Saturday, September 10, 2011

विसर्जन


विसर्जन

अपने मन के मंदिर में मैंने सजाएं हें कई भगवान,
जो दिखते उनसे हैं, पर हैं इंसान,
न किसी में कोई फर्क, न ही कोई भेद,
भगवानों की तरह उन सबकी पदवी भी एक.
सबको एक भाव से पूजती हूं,
एक ही भाव से करती हूं उन सबका ध्यान,
कभी दीपक जलाकर, कभी धूप दिखाकर
करती रहती हूं उन सबका गुणगान.
     
    इस मंदिर में कभी कोई आता है,
    और कभी चला भी जाता है,
    कोई जगह कभी खाली नहीं रहती,
    सिर्फ समय बदलता जाता है

     कभी उन्हें स्थापित कर करतीं हूं वंदन-पूजन,
     नित्य नये मंत्रों से होता है स्तवन,
     नित नये गान, नये साज बजाकर रिझाती हूं,
     फूलों की नयी मालाओं से उनको सजाती हूं
     फिर भी वे मौन ही रहतें हैं,
     मन के मेरे मंदिर से जुड़े रहतें है


           रस्मों- रिवाजों के दौर के बाद
          होती है उनकी विदाई की बारी
     अपना बनाके आती है फिर जुदाई की बारी
     मन सहम जाता है, शून्य हो जाता है,
     चारों ओर खाली-सा दिखता है

    भगवान की लीला अपरंपार है
   अपनी विदाई में तो उल्लास लातें हैं,
   महोत्सव मनवाते हैं, खुशी बांटतें हैं
   पर इंसान के जाने का दर्द, कितना निमर्म देते हैं,
   हर जगह शोक,क्रंदन,निराशा भर देते है

   इंसानों के गमन को वह मृत्यु कहतें हैं
   पर अपने गमन को विसर्जन की संज्ञा देतें हैं,
   पर मन तो मेरा हैं और मंदिर भी मेरा
   उसमें बैठे इंसानों के बारे में सोचने का हक भी मेरा
   आज से मैं इस गमन को नया नाम देती हूं 
   और मृत्यु के बदले विसर्जन दे इसे विश्राम देती हूं.

शिप्रा पाण्डेय शर्मा
10-9-11