंच खोले तुम्हारे ठंडे झोकों के लिए तरसते हैं
मैं भी दिन भर बाहर जा उन बर्तनों में ठंडा पानी नहीं भर सकती।


प्लीज, इन्साफ करो तो थोडा ढंग का,
हम सब तो पंखे कूलर, और एसी के अन्दर
रहते हैं, अपने जीवन की गाड़ी खींचते हैं,
पर इन बेजुबानों का मर्म तुम तो समझते ही नहीं,
ना ही बरसात कर रहे हो, न ही ठंडे हवा के झोंके बहाते हो ।


मुझे पता है, नाइंसाफी तुम्हारे साथ भी हो रही है,
तुम्हारा वातावरण हम ही बर्बाद कर रहे हैं,
 पर देखो न, प्रतिस्पर्धा तो बढती रहेगी
कुछ न कुछ तो बर्बाद होता ही जायेगा,
पर तुम्हारी झोली तो बहुत-ही बड़ी है,
कुछ भी खत्म नहीं होता वहां
हर आदमी आगे बढेगा, आसमान छूएगा
तुम फिर आसमान भी ऊँचा कर लोगे क्या?


मेरे बच्चे के साथ मैं हूँ,
वो जो कहेगा मैं लाने की कोशिश करूंगी
पर छोटी बछिया, बिल्ली के बच्चे, दौड़ते पिल्ले 
अपनी माताओं से कैसे मांगेंगे जल  
इतनी गर्मी में तो, कई अपने प्राण त्यागेंगे
थोडा रहम, थोड़ी गुज़ारिश मेरे दाता
जुलाई का महीना जा रहा,
इतना करम करो, इन मेघों को कुछ दिन खुलके बरसने दो,
नहीं तो आने वाले दिन और भारी होंगे, न पानी होगा न अनाज
फिर क्या तुम बहुत खुश होगे, सबको तिल-तिल तडपता देख,
सिर्फ हमारा ही नहीं, धरती मैया का भी ख्याल रखो
कहीं उसका सीना फट न जाये,
हम सब तो हो जायेंगे उसमें दफ़न,
फिर तुम बरसना सीना फाड़ के भी,
कोई नहीं होगा दुनिया में तब
जो तुम्हारे पानी में छप-छप करेगा,
न कोई कश्ती चलेगी, न दिल बाग़-बाग़ होगा,
बरसाओ प्रभु अब तो जम के पानी,
नहीं तो हो जायेगा सब सून,
कुछ दिन तो बरसे ये बादल
तब नाचे मन का मयूर ।।

Monday, May 14, 2012

मेरी माँ 

मेरी आंखें तुम्हारी  जैसी हैं,
कभी-कभी मेरी बातें तुम्हारी जैसीं हैं,
तुम हो हमसब का जीवन स्तम्भ,
तभी तो तुम्हारी पहचान भगवान जैसी है।

पहले बंधे होते हैं हम तुमसे नाड़ी से, 
फिर हमारी नसों में तुम्हारा ही खून बहता है,
तुम्हारा प्यार, दुलार हमें सीचंता है,
और तितली की तरह हम यहाँ -वहां उड़ने लगते हैं ।

तुम्हारे प्यार की कोई परिभाषा नहीं, कोई अर्थ  नहीं,
ये तो बस एक दरिया है, जो बहता ही रहता है,
कैसे समझाए कोई इस एहसास को,
जनम से हर कोई इसमें बहता रहता है।

मुझमे तुम बसी हो, और बसें हैं तुम्हारे प्राण,
मेरे हर कतरे पर  अनमिट तुम्हारा  नाम,
दिखा नहीं सकती कभी, तुम्हे अपना ये सर्वस्व,
हर पल  तेरे जीवन को 'माँ' मेरा प्रणाम....... 

Friday, April 20, 2012

: हैप्पी बर्थडे  वर्षा आंटी  :

 मुझे  याद  है  आपसे  पहली  बार  मिलने  की  बात ,
सुन्दर  मेनिक्योरड  हाथ  और  गुलाबी  सजी उसमें  नेल पॉलिश
बेहत सोफिस्टीस्कैटड था  आपका  अंदाज़ ... 

एक  बेहतखूबसूरत पर्स में से ,
कागज़ -कलम  निकाल,जब आपने नोट  करना शुरू
किया  सबका फ़ोन नंबर,
तब  याद आया कि कई दिनों बाद कोई दिखा है इतना सुव्यवस्थित ,
उम्र  में हमारे लगभग दूने का अंतर ,
फिर  भी हम  बच्चों के बीच  इतनी अवस्थित  !

अपने  उम्र  के  लोगों  में 
आप  सच  में  बहुतअलग लगीं,
आपकी -अपनी  कहानी में मुझे कहीं
थोड़ी  नज़दीकीयां  मिलीं,
जीवन  में  आपके  खुशियों  की   बजती  रहे  घंटी ,
हम  सबकी  तरफ  से  आपको  हैप्पी  बर्थडेVarsha आंटी
 :-)
 

Wednesday, April 18, 2012

अरे, कल ही था !!!!!!!

अरे, कल ही था !!!!!!!

अरे कल ही था जन्मदिन मेरा ,एक साल और बड़ी हो गयी हूँ,कई सारे अच्छे काम करने हैंऔर घटिया काम करने की लिस्ट भी बना ली है
अब एक औरत बन चुकी हूँ मैं,पर बुद्धि से अभी भी हूँ कहीं पैदल,क्या करूँ शरीर और दिमागएक जैसा विकसित नहीं होताकभी बच्चों की तरह रोड परगाते हुए निकल जाती हूँ,किसी फालतू-सी घटिया बात पर,खड़े, कहीं भी कह्कहें लगाती हूँकिसी डरपोक को खुले में समझाती हूँ,कि भगवान की बेटी हूँ मैं ,कभी किसी से डरती नहीं,जो डरते हैं वो काफ़िर होते हैं,और कभी बेटे के पैर हिलाते ही,भूकंप की आहट सोच, मैं नींद में भी डर जाती हूँ
थोड़ी बड़ी तो हो गयी हूँ मैं,अब चीज़ों को, रिश्तों को खोने से डरती हूँऔर जब कभी मेरा काजल न मिले,पूरे घर में हडकंप मचा देती हूँ,अलमारियां टटोल देती हूँ,दीवान को खिसका के तिरछा-सीधा भी कर देती हूँ,उस समय भगवान की इस बेटी पर,खली का भूत आ जाता है,और काजल खोजने के चक्कर में,कई और गुम चीज़ें जादू से ले आती हूँ.
मय्या कहती थी, तू तो न बच्ची ही बने रहना,बड़ी मत होइयो ! अरे मम्मी, बच्चे बने रहने के बड़े सुख हैं,खुशमिजाजी बनी रहती है, और अल्हड़पन जवान रहता है ,बुढ़ापा कभी आता नहीं, उम्र का जोर रहता नहीं,
तुम्हारी ये बेटी जवान से प्रौढ़ होने चली है,जिंदगी की धीमी बहती नाव में बहने चली है,पर आज भी मेहमानों की आहट सुन,बचपन की तरह दो डेग में सारा घर नाप जाती हूँ,दरवाज़ा खोलने की कॉम्पटीशन में आज भी टॉप आती हूँपापा के 'तीले धारो भुला' की धुन में सांकल बजानेका आज भी इंतज़ार करती हूँसास-ससुर के भी घर में आने पे,उनके सारे बंद सूटकेसों का पहले मैं ही सत्यानाश करती हूँमजा आता है बड़ा, बच्चे-सा बने रहने,अपने हर किस्से मैं मम्मी-पापा, भय्या, गुड़िया,तनु, रितु और छोटी गुड़िया के किस्से कह देना,हजारीबाग़ के चक्कर लगाना, और दिन भर थकने के बादबिस्तर में बेटे की 'बहन' बनकर उससे चिपट के सो जाना
हकीक़त में लडकियां बड़ी होती नहीं,थोप देती है ये दुनिया उनपे बड़ा बन जाओ ये चस्पां,बचपन की नादानियाँ और बाबुल का घर याद आते ही,आज भी जी-भर रो लेती हैं, किसी कोने में कहीं, दिल में अपने अपना बचपन छुपाये, जी लेती हैं देखो हर औरत कहीं न कहीं,क्या पके आमों को देख आप भी पुराने दिन याद नहीं करतीं. हम सब के अन्दर एक बच्चा है,जो उम्र के साथ हम भुला देते हैं,लूट, खसोट और बड़ा बनाने की चाहत मेंकई तरकीबें नयी लगाते हैं,पर हम सब को अपने बच्चे पसंद हैं,भोले, निःस्वार्थ और सच्चे,बड़ा बनने का कोई फायदा नहीं,हम तो बच्चे ही अच्छे !!!!!!!!!!!

अरे, कल ही था !!!!!!!

अरे, कल ही था !!!!!!!


अरे कल ही था जन्मदिन मेरा ,एक साल और बड़ी हो गयी हूँ,कई सारे अच्छे काम करने हैंऔर घटिया काम करने की लिस्ट भी बना ली हैअब एक औरत बन चुकी हूँ मैं,पर बुद्धि से अभी भी हूँ कहीं पैदल,क्या करूँ शरीर और दिमागएक जैसा विकसित नहीं होताकभी बच्चों की तरह रोड परगाते हुए निकल जाती हूँ,किसी फालतू-सी घटिया बात पर,खड़े, कहीं भी कह्कहें लगाती हूँकिसी डरपोक को खुले में समझाती हूँ,कि भगवान की बेटी हूँ मैं ,कभी किसी से डरती नहीं,जो डरते हैं वो काफ़िर होते हैं,और कभी बेटे के पैर हिलाते ही,भूकंप की आहट सोच, मैं नींद में भी डर जाती हूँथोड़ी बड़ी तो हो गयी हूँ मैं,अब चीज़ों को, रिश्तों को खोने से डरती हूँऔर जब कभी मेरा काजल न मिले,पूरे घर में हडकंप मचा देती हूँ,अलमारियां टटोल देती हूँ,दीवान को खिसका के तिरछा-सीधा भी कर देती हूँ,उस समय भगवान की इस बेटी पर,खली का भूत आ जाता है,और काजल खोजने के चक्कर में,कई और गुम चीज़ें जादू से ले आती हूँ.मय्या कहती थी, तू तो न बच्ची ही बने रहना,बड़ी मत होइयो ! अरे मम्मी, बच्चे बने रहने के बड़े सुख हैं,खुशमिजाजी बनी रहती है, और अल्हड़पन जवान रहता है ,बुढ़ापा कभी आता नहीं, उम्र का जोर रहता नहीं,तुम्हारी ये बेटी जवान से प्रौढ़ होने चली है,जिंदगी की धीमी बहती नाव में बहने चली है,पर आज भी मेहमानों की आहट सुन,बचपन की तरह दो डेग में सारा घर नाप जाती हूँ,दरवाज़ा खोलने की कॉम्पटीशन में आज भी टॉप आती हूँपापा के 'तीले धारो भुला' की धुन में सांकल बजानेका आज भी इंतज़ार करती हूँसास-ससुर के भी घर में आने पे,उनके सारे बंद सूटकेसों का पहले मैं ही सत्यानाश करती हूँमजा आता है बड़ा, बच्चे-सा बने रहने,अपने हर किस्से मैं मम्मी-पापा, भय्या, गुड़िया,तनु, रितु और छोटी गुड़िया के किस्से कह देना,हजारीबाग़ के चक्कर लगाना, और दिन भर थकने के बादबिस्तर में बेटे की 'बहन' बनकर उससे चिपट के सो जानाहकीक़त में लडकियां बड़ी होती नहीं,थोप देती है ये दुनिया उनपे बड़ा बन जाओ ये चस्पां,बचपन की नादानियाँ और बाबुल का घर याद आते ही,आज भी जी-भर रो लेती हैं, किसी कोने में कहीं, दिल में अपने अपना बचपन छुपाये, जी लेती हैं देखो हर औरत कहीं न कहीं,क्या पके आमों को देख आप भी पुराने दिन याद नहीं करतीं. हम सब के अन्दर एक बच्चा है,जो उम्र के साथ हम भुला देते हैं,लूट, खसोट और बड़ा बनाने की चाहत मेंकई तरकीबें नयी लगाते हैं,पर हम सब को अपने बच्चे पसंद हैं,भोले, निःस्वार्थ और सच्चे,बड़ा बनने का कोई फायदा नहीं,हम तो बच्चे ही अच्छे !!!!!!!!!!!


Saturday, February 11, 2012

तलाश

मेरे प्यार की तलाश ख़तम हो चुकी है,
तुम्हारी आहटों से पुरानी याद मिट चुकी है
इस समुन्दर में हर रोज लगाती हूँ मैं अब डुबकी,
नहाकर प्यार में, मैं मदमस्त हो चुकी हूँ

रोज तुम्हे देखती हूँ,
कभी बहुत दूर और कभी पास से 
अपना दिल भी निकाल के रख दिया है रास्ते में
मुझे भी पता है कि तुमने देख ली है वो जगह,
पर हिचकिचाते रहते हैं दोनों बेवजह

तुम भी अपने संसार में डूबे हो और मैं भी,
दोनों प्यार के रंग में दिन-रात गोते लगाते हैं,
मुझे जान से भी ज्यादा कीमती है अपनी फुलवारी
और तुम्हारी भी कहीं ज्यादा ही हैं जिम्मेदारी
पर प्यार पर किसी का कोई जोर नहीं,
सांस तो अब लेते हैं, पर अब कोई होश नहीं,
ख्वाहिश इतनी सी है, कि कभी बैठे तन्हाई में किसी रोज,
एक-दूजे के सामने आंसुओं का समंदर बहा दे,
न रखे कोई अफ़सोस और न ही कोई आरजू,
चुप-चाप सुन लें समय की टिकटिकी,
सिर्फ ये बता दे ज़माने को कि तुमने अधिक चाहा था या मैंने,
नश्तर की तरह चुभते इस दर्द को बहा देते हैं इस पानी में,
क्योंकि दर्द सिर्फ दुःख देता है, और प्यार का कोई सानी नहीं,
मेरी उम्र और रिश्ते से प्यार का पैमाना नाप सकते नहीं 
तभी कह गए हैं ग़ालिब कभी, 
इश्क पर जोर नहीं, है ये वो आतश ग़ालिब
के लगाये न लगे और बुझाये न बुझे...........
<3 
१२-२-२०१२

Monday, January 30, 2012

कुछ कच्चे पल

३१-१-१२

कुछ कच्चे पल 

आ रहा है कुछ याद,
इन खुली-बंद आँखों में,
यादों के झुरमुट से,
गुनगुनी हलकी सरसराहट,
ठंडी हवाओं के झोकों की तरह
आज भी सुनाई देती है,
तुम्हारी सुनहरी आहट .....

कुछ खों-खों करके गाते हुए तुम्हारे वे नगमे,
पास आने की इतल्ला दे देते थे,
फाटक पे साइकिल की घंटी की सरगम से
पहचान जाती थी मैं उस समय की धड़कन..

कभी शाम को बालकोनी में बैठ,
नए गानों को ऊँचे सुरों में सुनने की कवायद,
और कभी हलके-हलके तबले की थाप में
उमड़ते, घनघनाते लफ्जों की तपिश,
मिजाज हरा कर देती थी, कसम से....

तुम्हारी खामोशी और मेरा अनजान बने रहना,
एक रास्ते में चल, रास्ता जुदा करना,
आज बड़ा ही अफसोसनाक लगता है,
पता था जबकि, सुर-सरगम नस-नस 
में बैठी  थी हमारे-तुम्हारे

तुम्हारे पते में, मैं अब नहीं जाती,
दूर गुमनाम किसी शहर की चिल्ल-पों में बस चुकी हूँ मैं,
न रखती हूँ तमन्ना, तुमसे कोई दिल का रिश्ता भी रखूँ,
मेरी साँसों में अब कोई और बस चुका है,
पर मुद्दतों बाद जब भी होता है जिक्र तुम्हारा,
घबराहट से भर जाता है, अब भी मेरा छोटा-सा ये दिल,
कि कहीं कोई चोरी पकड़ी तो नहीं गयी,
चुप-चाप सिमट जाती हूँ अपनी साँसें रोक के, 
मुझे पता है, ये लुका-छिपी का खेल
कभी ख़त्म होने वाला नहीं,

न तुम बोलोगे मुझसे और 
न मैं कभी आवाज़ दूँगी,
अपनी अनबुझ कहानी को
फिर भी मैं नया नाम दूँगी,
ये पहले प्यार की खनक
सुन सकते हैं हम सभी इन कानों से,
जीवन के ये कुछ कच्चे पल थे,
जो जल्द ही टूट गए,
किसी नयी उभरती कहानी के ये पन्ने रूठ गए,
छन-छन के आते हैं, इन पलों से 
यादों की सुनहरी-मीठी टीस,
खो जातें हैं हम सभी,
उस पहले प्यार के बीच... 

Thursday, January 26, 2012

कार्मेल स्कूल-2

कार्मेल स्कूल-2

अपने पिछले आलेख में मैंने बताया था कि क्लास 7th की ज्यादा बातें अब याद नहीं है मुझे पर अभी 3 कक्षाओं का सिलसिला बाकी है. क्लास 8th की हमारी क्लास टीचर थी, सिस्टर वीना Ac वो मेरी बेहद ही पसंदीदा टीचर रही हैं हमेशा से, उनके साथ मेरा जुड़ाव भी बहुत था. जैसे एक मां अपने बच्चे को किसी भी समस्या में पड़ने से पहले बचा लेती हैं, वैसे ही वह मुझे छोटी-मोटी समस्याओं से बचा लेती थी. सिस्टर वीना एक सुन्दर, सुडौल, और बेहत ही शांत किस्म की महिला थी, उनके चेहरे पर गोल चश्मा बड़ा ही फबता था. साथ में वो जूड़ा भी बनाती थी. उन्हें पता था कि मेरी अंग्रेजी बहुत ही कमजोर थी, पर डांटने के बजाय वो मुझे मेरी इस परेशानी से लड़ने के लिए हमेशा प्रोत्साहित करती रहती थीं.  मुझे एक वाकया याद है इस बारे में. इंग्लिश में  हमारी २ किताबें होती थीं, 1 तो btc की और एक Guided English . एक बार की बात है एक होमेवर्क था, जिसमें हमें अपने पिता को एक पत्र लिखना था, और उस पत्र का विषय था, कि हम Russia के किसी स्कूल में हॉस्टल में रह कर अपनी पढ़ाई कर रहे हैं और अचानक हॉस्टल में आग लग गयी है, आग इतनी भयानक नहीं है, पर उसमे आपका बहुत सारा सामान जल गया है, और आपको उनसे पैसे मंगवाने है. अब चिट्ठी लिखनी थी वो भी इतने दूर देश से. यहाँ तो पापा से कुछ भी फरमाइश कर लो तो वो तो मिल जाये पर अब क्या लिखूं ये समझ ही नहीं आया. मुझे तो इतने सारे वाक्य इंग्लिश में बनाने भी नहीं आते थे. होमेवोर्क तो हो गया और मैंने सिस्टर को वो चेक भी करने को दे दिया  सिस्टर ने जैसे ही इंग्लिश को कॉपी ली, और संभवतः पहली नज़र ही डाली होगी उन पंक्तियों पर, झट से उन्होंने मुझे बुला लिया और कहा, 'शिप्रा ये होमेवर्क पापा से करवाया है ना', और मैंने भी बेझिझक  कह दिया 'हाँ'. सिस्टर ने हंस के कहा थोड़ा-थोड़ा ही सही खुद से लिखने की कोशिश करो. उल्टा-पुल्टा ही सही पहले इंग्लिश में सोचो फिर उसे लिखो और फिर किसी से चेक भी करवाओ..... इस तरह मैंने फिर इंग्लिश के साथ धीरे-धीरे ही सही अपनी दोस्ती कर ली. इसी तरह एक बार attendance  के समय मैंने कहना था I was absent, पर कह दिया I am absent ,फिर क्या था पूरी क्लास खिल-खिला के हंस पड़ी, पर अपनी इस कमी को दूर करने के लिए मैंने खुद से कसम खा ली.

मेरी क्लास में बहुत सारे बच्चे थे, जिसमें सभी किसी न किसी चीज़ में ख़ास थे. सारिका,रूबी, अनामिका और बहुत सारे बच्चे पढ़ाई में बहुत ही तेज़ थे. मेरे मन में कुछ लोगों के लिए तो ख़ास ही जगह थी. एक तो मेरी बेस्ट फ्रेंड सारिका सिन्हा के लिए, क्योंकि वो मेरी सब बात सुन लेती थी और मान भी लेती थी और वो मेरी तरह गोलू-पोलू थी और मेरी पडोसी भी थी . संगीता दास मुझे अच्छी लगती थी, क्योंकि वो बहुत अच्चा ब्रेक डांस भी करती थी, साथ में बातें भी अच्छी करती थी,  उसकी और मेरी मम्मी दोनों साथ में एक ही स्कूल में टीचर भी थीं, इसलिए उससे निकटता का अनुभव होता था. संगीता की फ्रेंड थी, प्रीती होरा.पहले उसके लम्बे बाल थे, फिर क्लास 8th में उसने बाल छोटे करा लिए थे और वो स्मार्ट दिखने लग गयी थी. प्रीती, मुझे माफ़ करना पर ये बात लिखने का मन कर रहा है, कि हर बात के बीच में होंठ बजा के चटकारे लेकर  बोलती थी. 
उसने एक बार बाबा सहगल का rap song  गाया था, क्लास में 'हवा हवा ऐ हवा खुशबू लुटा दे, मैंने सोचा पता नहीं, कोई कविता कह रही होगी पर बाद में पता चला कि इसे rap song कहतें हैं, इस तरह संगीत की इस नयी विधा का पता चला. सोनिया बावा थी, एक बेजोड़ डांसर. उसकी तो पता नहीं कितनी फेन होंगी उस स्कूल में. आये दिन उसे छोटे बच्चे, गुलाब, चॉकलेट गिफ्ट करते रहते थे, वो हमारे स्कूल की माधुरी दीक्षित थी. हमारे क्लास की स्वाति जैन भी उसकी एक जबरदस्त फैन्स में से एक थी. सोनिया,स्वाति का एक ग्रुप था, जिसमें क्लास 9th  में जा कर स्निग्धा कान्त भी जुड़ गयी.  रूबी, आशा अग्रवाल, हरमीत,सोनालिका,सम्पूर्णा ये सभी एक ही ग्रुप में रहते थे. रिंकी सारिका के साथ थी, अल्पना, और जया ज्योति की जोड़ी थी. सभी के अपने ग्रुप थे, मेरा ऐसा कोई जोड़ा या तिगड़ी नहीं थी पर मैं मूलतः एक ही ग्रुप में रही जिसमे, सारिका, रिंकी, अनीता सिंह, अल्पना, जया ज्योति हुआ करते थे. हम सब प्राइमरी सेक्शन में  लगे झूले की तरफ टिफिन करने जाते थे और खाना खाकर वहीँ झूलते भी थे कभी-कभी. मैं लम्बी नहीं थी तो मेरे दोस्त मुझे पकड़ के मुझे झूले में टांग देते थे, और फिर में जुट जाती थी अपनी कलाबाजियों में. बहुत बार तो धम्म से गिर भी जाती थी बालू के ढेर में. खेल-कूद में तो मैं बड़ी ही फिस्सडी थी.

शेष आगे.............

कार्मेल स्कूल

कार्मेल स्कूल

कभी-न-कभी हम सभी पुराने दिनों और यादों में लौट जाना चाहते हैं और आज फिर पुराने पन्ने पलटने का मन कर रहा है. पुराना स्कूल मायके की तरह होता है, जहाँ से हम हमेशा जुड़े होतें हैं, चाहे वो पुराने शिक्षक/शिक्षिकाएं हों या पुराने दोस्त. जैसे मायका छूट जाने के बाद वहां की महत्ता ज्यादा पता लगती है, उससे जुड़ाव और ज्यादा हो जाता है, मेरा वही हाल मेरे स्कूल के साथ है. क्लास 6  में लगभग 100  बच्चों की एक क्लास थी, जिसमे क्लास 5 a , b और c सेक्शन के बच्चों के साथ बाहर से आये हुए बच्चों का जमघट लग गया था. हमारी क्लास टीचर थीं, मिस पूर्णिमा सिंह, जो हमारी पड़ोसी भी थी. मैं नवाबगंज में श्री रामनाथ गिरी जी के मकान में रहती थी, जो अनंदा स्कूल में टीचर थे. मिस पूर्णिमा, मिस लिली (संपूर्णा सिकदर की मम्मी) और मिस शिखा रानी सेन आस-पास ही रहते थे. मिस पूर्णिमा और  मिस लिली का घर सटा हुआ था, और मिस शिखा का घर रोड पार करके आता था. बहरहाल 100 या 101 बच्चों के क्लास में पहला रोल नंबर था अल्पना कुमारी का और अंतिम था ज़ेबा कौशर का. मेरा रोल नंबर 76 था और मेरे आगे थी, शेफाली सत्यार्थी. अब्सेंट-प्रेजेंट कहते-कहते ही 15 मिनट गुजर जाते थे. उस समय टीचर हर हफ्ते हमारी सीट बदल देती थी और मेरे साथ बैठती थी अंजना अग्रवाल या जया ज्योति. जया की हंसी मुझे बहुत पसंद थी, हलकी और खनक से भरी हुई.

मैं और मेरी बहिन किशोरी के रिक्शे में आते-जाते थे, पर शनिवार को सिर्फ हाई-स्कूल चलता था, तो मुझे अकेले ही जाना पड़ता था. एक दिन मिस पूर्णिमा ने मुझे अकेले जाते हुए देख लिया तो मुझे अपने साथ ले लिया. उस दिन से शनिवार को हमेशा मैं उन्हीं के साथ स्कूल जाने लग गयी. कभी-कभी उनकी बहिन मिस रागिनी भी साथ होती थी. मिस पूर्णिमा के साथ जाने के कारण मैं खुद को उनके करीब पाने लग गयी थी. वो मैथ्स की शिक्षिका थीं और मुझे सिर्फ अर्थमेटिक ही पसंद था. सबसे मजेदार क्लास थी, जिओग्राफी की. मिस सरोज पॉल थीं टीचर. मुझे पता है आप सब भी मुस्कुरा रहे होंगे नाम पढ़ के. एक ही क्लास में पता नहीं कितने चैप्टर ख़तम कर देती थीं. मुझे याद है जिओग्राफी की कॉपी, एक तरफ लाइन वाली और दूसरी तरफ सफ़ेद पन्ने. हर दिन हर कंट्री का मेप बनाना होता था, होमेवोर्क की कॉपी चेक करने के वक़्त एक- एक 'रो' की बारी आती थी. मैं भी कभी-कभी उस रो मैं बैठ जाती थी, जहाँ की कॉपी चेक हो चुकी हो.कभी वो क्लास में पूछती थी, कौन-कौन ट्रेन में बैठा है, और कौन प्लेन में. सभी बहुत मजा करते थे उस क्लास में.  क्लास 6  से 7th में जाते हुए सब के दिल बैठे हुए थे क्योंकि अब सेक्शन बंटने थे और सब अलग-अलग होने वाले थे. 7 में मुझे मिली A  सेक्शन और फिर 10th तक A ही मेरी क्लास भी रही. 7-10th  तक लगभग सारे सहपाठी भी वही रहे. 
क्लास 7th में हमारी क्लास टीचर थीं मिस माया. बड़ा ही मनहूसियत भरा हुआ वो कमरा था, अँधेरा भरा और काला. मेन हॉल के पास ही था वो. मिस माया हमें सिविक्स पढ़ाती थीं. उस क्लास के बारे में इतना तो याद नहीं मुझे, पर ये जरूर याद है कि मोरल साइंस की क्लास में दोनों सेक्शन साथ बैठते थे, जैसे कोई बिछुड़ा हुआ दोस्त मिल गया हो. जिसकी जो बेस्ट फ्रेंड वो उसी के साथ बैठ जाती थी और ऐसा लाज़मी भी था.   

आँखें

आँखें 

तुमने कहा था, कभी किसी रोज,
कि तुम्हारी आँखें खूबसूरत हैं,
पर इन आँखों में तुम उतरे नहीं,
ये कैसी हकीक़त है ?

कैसे खूबसूरत हो सकती हैं ये आँखें,
जब किसी ने इसे देखा नहीं,
इन काले कंचों के जोड़े में,
नज़रों से कोई खेल खेला नहीं.

दूर तक जब भी देखा,
तो सिर्फ तुम्हारा अक्श दिखता था,
पास तुम्हारे न होते हुए भी,
एक ही शख्स दिखता था, 
 ये वही था, जिसके पास गिरवी 
रखी थीं, मैंने अपनी निगाहें,
आँखें मूँद कर तकती रहीं थी,
खोल कर अपनी ये बाहें,
कि कभी इन रास्तों में तुम
 किसी रोज आ मिलोगे,
लगा कर मुझको गले,
तुम मुझसे ये कहोगे,
कि इन निगाहों ने दिखाया रास्ता मुझको,
तुम्हारे पास आने का,
बंद कर लो अब इन्हें, ये रास्ता ख़तम है,
मिली मंजिल मुझे,खुश हूँ मैं, अब न कोई भरम है.

ऐसा होता काश!
तो मैं आज इन निगाहों में होती,
देखते रहते मुझे तुम
और मैं इन पनाहों में होती,
पर तुम्हारी आँखों ने देखा क्या,
मुझे अब तक पता नहीं,
इन रास्तों में आते हुए
तुम कहीं और चल दिए,
मेरी इन खूबसूरत राहों में
धूल का मंजर दिए हुए,
तब से मेरी आँखों में 
सिर्फ उजाड़ रहता है,
खोई हुई मेरी इन राहों में 
न कोई सार रहता है,
बोझिल हो चुकी है ये नज़रें 
बन चुकी है ये बुत,
अब न कोई पैमाना है इनमें 
न कोई इन नज़रों का साक़ी है,
कितनी गहराइयों में डूबे हुए थे तुम
देखना बस ये बाकी है,
मेरी सूरत गर दिख जाये तुम्हें तो  
हकीक़त बस ये काफी है........ 

२६-१-२०१२

Monday, January 23, 2012

सपने

सपने मैं देखती हूँ हर रोज,
पर पहले इन खुली आँखों से,
बाद में आँखें मूँद कर,
उन्हें नींद में समां लेती हूँ.

हर रोज सोचती हूँ, याद करती हूँ,
अनगिनत कहानियाँ,
सोचते-सोचते सो जाती हूँ,
और ढूँढती हूँ उनमें अपनी ही निशानियाँ

कभी किसी ख्वाब में
देखतीं हूँ, बचपन के सपने,
कभी किसी ख़ास शख्स को,
जो दिल के बहुत करीब था अपने,
कभी पुराना घर तो कभी पुराने दोस्त
और कभी अपनी उम्मीदों  
का अपना सफ़र,
जो पीछे छूट गया कई कहीं किसी रोज

बहुत महत्वाकांक्षी नहीं थी मैं,
न थी जीवन की कोई लम्बी योजना
जो सोचा, लगभग वो सब कर लिया,
थोडा-थोडा ही सही, पर मजा सब का लिया
क्या पता तब मजा ज्यादा आता,
जब सोचती कि मैं छूं लूं आसमां,
दिन में सोचती और रात में छू गयी होती
फिर अपनी जिंदगी का फलसफा समझ आता 

काश! मैं कभी महल बनाने की सोचती
सपनों में तो अबतक बना चुकी होती वो महल,
झटपट बन जातें हैं ये हमारी नींद में,
और नहीं पड़ती इनके बनाने में कोई खलल
तजुर्बा बस बताने का इतना-सा है,
सपने कोई ख्याली पुलाव नहीं होते,
हम जो सोचते हैं इन खुली आँखों से,
दिल में बुन लेते हैं बस जाल उन सब के,
कभी कोशिशें कर लेतें हैं उन्हें पा लेने की,
औ' कभी थक-हार बंद आँखों में 
उन्हें नीदों में उतार लेते हैं..... 

२३-०१-२०१२