Monday, September 30, 2013

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प्रस्तावना

5 जुलाई, 2006 को, सिटी हाई स्कूल के प्लेटिनम जुबली समारोह में भाग लेने के लिए मैंने दक्षिण उड़ीसा के बेरहामपुर का दौरा किया। तूफानी मौसम में वहां हजारों की संख्या में आये बहादुर छात्रों ने मेरे दिल को गहराई से छू लिया। मेरे दोस्त, कोटा हरिनारायण, जो भारत के हल्के लड़ाकू विमान विकास कार्यक्रम के पूर्व प्रमुख थे, भी वहां मेरे साथ थे। वह कोटा के इस स्कूल के एक प्रतिष्ठित पूर्व छात्र थे और मैंने उनसे पूछा, " इस स्कूल के छात्र होते हुए क्या आपने कभी ऐसा सोचा भी था कि किसी दिन आप एक लड़ाकू विमान विकसित कर पाएंगे?" अपने विशिष्ट अंदाज़ में हंसते हुए कोटा ने जवाब दिया, "मुझे तो लड़ाकू विमानों के बारे में ही कुछ पता नहीं था, लेकिन मुझे यह जरूर लगता था कि मैं एक दिन कुछ महत्वपूर्ण अवश्य हासिल करूंगा।

किसी बच्चे के जीवन में जो पहले अव्यक्त होता है, क्या बाद में प्रकट होने लगता है?
शायद हां। 1941 में, रामेश्वरम पंचायत बोर्ड स्कूल के मेरे विज्ञान शिक्षक शिव सुब्रमनिया अय्यर ने मुझे ( मेरी उम्र 10 वर्ष थी) बताया कि पक्षी कैसे उड़ते हैं।  वास्तव में उन्होंने इस विषय के प्रति मेरे मन के अकाल्पनिक दरवाज़े खोले और और इस विषय को लेकर मुझे शाब्दिक और चित्रात्मक प्रेरणा दी।

प्राथमिक शिक्षक पारिवारिक आनुवंशिक श्रृंखला के वाहक एक छात्र के प्रगतिपूर्ण जीवन में उपदेशों और कथाओं द्वारा एक निर्णायक भूमिका वहन करते हैं। उनपर अपने छात्रों के जीवन की प्रगति की पूरी जिम्मेदारी होती है।

इस धरती में सदी के 75 साल गुजारने और कई लाख युवा छात्रों से बातचीत के बाद मुझे लगता है कि शिक्षा वास्तव में एक सहयोगात्मक प्रक्रिया है, जो कई उपप्रक्रियाओं से घिरी हुई है। हम इसके चार घटकों के विस्तार पर काम  कर सकते हैं।  ये चार परस्पर तत्व आपस में जुड़ कर एक समग्र रूप ले सकते हैं और शिक्षा का यह समग्र जोड़ इन चार तत्वों से कहीं अधिक बड़ा होता है। आपस में जुड़े इन चार तत्वों के बिना कोई भी शिक्षा किसी विद्यार्थी को वह रूप प्रदान नहीं कर पायेगी, जो आगे चलकर उसका भविष्य संवार सके। ये वो कौन से अवयव हैं जो शिक्षा को पूर्ण रूप दे सकते हैं?

सीखने के पहले चरण में, व्यावहारिक, ठोस और विशिष्ट पहलू शामिल हैं।  दूसरे चरण में साधन और तरीके शामिल है। यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि ज्यादातर लोग इस बात को समझ गयें हैं। तीसरे चरण में अनुभव की सीढ़ी में चढ़कर व्यक्ति समझ के विमान से उतरता है।  इस चरण में एक विकसित आत्मा की स्वाभाविक प्रगति होती है। चौथे और अंतिम चरण में मानव अस्तित्व के दार्शनिक और अमूर्त आयाम की अभिव्यक्ति होती  है। विभिन्न संस्कृतियों के हिसाब से इन चार चरणों के नामकरण भी अलग-अलग होते है।
हिन्दू समाज के अनुसार एक जीवन के चार चरण होते हैं, इनके नाम हैं, ब्रह्मचर्य (छात्र), गृहस्थ (गृहस्थ), वानप्रस्थ (अर्द्ध सेवानिवृत्ति में) और सन्यासी (पूर्ण सेवानिवृत्ति या त्याग)   प्रत्येक चरण के धर्म (सही आचरण) भी अलग-अलग प्रकार के है. ये चारों चरण इन क्रियाओं का अलग-अलग रूप से प्रतिनिधित्व करतें हैं, जिनमें तैयारी, उत्पादन, सेवा और प्रस्थान की अवधि शामिल है । हिंदू धर्म एक शिक्षाप्रद सिद्धांत में विश्वास नहीं करता।  इस धर्म में लोगों को यह सिखाने की जरूरत नहीं पड़ती कि कैसे खुश रहें, कैसे सुरक्षित रहे, और कैसे लोगों में इज्जत पाएं या दोस्तों और सहयोगियों से तारीफ कैसे बटोरें? हिंदू विचारधारा के अनुसार इन मूल्यों की एक स्वाभाविक प्रगति होती है और हर एक व्यक्ति अपने मौलिक हितों की दिशा में इसका स्वतः विकास करता है। प्राकृतिक मूल्यों के माध्यम से यह परिवर्तन आश्रम के रूप में स्थापित किया जाता है और जीवन के चार चरण इसी में आबद्ध हो जातें हैं।

बौद्ध धर्म में, आत्मज्ञान प्रक्रिया लगातार चार चरणों के रूप में समझायी गयी है। ये चरण हैं -  सोतपन्न- यह आंशिक रूप से वह प्रबुद्ध व्यक्ति है और जिसने दिमाग का इन तीन मनःस्थितियों से अलगाव  कर लिया हो  (ये मनः स्थितियाँ हैं, आत्म-आंकलन,  उलझनपूर्ण संदेह और संस्कारों और अनुष्ठानों के लिए लगाव),  अपेक्षाकृत मजबूत कामुक इच्छाओं से युक्त ,बुरी भावनाओं में संलिप्त  व्यक्ति सकदगामी है,  जो व्यक्ति कामुक इच्छाओं और दुर्भावना से पूरी तरह से मुक्त है वह अनागामी और जो भविष्य में आने वाले सभी कारणों से मुक्त और जैविक मौत के बाद पुनर्जन्म और सांसारिक बंधनों से अपने को अलग कर चुका है, उसे अरहंत कहतें है।    

शास्त्रीय पश्चिमी विचारधारा के अनुसार मानव आध्यात्मिक विकास के चार चरण है। पहला चरण, अराजक अव्यवस्थित और लापरवाह है।  इस चरण में लोग अवहेलना और अवज्ञा करते हैं और अपने या अपने आगे किसी अन्य की इच्छा को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते है।  दोषी और विद्रोही लोग इस चरण से कभी बाहर नहीं निकल पाते हैं। दूसरे चरण में वह व्यक्ति है जिसे अंधा विश्वास है, वे इस चरण तक पहुँच चुके होते हैं हैं कि उन्हें लगता है कि उनके बच्चों ने अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करना सीख लिया है, अर्थात ये वो दूसरे धार्मिक श्रेणी के लोग हैं, जिन्हें भगवान पर पूर्ण विश्वास है और उनके अस्तित्व को लेकर वे कोई सवाल करना ही नहीं चाहते। इस अंधविश्वास के साथ विनम्रता और आज्ञा पालन और सेवा करने की इच्छा स्वतः आ जा \ती है। कानून का पालन करने वाले अधिकांश लोग इसी दूसरी श्रेणी से बाहर नहीं आते।  . तीसरे चरण में वैज्ञानिक संदेह और उत्सुकता की अवस्था है। इस चरण में व्यक्ति को भगवान पर विश्वास तो होता है, पर परीक्षा के बाद। वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में काम कर रहे लोग अधिकांशतः  इस स्तर के होते हैं।  इस चौथे चरण का व्यक्ति रहस्य और प्रकृति की सुंदरता का आनंद लेना शुरू करता है। अपने संदेह को बरक़रार रखने के लिए वह प्रकृति की भव्यता को देखना/ समझना शुरू करता है। उनकी धार्मिकता और आध्यात्मिकता दूसरे चरण के व्यक्ति के एकदम अलग होती है, क्योंकि वह किसी भी चीज़ को अंध-विश्वास से अलग वास्तविक विश्वास के पैमाने में स्वीकार करते हैं।  इस प्रकार दूसरे अर्थ में चौथे चरण के व्यक्ति वास्तव में काफी भिन्न होते हैं।  चौथे चरण के लोग, वास्तव में रहस्यवादी कहे जा सकते हैं।

इस्लामी परंपरा में सूफी रहस्यवाद या तसववुफ़ के अनुसार आध्यात्मिक विकास के चार चरण होते हैं, जो आरोही क्रम से इस प्रकार होते हैं; शरीयत, तरीक़त, मरेफ़त, और हकीक़त। शरीयत नियम पुस्तिका में सुस्पष्ट रूप से पालन किये जाने वाले कोड का गठन किया गया। तरीक़त में प्रशिक्षण देने की बातें कही गयीं हैं। मरेफ़त में संगठन की बात और हकीक़त अंततः एक शिखर सम्मलेन है।

नागरिक समाज की जिम्मेदारी है कि वह युवा लोगों को शिक्षित कर जिम्मेदार बनाये और जो  नागरिक जिम्मेदार, विचारशील और उद्यमी प्रवृति के हैं, उन्हें और उन्नत करें। यह काम न तो किसी सेवा उद्योग के किसी खंड का है न ही किसी सरकार का। वास्तव में यह एक जटिल एवं चुनौतीपूर्ण कार्य है, पर इसके लिए नैतिक सिद्धांतों, नैतिक मूल्यों, राजनीतिक सिद्धांत, सौंदर्यशास्त्र और अर्थशास्त्र की गहरी समझ की आवश्यकता है। इन सबके ऊपर यह समाज और उसके बच्चों के लिए हमारी समझ जरूरी है। इस कार्य की जिम्मेदारी न तो सरकार पर डाली जा सकती है और न ही इसे पैसे से खरीदा जा सकता है।

हर व्यावहारिक क्षेत्र में प्रगति उन स्कूलों की क्षमताओं पर निर्भर करती है, जो बच्चों को शिक्षित करती है। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य भविष्य के विकास और समृद्धि को बढ़ावा देना है। बचपन में की गयी पर्याप्त तैयारी और बेहतर नींव ही बच्चों के विकास और इनके उद्देश्यों में सफलता प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध होती है। बचपन में नींव जितनी बेहतर व मजबूत होगी, आने वाले समय में बच्चा उतना ही सफल होगा। शिक्षा के क्षेत्र में मूल सरल बातें बच्चे को ऊंचाइयों तक ले जा सकती है। 
आमतौर पर शिक्षा के एक केंद्रीय सिद्धांत के अंतर्गत "ज्ञान का दान" भी शामिल है। बुनियादी स्तर पर, यह ज्ञान की प्रकृति, उसके मूल रूप और गुंजाइश के साथ संबंधित है। पर साथ ही ज्ञान की प्रकृति और विविधता पर विश्लेषण करना भी उतना ही जरूरी है और यह देखना भी उतना ही जरूरी है कि कैसे यह विचार सच्चाई और विश्वास से संबंधित है। हम अपने बच्चों को दूसरे देशों की सोच के अनुसार शिक्षित नहीं कर सकते  क्योंकि इससे भविष्य में उनके अन्दर मातृभक्ति की भावना का ह्रास होगा।  

पारंपरिक रूप से भारत एक ज्ञानवान समाज रहा है। इस भूमि में महान दार्शनिकों और विद्वानों ने अपने चरण रज रखे थे। शिक्षा के तरीकों और उद्देश्यों को लेकर भारतीय परंपरा व्यापक रूप से फैली हुई है। मैंने रवींद्रनाथ टैगोर और जिद्दू  कृष्णमूर्ति के लेखन में दो अलग-अलग रूप पाए। टैगोर ने कहा है कि जिस प्रकार फूलों के खिलने के लिए बगीचे का होना आवश्यक है उसी प्रकार रचनात्मकता को विकसित करने के लिए संस्कृति का होना आवश्यक है। वहीं दूसरी और जिद्दू कृष्णमूर्ति कहतें हैं कि संस्कृति हमारी रचनात्मकता को बर्बाद करती है। वह किसी भी प्रतिभावान को अनिवार्य रूप से एक विद्रोही के रूप में देखते हैं। परन्तु यह पुस्तक बीच का मार्ग लेती है। परंपरागत शिक्षा के महत्व को समझते हुए यह किताब जिसमें शरीयत और तरेक़त के चरणों का वर्णन है, यह पुस्तक मारेफ़त की  भावना पर केंद्रित है।
  मैंने यहाँ पर सिर्फ वही लिखा है जो मैंने स्वयं देखा है या महसूस किया है। पिछले पांच दशकों में विभिन्न बड़ी परियोजनाओं और प्रेरणादायक नेताओं, प्रतिभाशाली सहयोगियों और प्रतिबद्ध कनिष्ठों ने मुझे जो सिखाया है, मैं अपनी भावी पीढ़ी के साथ वही साझा करना चाहूँगा। मेरे अनुसार ब्रह्मांडीय ऊर्जा को उत्कृष्ट आनुवंशिक क्षमता में विकसित करने की प्रक्रिया मारेफ़त है। मैंने अपने काम के दौरान कई महत्वपूर्ण मौकों पर ऐसा अनुभव किया है और मैं इसे विकास के एक कदम के रूप में देखता हूँ।
 भारतीय परंपरा इस तरह के उदाहरणों से भरी पड़ी है। तिरुवल्लुवर के विद्वान, कबीर और विवेकानंद की प्रतिभा लौकिक है और इन्होंने आगे बढ़कर कई नियम भी स्थापित किये हैं। इन सबने अपने समय में, अपने हिसाब से नए विचारों और प्रतिबिंब के नए रास्ते खोल दिए। भौतिकी और विज्ञान के अंतर्गत हमलोगों में नोबल पुरस्कार लाने की एक विशेष परंपरा भी है। हालाँकि, आजकल अनुसंधान की तुलना में सेवा कौशल ज्यादा आगे बढ़ते जा रहा है।  आजकल के ज़माने में लोग नया कुछ करने से अच्छा, चली आ रही परिपाटी का अनुसरण करना समझते हैं।

आधुनिक दुनिया में धन कुह नया करने से आता है। बदलाव की जरूरत को ध्यान में रखते हुए नैनो टेक्नोलोजी विषय के द्वार सभी के लिए खुले हुए हैं।बेशक, भारत इस क्षेत्र में विश्व में सर्वश्रेष्ठ बन सकता है। सूचना तकनीक के क्षेत्र में भारत ने विश्व में अपनी एक ख़ास पहचान बनायी है और एक इज्जत हासिल की है।  हाँलाकि इससे कुछ हज़ार रोजगार और निर्यात आय ही पैदा की जा सकती है।  पर अब इसे सेवा उपलब्ध कराने के वर्त्तमान परिदृश्य से आगे बढ़ना चाहिये।
इस पुस्तक का उद्देश्य युवाओं के दिमाग में इस बात का प्रवाह करना है कि शिक्षा के क्षेत्र में अपार संसाधन और सहयोगी प्रणालियाँ मौजूद है। अगर इन संसाधनों का इस्तेमाल नहीं किया गया तो उनकी अनदेखी हो  जाएगी।
इस पुस्तक में वे छोटे-मोटे विचार प्रस्तुत किये गये हैं जो पिछले पांच सालों में कई लाख स्कूली बच्चों के साथ बातचीत के दौरान मैंने बांटे, जो  महत्वपूर्ण होते हुए भी परंपरागत पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं।  मेरी वेबसाइट पर बहुत रोचक प्रश्न पूछे गए हैं;  जैसे हम किसी वृत को 360 डिग्री में ही क्यों बांटते हैं? गणित में जोड़ और घटाव जैसे विषय कब लाये गए? आर्यभट्ट ने जिस चीज़ को सन 499 में ही में खोज लिया था, कोपरनिकस के उसे 1000 वर्ष खोजने के बाद इतना हंगामा क्यों हुआ?

  हम एक आतंक प्रेरित युग में रहते हैं। यहाँ ऐसे भी लोग हैं जो ऐसा सोचते हैं कि अपने एक सपने के लिए अपनी जिंदगी का बलिदान कर जन्नत में एक अच्छी-खासी जगह अर्जित कर लेंगे।  इन सब के बीच यह स्वर्ग कहाँ से आया? क्या धरती मानवता के रहने के लिए एक सही जगह नहीं है? क्या हर इंसान अपनी जिंदगी अपनी किस्मत से आगे नहीं बढ़ाता? इस पुस्तक में इस तरह के उत्तर नहीं मिलेंगे। ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने की बजाय  यह पुस्तक स्वयं एक प्रश्न पूछती है कि क्या सभी कलियाँ खिलकर फूल नहीं बनती?


ए.पी.जे. अब्दुल कलाम.

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