Monday, December 31, 2012

नया वर्ष 2013


  शाम ढल रही है 
यादों का दीया जल उठेगा,
धीमी लो के साथ धीमे-धीमे,
अपना प्रकाश बढायेगा।

सफ़र हमारी यादों का
एक और साल आगे बढ़ जायेगा
कई रिश्ते जुड़ गए, कई दूर आकाश में चले गए,
पर हर रिश्ते के साथ एक याद जुड़ गयी।









आने वाला है एक नया वर्ष
नया जीवन, नया उत्साह लेकर,
नयी उत्तेजना है मन में,
क्या है उसके आँचल में?
फूल ही फूल गिरे सबके आँगन में,
और अपार खुशियाँ रहे सबके दामन में,
चुने हम सब अब अपनी जिम्मेदारी,
करें आने वाले कल की तैयारी,
हर दिन अब सबके जीवन मे शुभ हो,
नव वर्ष-13 में अब सिर्फ हर्ष हो ...
आप सभी  को नव वर्ष 2013 की
हर्षमय और मंगलमय शुभकामनाएं ....  

Saturday, December 29, 2012

मेरा चीरहरण

मेरा चीरहरण 

कान्हा तुम कहाँ थे,
किस जगह से देख रहे थे मुझे
या स्वर्ग की बत्ती गुल थी उस दिन !

ये सिर्फ चीरहरण नहीं था हरि,
हरण था मेरे मान का, सम्मान का
इस दुनिया में भेजने वाले भगवान का,
क्या तुम भी राजनीति करते हो,
कि जिस के आशीर्वाद से मैं पैदा हुई,
क्या बचाने की जिम्मेदारी भी उसे ही लेनी थी?

नाम सुना था तुम्हारा द्रौपदी को बचाने में,
मेरी बारी कहाँ थे स्वामी,
पर भूल जाती हूँ मैं,
वो तुम्हीं थे, जो गोपिकाओं के वस्त्र चुराते थे
कैसे उम्मीद रखूँ तुमसे बिहारी
कि तुम आते औ' मुझे बचाते
काश! अपनी थोड़ी शक्ति मेरे मित्र में डाल देते
या ऐसी सुनसान सड़क में प्रकट हो जाते चुपके से,
करते प्रयोग सुदर्शन का,
या बचा लेते मेरा चीरहरण।

सही में तुम लोग बस
ऊपर बैठके बंशी बजाओ
समय रहते भी अपनी लीला
कभी न दिखाओ,
पर आ गयीं हूँ अब मैं तुम्हारे आस-पास,
कैसे चुराओगे नज़रें, कैसे दोगे झूठा विश्वास,
माता-पिता, भाइयों को मेरे थोड़ी सांत्वना दो,
चुप कराओ उनकी कराहती साँसों को,
जनता के बीच उठते उफान को,
सुनो विनती मेरी गिरधारी,
कई लोग अभी भी हैं शरणांगत तुम्हारी !             

Thursday, December 20, 2012

कुछ ख़ास दोस्तों के नाम: फ्लैशबैक

कुछ ख़ास दोस्तों के नाम: फ्लैशबैक

दिन ढलता है और निकलते है हम अपने छत्ते से,
पूरे दिन की घटना और बहुत सारी गपशप,
पल्लू  में बांध लातें हैं
औ' सर पर पांव रख भाग के आते हैं पार्क में,
और फिर खोल देते हैं जीवन का पिटारा।

अपनी कहानी, अपनी जुबानी रोज कहतें हैं,
रोते हैं, हँसते हैं, गपियाते  हैं
अपनी कहानी सुनांने को रोज तरसते हैं

बच्चों की आड़ में,
निकल पड़ते हैं हरदिन,
एक-दूसरे से मिलने के लिए,
गुदगुदाता-सा रिश्ता है हमारा,
नाम है इसका दोस्ती।
 
रेशम का नाजुक, और बसंत-सा रंगीन,
मेरा, तुम्हारा, हम सबका मिजाज़,
हरा हो जाता है एक-दूसरे के खिले चेहरे देख कर,
जैसे हवा के झोंके ने छू लिया हो अधखुली
गुलाब की कलियों को,
इठलाते हुए अपने कहकहों के बीच,
गुम हो जाते हैं जैसे भोंरा छुपा हो कलियों के बीच।

कभी बेस्ट चीज़ों की बातों पे हंसना,
कभी कहना हां सुन, कभी अरे, तो
कभी चेहरे के तेज के हंसगुल्ले उड़ाना,
हमारी मिस ब्यूटीक्विन को निहारना,
सबब है हमारे साथ रहने का।








जा के सबके घरों में, घंटों चाय पे बिताना,
 चुस्कियां लेके बातों के मजे लेना,
सालता है आज मुझको न होने पे ये,
सर्द मौसम ने चुरा ली है, हमारी मुस्कुराहटें
हमारी चुहलबाजियों पर बिछ गयी है कोहरे-सी परत,
स्वेटर के फंदों-से जुडें हैं हम इस जिंदगी में,
एक-एक खुले तो उधड़ जाएगा पूरा ताना-बाना,
हमारा घोंसला फिर चुका है निर्जन,
निकलते हैं फिर-से वापस अब पुराने अड्डे पे,
साथ हैं हम, तभी कुछ बात है,
वरना सबका अपना-अपना दाल-भात है,
ठंडे पड़े मौसम में मिलके लगाते हैं आग,
निकलते हैं घर से फिर, चल जल्दी से भाग,
याद आती है मुझको फिर वो सुहानी शाम,
जहाँ बहुत दिनों से मैं फ्लैशबैक पर हूँ ...


कुछ ख़ास दोस्तों के नाम ....

Wednesday, December 19, 2012

बिना तेल के भोजन

बिना तेल के भोजन 

आज एक नए टॉपिक पर बात करूंगी। यह काम मैं काफी दिनों से कर रहीं हूँ और चाहूंगी कि  आप भी अपने जीवन में अपना के देखें। आप अपने खान-पान में कितना नियंत्रण रखते हैं? आपका खाना आपके जीवन में गहरा प्रभाव डालता है आप जैसा खाते हैं, वैसे ही दीखते हैं।
अपने शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए मैंने हमारे जीवन से पाम ( Palm Oil) जिसे हम आम भाषा में  रिफाइन कहतें हैं त्याग दिया है। क्या आपने कभी अपने  रिफाइन तेल रखने वाले डिब्बे को देखा है, अगर उस डिब्बे के बाहर एक बूँद भी ज़म जाती है तो सूख कर वह चिपचिपी और सफ़ेद हो जाती है। जिसे साफ़ करने के लिए हमें गरम पानी की जरूरत होती है। सोचिये, ऐसी कितनी ही बूँदें मिलकर हमारे हृदय की आस-पास की धमनियों में जमी होंगी, जो आने वाले दिनों में हमें परेशानी का सबब दे सकती हैं। मैंने 5 साल पहले एक मौन प्रण लिया था, जो अब लगभग पूरा होने जा रहा है। मैंने सोचा था कि  मैं जब 35 की हो जाऊंगी तब उबला खाना, खाना शुरू कर दूँगी, पर मैंने अब पहले ही शुरू कर दिया है, जो मेरे लिए एक जीत है, मेरे अपने से लिए प्रण से ...

मैंने खाने में तेल डालना ही बंद कर दिया है और खासकर सब्जी बनाने और दाल छोंकने के समय। कैसी भी सब्जी और दाल बिना रिफाइन के बनायी जा सकती है और उतनी ही सुस्वादु ... हम सब जानते हैं कि  सब्जी में बिना प्याज़, लहसुन, हरी मिर्च और अदरक के स्वाद अधूरा लगता है तो क्यों न इन सब को डाला जाये और सब पहले जैसा ही बना लिए जाये। आपको जानकर आश्चर्य होगा की प्याज़ भूनने के अलावा भी एक और तरीके से पक सकता है। इसके लिए पहले बर्तन गरम कर लें, गैस/ स्टोव में  कम आंच में बर्तन रख कर बिना तेल डाले जीरा, हींग, अजवाईन गरम कर लें और भूरा होने तक भून लें। भुनने की खुशबू से भी पता चल जाता है कि मसाला तैयार है। प्याज़, लहसुन,अदरक, मिर्ची को छोटा-छोटा काट  लें, या कद्दुकश कर लें।बेहतर होगा कि खाना प्रेशर कुकर में ही बनाएं। ये सारी चीज़ें डालकर अच्छे से आपस में मिला लें और थोडा-सा पानी डालकर कुकर में 2-3 सीटी बजने दें। गाढ़ी ग्रेवी/ या ज्यादा तरी के लिए इस सब चीज़ों के साथ थोड़ा दही भी मिला दें और 5-6 सीटी देकर अच्छे-से  पकने दें, फिर ठंडा होने के बाद इन सारी चीज़ों को किसी मथने वाली चीज़ खूब अच्छे से मिला लें। इस तरीके से तैयार हो जाता है किसी भी दाल-सब्जी के लिए मसाला/ग्रेवी।

सब्जी भूनने से उसके पोषक तत्व समाप्त हो जातें हैं, तो बेहतर है उसे उबाल लें और उसका स्टॉक वापस सब्जी में ही डाल लें।

1. फूलगोभी को एक बर्तन में उबाल लें,बरतन में  पानी गरम कर लें, उबलते पानी में गोभी के टुकड़े दाल लें, थोडा नमक भी डालें और ढक  के 2-3 मिनट उबालें, और फिर गैस बंद कर दें। ठंडी होने पर गोभी अलग कर लें   और चाहे तो उसका स्टॉक फिर से काम में ले आयें।
2. टमाटर की ग्रेवी बनानी है, तो छोटे टमाटर काट के सीधे बर्तन में डालें और थोड़ा नमक डाल के उसे गलने दें, फिर जब पक जाये तो अच्छे से मिला लें।
   मैंने अभी भिंडी के साथ किसी भी तरह का प्रयोग नहीं किया है तो खुद एक्सपेरिमेंट कर के इसके बारे में जरूर बताऊंगी। सर्दियों में  कभी-कभी फ्राइड खाना जैसे पकोड़े खाना सबको पसंद है, सो सरसों के तेल में  ही इन्हें बनाये तो बेहतर है।

फैट/वसा हमारे भोजन में एक आवश्यक तत्त्व हैं, जो हमारे शरीर में लुब्रिकेंट का काम करतें हैं और हमारी हड्डियों को फ्लेक्सिब्लिटी देतें हैं, सो इसका होना शरीर के लिए जरूरी है। एक निश्चित मात्रा में घी शरीर को लाभ ले सकता है, सो वसा को पूरी तरीके से छोड़ना भी खतरनाक है। उबला खाना खाएं और स्वस्थ्य रहे।

आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी ....

Tuesday, December 18, 2012

सामाजिक विकलांगता का नाम है 'वहशीपन'

 सामाजिक विकलांगता का नाम है वहशीपन  
रेप, बलात्कार, हवस एक ही नाम है हैवानियत से परिचय करने के लिए। परसों दिल्ली में  घटी इस घटना से मन आहत है, उद्वेलित है और साथ ही कुछ करने में अक्षम भी है। भला हो उस पुरुष साथी का, जो उस लड़की के साथ था, नहीं तो अभी उसकी लाश ही मिलती या सडा-गला, क्षत-विक्षत शरीर कहीं चर्चा का विषय होता।
 ये समझ में ही नहीं आता कि लोग कैसे इतना नीचे गिर सकते हैं।
        शराब आदमी की मति भ्रमित करता है और ये ही हुआ उन निकृष्ट लोगों के साथ जिन्होंने ये कुकृत्य करने का दु:साहस किया। शराब से आपका अपने आप पर नियंत्रण नहीं रहता, फिर भी पीना जरूरी है, क्योंकि ऐसे लोगों की शान इसी में हैं। दिल्ली चूँकि हमारी राजधानी है, तो रहने के फायदे भी उतने ही हैं, बनिस्पत दूसरे शहरों के, पर नुकसान भी हमें ही झेलना पड़ता है। आये दिन बढ़ते क्राइम को देख कर सजग होने का समय आ चुका है। हम अपने घरों में लड़कियों को पुरुषों की बराबरी करने  से रोकते हैं, चाहे हम प्रोफेशनली कितने ही सफल क्यो न हो जायें पर कोई एक चीज़ है जो हमें रोक देती है, उनके चेहरे में तमाचा मारने से। बात सिर्फ लड़कियों की ही नहीं है, लड़कों की बदतमीज़ी भी दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है। जितना गली-गलोच लड़के करते हैं, शायद ही किसी लड़की को गाली बकते किसी ने देखा होगा। हमारी भाषा ही हमारे स्तर का पैमाना है, जिस दिन भाषा बिगड़ी, समझो उसी दिन गए हाथ से। क्या अपने बच्चों की बोल-चाल पर हमारा नियंत्रण नहीं होना चाहिए ? जिंदगी में परिवर्तन एक नियम है और हम सब उसी नियम का हिस्सा है।
    घर से शुरुआत क्यों न की जाये, एक उदाहरण देना हो सकता है पर्याप्त न हो पर इससे सबक जरूर लिया जा सकता है। बरसों से भारत में पोलियो, टी.बी., तपेदिक जैसी लाइलाज बीमारियाँ कई लोगों की जान ले लेती थी, पर आज सही दिशा-निर्देश में इन बीमारियों के उन्मूलन कार्यक्रम के तहत इनका देश से लगभग सफाया हो चुका है। कुत्सित मानसिकता भी एक बीमारी है, ये शारीरिक ही नहीं एक मानसिक व्यसन भी है और इसके लिए सिर्फ उत्तम विचारों का निवाला ही एक उपाय है। कड़े क़ानूनों को लागू करके इनका नित्य जीवन में प्रयोग करने से हो सकता है कुछ परिवर्तन जरूर आये। आये दिन लड़कियों में फब्ती कसना, उनका मजाक उड़ाना ये सब हम अपने आस-पास हर रोज देखतें हैं, पर सिर्फ ये सोच के चुप रह जातें हैं कि  इनके मुंह  कौन लगे। कहीं ये हमें परेशान न करने लगे, माँ-बाप का नाम ख़राब होगा इत्यादि पर अगर एक आवाज़ उठा के कोशिश की जाये तो बड़े कदम उठाने में आगे सहूलियत होगी।

बहुत सारे तत्व इससे जुड़े हुए हैं, जिसमें बहुत बड़ा हाथ हमारे मनोरंजन के  साधन टीवी का है। किसी भी फिल्म में देख लें, लड़कियों को कम कपड़े पहना के कैमरे के सामने खड़ा कर दिया जाता है, और हीरो अपने बदन को ढक कर यहाँ-वहां कर रहे होते हैं। क्या हीरो का बदन दिखाने के लिए नहीं है या बिचारा कुपोषित है।फिल्मी  बाज़ार में  चालू/ चलती फिल्में बिक जाती हैं, इस शरीर उघाड़ने  के क्रम में।  क्या आपका शरीर आपकी पर्सनल प्रॉपर्टी नहीं है, जिसकी इज्ज़त बचाना आपके अपने हाथ में  हैं?
मनोजरंन का तात्पर्य/ शाब्दिक अर्थ है मन का रंजन, दिल-बहलाव, . कोई ऐसा कार्य या बात जिससे समय बहुत ही आनंदपूर्वक व्यतीत होता है। मन का रंजन हँसने से, खेलने-कूदने और ऐसे किसी सकारात्मक काम से हो सकता है, जो आपके जीवन के नियमित कार्यक्रम से आपको थोडा निजात दिलाये और आपका ध्यान बांटे।
हम अपने घर की लड़कियों को जब तक पूर्णरूपेण स्वतंत्र नहीं करेंगे तब तक यह समस्या आती रहेगी। आख़िरकार लड़कियों को पराये घर जाना ही होता है, तो आने वाले समय के लिए जब हम उन्हें  तैयार करके भेजते हैं तो इन बिन बुलायी घटनाओं के लिए अलर्ट करना भी हमारी ही जिम्मेदारी होनी चाहिए। जब तक एक निडर जीवन जीना हमें घर से नहीं सिखाया जायेगा, तब तक कैसे हम इन समस्याओं से लड़ना सीखेंगे।
अंत में  इतना कहना जरूर चाहूंगी कि ,

अहल्या द्रौपदी सीता तारा मंदोदरी  तथा,
पंचकन्या स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम।।  

Monday, December 17, 2012

परोपकार: सबसे बड़ा धर्म

परोपकार:  सबसे बड़ा धर्म 

कुछ दिन पूर्व एक लघु कथा पढ़ी थी, जो मेरे दिमाग में बैठ गयी है, सोचती हूँ आप सब के साथ साझा करूं।

 एक कॉफ़ी शॉप थी, वहां हर रोज दसियों लोग कॉफ़ी पीने आते थे, कोई अपना पूरा मग ख़तम कर के जाता तो कोई कॉफ़ी में नुक्स निकाल आधी पी के चला जाता। इसी तरह एक दिन एक व्यक्ति आया और एक कोने में जाकर बैठ गया। उसने 2 कप कॉफ़ी का आर्डर दिया। कॉफ़ी शॉप छोटी थी, तो मालिक स्वयं ही कॉफ़ी सर्व करता था। उसने अपने डेस्क से ही बैठे-बैठे पूछ लिया, भाईसाहब कहीं मैंने गलत तो नहीं सुना, आपने 2 कप कॉफ़ी का आर्डर दिया है। उसने कहा नहीं सर, आपने सही सुना है, मैंने 2 कप का ही आर्डर दिया है, पर मेरी एक रिक्वेस्ट है, एक कप कॉफ़ी हाथ में, और दूसरी एक पर्ची में दे दीजियेगा ....

   यह बात सुनकर शॉप का मालिक मंद-मंद मुस्कराते हुए सोचने लगा, जरूर किसी सनकी ने  आज जगह हथिया ली है, खैर मुझे तो पैसे मिल जायेंगे। कॉफ़ी आई और उसने चुस्की ले कर अपनी कॉफ़ी ख़तम की और जिस जगह वह बैठा था, वहां पर बची 1 कॉफ़ी की स्लिप लगा कर चला गया। सर्दी का मौसम था, कॉफ़ी पीने वालों की तादाद बढती जा रही थी। खैर, वह आदमी अगले दिन फिर कॉफ़ी की शॉप में आया, पर साथ में आज एक और साथी के साथ आया, इस बार उन्होंने 4 कॉफ़ी का आर्डर दिया और ये सुनिश्चित किया कि उसकी एक पुरानी स्लिप वहां दीवार पर लगी हुई है कि नहीं ... फिर उन दोनों मित्रों  ने मिलकर अपनी 1-1 स्लिप फिर दीवार में चिपकाई और वहां से चल दिए। इस तरह ये सिलसिला चलता रहा, और कुल मिलाकर उस आदमी ने करीब 20-30 स्लिप दीवार में चिपका दी। शॉप में कप धोने वाला एक आदमी इस बात को हर रोज बड़ी बारीकी से देख रहा था, उसने एक दिन शॉप के किनारे रखे कूड़ेदान के पास बैठे आदमी को एक कप कॉफ़ी पिलाई और दीवार में लगी एक स्लिप निकाल के कूड़ेदान में डाल दी। वहां वो आदमी हर रोज एक के बदले 2 कप कॉफ़ी का आर्डर देता रहा, और यहाँ कप धोने वाला 1-1 स्लिप का सदुपयोग करता रहा। इस तरह उस शॉप में अब लोगों ने एक के बदले 2 कप कॉफ़ी का आर्डर देना शुरू कर दिया, और रास्ते में चलता कोई भी गरीब उस शॉप में घुस कर बेधड़क अपने लिए एक कॉफ़ी का आर्डर देता और एक स्लिप कूड़ेदान में फेंककर आगे निकल जाता ......

कहानी का सार है परोपकार करना जीवन का सर्वोत्तम धर्म है, जिसे छिछोरी भाषा में कह सकते हैं, नेकी कर दरिया में  डाल। होने को ये उक्ति यहाँ फिट नहीं बैठती पर कुछ लोग इस तरह की भाषा ज्यादा अच्छे से समझते हैं। वह आदमी 2 कॉफ़ी की कीमत अफोर्ड कर सकता था, तो उसने किया। अपने साथ उसने एक अनजान व्यक्ति को ठण्ड के मौसम में थोड़ी राहत दी। वह आदमी मुझे एक पेड़ की तरह लगने लगा है, जो सर्दी, गर्मी, बरसात में खुद कष्ट सहता रहता है, और फल देता रहता है। स्लिप निकाल के कॉफ़ी पीने वाला आदमी उस फल का अधिकारी है। अंग्रेजी में Cecil .F. Alexandar ने एक कविता लिखी है, All things bright and beautiful..... इस कविता की 1 पंक्ति मुझे बरबस याद आती है ...  

The rich man in his castle,
The poor man at his gate,
He made them, high or lowly,
And ordered their estate.

मेरी मम्मी कहतीं हैं कि आदमी के जीवन मैं 50 % हाथ उसकी मेहनत और 50% हाथ किस्मत का होता है और यह सही भी है। यह बात सच है कि आदमी अपने कर्मो से भी राज और रंक बनता है, पर ऊपर वाले की भी इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है, हर आदमी की रचना उसी के हाथ में निहित है। जब हम ऊपर से ही निर्धारित होकर आये हुए हैं, तो धरती में अपनी भूमिका को नकारना नहीं चाहिये। अगर हम किसी निर्धन के जीवन में किसी भी पॉजिटिव तरीके से धन आने का कारण बन सकते हैं, तो वो कारण बनने से चूकना नहीं चाहिए। क्योंकि ना जाने किस भेष में बाबा, छुपा हुआ है भगवान ... हो सकता है हम उस गरीब के जीवन में भगवान की तरह हों, पर साथ में हमें भी ये देखना चाहिए कि हर गरीब के भेष में भगवान छिपा हो सकता है। 
इसलिए कोई भी काम करने से पहले ये जरूर देखना चाहिए कि किसी भी कार्य के जरिये परोपकार किया जा सकता है, उसके लिए धनराशि ही नहीं मन में श्रद्धा और त्याग का होना भी जरूरी है .....

Wednesday, December 12, 2012

स्त्री का जीवन; असंख्य बदलाव, अनगिन भावनाएं

स्त्री का जीवन; असंख्य बदलाव, अनगिन भावनाएं 

बहुत दिनों  से सोच रही थी कि कुछ लिखूं, पर समय मिल नहीं पा रहा था।मुझे याद है मैंने बचपन में कहीं सुना था कि जब बेटियाँ जनमती हैं, तो उनका नामकरण संस्कार बड़ी ही ख़ामोशी से मनाया जाता था। पता नहीं ऐसा क्यों करते थे लोग, क्या उनके घर की बेटियां गुमनाम जीवन जीने के लिए पैदा होती थी ?
मम्मी कहती हैं जब तनु ( मेरी बड़ी बहन ) पैदा हुई थी तो जलसा हुआ था। अपनी बारी का तो मुझे पता नहीं। पर इतना जरूर याद है और मरते दम तक याद रहेगा कि  नानी, मामा, मौसी हर साल मेरे जन्मदिन पर मार्कंडेय जी की पूजा करवाते थे, जो मूलतः बेटों के ही जन्मदिवस पर ही लोग करवाते थे। ये पूजा अब हम अपने बेटे के जन्मदिवस/ जन्मतिथि वाले दिन जरूर करवाते हैं। कहते हैं मार्कंडेय जी आयुवृद्धि  का वरदान देते हैं।
  बात असल में यह है कि स्त्री मूलतः दो रूपों में पहचानी  है,  एक बेटी के रूप में, दूसरी पत्नी के रूप में। बेटी के रूप में चंचल, अल्हड, मदमस्त- सा जीवन होता है उसका, पर पत्नी बनते ही जिम्मेदारियों का पहाड़ धीरे-धीरे उस पर आने लगता है। मुझे याद है अपने अविवाहित जीवन में मैंने कभी-कभार ही गृह संबंधित कोई कार्य किये होंगे, पर विवाह के बाद रसोई और मेरा तो इस जनम से नाता ही जुड़ गया है। बेटी बन कर अपने माँ-पापा के संघर्षपूर्ण जीवन को एक दर्शक के नज़रिए से देखती थी, पर आज जब खुद उसी पायदान पर खड़ी हूँ, तब समझ आता है, जिंदगी तुम्हारे कितने नूतन रूप हैं। मैं ऐसा बिलकुल भी नहीं कह सकती कि प्रतिदिन मेरे जीवन में कोई न कोई परिवर्तन आता है, पर हाँ, सुधार की गुंजाइश जरूर रखती हूँ। जब माँ-पापा के साथ थी, तब सही में कोई गंभीरता नहीं थी, जीवन के प्रति, जो रास्ते में आया, या तो अपना लिया या ठोकर मार दी, ये ही दो नियम थे, कभी तीसरा विकल्प सोचा ही नहीं कि सहेज के भी रखा जा सकता है।
 करीब 10 सालों से मैं विवाहित हूँ, पर अब जब खुद पलट के देखती हूँ तो एक औरत के रूप में जीवन अलग ही दिखलाई देता है। मुझे आज भी सबसे बड़ी चिंता खाने-पीने को लेकर ही होती है, कि खाना क्या बनाना है। मेरे घर के लोग सही से खा-पी लें, ये ही मेरी प्राथमिकता होती है। जीवन हम सभी को बहुत कुछ सिखाता है। पहले शादी को लेकर उत्साह रहता है, फिर अपने साथ दूसरे व्यक्ति के प्रति भी हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है और जब हम एक जिम्मेदारी निभा पाने में सफल हो जाते हैं तभी तीसरे सदस्य के आने की तैयारी हम सभी करते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि पति-पत्नी शादी के कुछ सालों के बाद ही एक पूर्ण परिवार की ओर अग्रसर हों, जिससे अपने रिश्तों को प्रगाढ़ रूप दिया जा सके।
उम्र बढ़ने के साथ ही रिश्ते भी नए-नए रूप लेते हैं। पति-पत्नी जब अकेले होते हैं, तो उनके बीच में खटपट होनी भी लाजमी है, क्योंकि एक छत के नीचे दो समान उम्र के लोगों का निवास होता है, और वहां पर भी 'सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट'  की बात होती है, पर यहाँ जीवन अपना प्रभुत्व बना के नहीं, दोनों की परस्पर इच्छाओं का सम्मान करके सफल होता है। एक स्त्री जब पत्नी से आगे बढ़के एक माँ बनती है, तो एक अनजान ताकत उसके अन्दर कितने सारी नयी अनुभूतियाँ डाल देती  हैं, जिसका आंकलन/ अनुभव एक पुरुष के लिए कर पाना सच में एक मिस्ट्री ही है। फिर ये झगड़े और खटपट विष-वमन की तरह हम पी लेते हैं, या इसे अन्यथा (इग्नोर) कर देते हैं क्योंकि घर का माहौल ख़राब न हो। माँ बनते ही, ममत्व सबसे पहले आता है, और फिर आती है त्याग की भावना।  लगता है जीवन का ये नियम है कि ममत्व को जिलाए रखने के लिए त्याग अवश्यम्भावी है। अपने छोटे से  बच्चे को खुश रखने के लिए माताएं  कभी अपना निवाला बीच में से छोड़ के उठती हैं, तो कभी रात में सोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए अपनी नींद त्याग देती हैं, इसे कहतें हैं समय की पुकार ... जब किसी के प्रति प्रीति रखनी हो, तो उसके लिए स्नेह और त्याग रखना भी जरूरी है, विश्वास तो एक शर्तिया शब्द है, क्योंकि यही दो भावनाएं ऐसी हैं, जो किसी दो व्यक्ति को आपस में जोड़ के रखती है।
  स्त्री को धैर्य की प्रतिमा भी कहते हैं। प्रतिमा को अहिल्या शब्द से भी जोड़ा जा सकता है। अहिल्या ने अपने श्राप से मुक्ति पाने के लिए प्रतिमा का रूप ले लिया और फिर उसे श्रीराम द्वारा सदगति मिली। परिवार को सुदृढ़ रखने के लिए धैर्य प्रबल तत्त्व है। वह धैर्य परिवार के विकास में मील का पत्थर साबित होता है। बच्चे की किलकारी के लिए धैर्य, उसके चलने-उठने-गिरने से लेकर उसे एक सफल व्यक्ति तक परिणत करने का धैर्य एक सतत प्रयास है, जीवन की उन सभी इच्छाओं पर एक नियंत्रण रखने का जो विचलित होने पर मार्ग से भ्रमित कर सकती हैं।

आगे बाद में .....