Thursday, March 7, 2013

विरह

विरह

वो था मधुमास,
जीवन में था केवल हास,
और तुम एक भ्रमर थे
उन्मुक्त उड़के तुम कभी चले आते थे
अन्यथा अपने छत्ते में ही पड़े रहते थे तुम तो

ये पता था मुझको कि
तुम्हारा एक ही ठिकाना
चाहा था कभी मैंने भी
जीवन तुम संग बिताना
क्योंकि ये पता तुमको तो था
कि कब खिलूंगी और कब मुरझाऊंगी में जीवन में कब
पर मैंने चुना तुमसे कहीं दूर जा,
खुद को बसाना।

प्रेम की हर पात मैंने नोच डाली,
छोड़ कर गिर गयी उस पौध से,
जिसके तुम थे माली,
अब भी अकस्मात् याद आते हो तुम
परागों में यदा और कभी भरेपूरे उपवन देख कर
संतुष्ट होती हूँ मैं कोसों दूर हूँ अपने नयन भर

ये नहीं तुमको बता सकती
कि मैंने विरह को क्यों चुना
आग में तपकर, भसम कर
अपना मन मैंने क्यों भुना ?
चाहते हो जानो कि, मेरे उस
संकल्प का क्या था प्रयोजन
हर घडी जो साथ थी मैं तो क्यों वियोजन?

प्रेम से वशीभूत होकर
सब हैं जुड़ते,
एक दूजे के साथ रहते, साथ चलते
हाथ में डाले हाथ, कुछ कहते, कह्कहाते,
पर अगर मैंने विरह को चुन लिया,
तो ओ मेरे प्रिय, मैंने कुछ नया नहीं किया,
स्वर्ण गर आग में तप जाए
तो निखर जाता है बंधु,
लौ में जल कर हर पतंगा
प्यार पता है अद्भुत
प्रीत के बदले मैंने
विरह को वर लिया 
प्रेम तुमसे प्रतिपल
मैंने उतना किया,
जैसे एक चकोर देखे चाँद को,
रोशनी बसती रहे हमारी आँख में,
ऐसी एक प्रीत मैंने भी तुमसे करी,
साथ चलने की न जिसमे कोई शर्त रखी ....         


  

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